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गुरु पूर्णिमा के दिन गुरुओं की पूजा और उनका सम्मान करने की भारतीय परंपरा सदियों से चली आ रही है।
शास्त्रों में भी गुरु को भगवान से ऊपर का दर्जा दिया गया है। गुरु हमें जीवन का सच्चा मार्ग दिखाने में मदद
करते हैं। जो व्यक्ति, मनुष्य को ज्ञान प्रदान करे, सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे, उसे ही गुरु कहते है।
हमें अपने आध्यात्मिक अज्ञान को मिटाने के लिए एक अच्छे गुरु की आवश्यकता है। हमें यह समझने की
जरूरत है कि कैसे हमें अपने सच्चे गुरु के शरणस्थली बने और उनके चरणों तक कैसे पहुंचा जाए, क्यूंकि
केवल शास्त्रों को पढ़कर आत्मज्ञान नहीं हो सकता, उसको समझने के लिए हमे एक गुरु की आवश्यकता होती
ही है।
शब्दकोश की सहायता से हमें शब्दों के अर्थ तो मिल सकते हैं, लेकिन ग्रंथों की व्याख्या वही कर सकता
है जो उसका ज्ञानी हो और उसके महत्व को समझता हो, इसलिए हमें एक अच्छे गुरु की आवश्यकता होती है।
एक अच्छा गुरु वह होता है जो जीवन की सत्यता की अनुभूति करा सके। वह दूसरों को भी सच्चे मार्ग पर
चलने के लिए प्रेरित कर सके। एक गुरु का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण होता है और उसका मन हमेशा सर्वोच्च
पर केंद्रित रहता है। वह धैर्यवान और शांत होता है। तैत्तिरीय उपनिषद (Taittriya Upanishad) इन सभी को एक
अच्छे गुरु के गुणों के रूप में बताता है।
आदि गुरु शंकराचार्य ने शिष्यों के साथ 8वीं शताब्दी में अद्वैत वेदांत दार्शनिक में छात्रों के आकलन और
मार्गदर्शन में गुरु की भूमिका पर चर्चा करते हुए बताया है कि एक गुरु शिक्षक पायलट (pilot) के जैसे छात्र के
साथ उसकी ज्ञान की यात्रा में चलता है। एक गुरु में इतनी समझ होनी चाहिए कि जब शिक्षक को ऐसे संकेतों
से पता चलता है कि उसका दिया हुआ ज्ञान छात्र तक नहीं पहुंच रहा है या छात्र उस ज्ञान को गलत तरीके से
समझ रहा है तो गुरु को छात्र को अच्छे से समझना चाहिए और उन कारणों को दूर करना चाहिए जिनकी
वजह से छात्र उस ज्ञान को सही तरीके से ग्रहण नहीं कर पा रहा था।
गुरु को शिष्य में श्रुति और स्मृति से
जुड़े साधनों को विकसित करना चाहिए। उसे छात्र में विनम्रता जैसे गुणों को डालना चाहिए, जो ज्ञान के साधन
हैं। शिक्षक वह है जो छात्र के प्रश्नों को समझे और पक्ष तथा विपक्ष के तर्क प्रस्तुत करने की शक्ति से संपन्न
हो, और उन्हें याद रखता हो। शिक्षक के पास शांति, आत्म-संयम, करुणा और दूसरों की मदद करने के गुण होने
चाहिए, जो श्रुति ग्रंथों (वेदों, उपनिषदों) में पारंगत हो, अपने विषय को अच्छी तरह से जानता हो। वह कभी भी
आचरण के नियमों का उल्लंघन नहीं करता हो, आडंबर, घमंड, छल, कपट, ईर्ष्या, झूठ, अहंकार और मोह जैसी
कमजोरियों से दूर हो। शिक्षक का एकमात्र उद्देश्य दूसरों की मदद करना और ज्ञान प्रदान करना होता है। आदि
शंकराचार्य उदाहरणों की एक श्रृंखला प्रस्तुत करते हैं जिसमें उन्होंने जोर देकर कहा कि एक छात्र का मार्गदर्शन
करने का सबसे अच्छा तरीका तत्काल उत्तर देना नहीं है, बल्कि संवाद-संचालित प्रश्नों को प्रस्तुत करना है जो
छात्र को उत्तर खोजने और समझने में सक्षम बनाता है।
गीता में भगवान कृष्ण हमें बताते हैं कि हमें एक अच्छा गुरु खोजने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है।
हमारे चारों ओर बहुत सारे गुरुओं की उपस्थिति आपको मिलेगी, जैसे कि पृथ्वी, सांप, कबूतर आदि जैसी विविध
चीजें। ये तत्व सभी गुरु हैं, यदि हम उनका पालन करते हैं और उनके तौर-तरीकों अनुसरण करना चुनते हैं।
भगवान कृष्ण दो गीता लेकर आए थे, एक प्रसिद्ध भागवत गीता थी, जिसका उन्होंने अर्जुन को उपदेश दिया
था। दूसरी थी उद्धव गीता, जिसका उपदेश उन्होंने उद्धव को दिया था। जब उनका कृष्ण अवतार समाधि लेने
वाला था, उद्धव शोक से व्याकुल हो गए। भगवान कृष्ण के समाधि लेने के बाद वह जीवित नहीं रहना चाहता
था। इसलिए उसने भगवान से पूछा कि वो कैसे जीवन में ज्ञान को प्राप्त करे और उसे मोक्ष मिले। तब
भगवान ने प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को गुरु के रूप में इंगित किया, जो हमें मूल्यवान सबक सिखाते हैं।
भगवान कृष्ण ने उद्धव की गुरु की तलाश के कार्य को सरल बनाया। उन्होंने बताया की हमें गुरु की तलाश में
नहीं जाना है, क्योंकि वे हमारे चारों ओर हैं। भगवान ने जानवरों, पक्षियों और सरीसृपों को भी अच्छे गुरु के रूप
में वर्णित किया, वे हमे जीवन के कई पहलुओं के बारे में सिखाते है। साथ ही साथ भागवत गीता में भी, श्री
कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ मनुष्य के बारे में बताया है, जो गुरुओं की विशेषताएं होती हैं, जब अर्जुन कृष्ण से पूछा कि
स्थितिप्रज्ञा (ज्ञानी मनुष्य) के लक्षण क्या हैं, तो कृष्ण उत्तर देते हैं,
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
अर्थात: जिस काल में साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओं का अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे
अपने-आप में ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ यानी ज्ञानी कहा जाता है।
मुंडक कहते हैं कि -
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ||
(मुण्डक. १:२:१२)
जिसका अर्थ है - गुरु वही हो सकता है जो श्रौत्रीय हो यानि जिसे श्रुतियों का ज्ञान हो, और जो ब्रह्मनिष्ठ हो।
ऐसे गुरु ही हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं| ऐसे गुरु किसी न किसी परम्परा से जुड़े होते हैं| हमें मार्गदर्शन
उन्हीं से लेना चाहिए।
आत्म-ज्ञान की शिक्षा परंपरा में, गुरुओं को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है - श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ तथा
श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ। श्रोत्रिय (सिद्धांत) मतलब शास्त्रों वेदों पुराणों का ज्ञाता, और ब्रह्मनिष्ठ मतलब भगवत
प्राप्ति (भगवान का दर्शन, प्रेम, भगवान की सारी शक्तियाँ, भगवान के पास जो कुछ है उसकी प्राप्ति) गुरु को
होती है। श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु मतलब भगवत प्राप्त संत जो वेदों पुराणों का ज्ञाता हो। शास्त्रों में 'गुरु'
शब्द में 'गु' का अर्थ है 'अंधकार' और 'रु' का अर्थ है 'प्रकाश' अर्थात् गुरु का शाब्दिक अर्थ हुआ 'अंधकार से
प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक'। भारत में कई सदियों से गुरु का महत्व सर्वोपरि रहा है। जीवन
विकास के लिए भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। गुरु की सन्निधि, प्रवचन,
आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है, क्योंकि गुरु
बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन। गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के
अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका। गुरु को
सभी ने सर्वोपरि माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3uG956t
https://bit.ly/3uBqw87
https://bit.ly/3RnVQRs
चित्र संदर्भ
1. गुरु और शिष्य को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. आदि शंकराचाय जी की मूर्ति , को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. अर्जुन को उपदेश देते कृष्ण को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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