| Post Viewership from Post Date to 09- Apr-2022 | ||||
|---|---|---|---|---|
| City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Messaging Subscribers | Total | |
| 282 | 17 | 0 | 299 | |
| * Please see metrics definition on bottom of this page. | ||||
संतुलन, मानव जीवन में संभवतः सबसे आवश्यक गुण माना जा सकता है। एक दृष्टांत के तौर पर यदि
कोई मनुष्य केवल “अर्थ” अर्थात धन पर ही पूरा ध्यान केंद्रित करे, तो जीवन के दूसरे पहलू, जैसे
पारिवारिक संबंध और आध्यात्मिक जीवन आदि, इससे असंतुलित हो सकते हैं। जीवन में संतुलन और
इसके परम लक्ष्य को सही मायनों में दर्शाने तथा समय-समय पर पैदा हुए जिज्ञासुओं में मन में उठने वाले
अनुत्तरित अध्यात्मिक सवालों के जवाब हासिल करने के लिए, सदियों से आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा
लिखित पुस्तक "तत्वबोध" की सहायता ली जाती रही है।
तत्त्वबोध (सत्य का ज्ञान) वेदांत (वेदांत दुनिया के सबसे प्राचीन आध्यात्मिक दर्शनों में से एक है।) का एक
मौलिक पाठ है। तत्वबोध मूल्य वेदांत दर्शन में कुछ प्रमुख शब्दों की संक्षिप्त परिभाषा प्रस्तुत करता है।
शंकराचार्य द्वारा लिखित यह पाठ आत्मविश्लेषण के लिए निश्चित परिचयात्मक पाठ माना जाता है।
उपनिषदों के अध्ययन करने से पहले वेदांत की कुछ अवधारणाएं अत्यंत स्पष्ट होनी चाहिए। इसी उद्देश्य
से उन्हें प्राकरण ग्रंथ कहा जाता है। तत्वबोध पाठ के प्रारूप में आध्यात्मिक प्रवचन, दर्शकों के साथ चर्चा,
एक या दो भजन शामिल हैं। साथ ही एक संक्षिप्त ध्यान, आरती और प्रसाद वितरण के साथ यह समाप्त
होता है। यह संक्षिप्त पद्य के रूप में, वेदांत के सिद्धांतों को निर्धारित करता है। तत्वबोध का शीर्षक संज्ञा
तत्त्व, सत्य (वास्तव में दास-हेत, सो-सेन ) और बोध ( बोध ) ज्ञान, अनुभव, विचार का प्रतिनिधित्व करता
है, अतः इसका वर्णन सत्य के ज्ञान के रूप में किया जा सकता है।
जीवन में हर कोई शिक्षा, व्यवसाय, प्रसिद्धि, धन आदि के रूप में सुख को पाने का प्रयास करता है। यदि
आपको मनचाहा लक्ष्य प्राप्त नहीं होता है या आपको वह मिलता है जो आप नहीं चाहते हैं, तो उससे दुख
उत्पन्न होता है, अतः आपको (दुख निवृत्ति) से छुटकारा पाना होगा। मनुष्य को वांछित खुशी (desired
happiness) की अदूषित प्रकृति (unpolluted nature) के बजाय, शाश्वत (नित्य सुखम) अर्थात अनंत
और असीम (निरतिषय सुखम) की इच्छा करनी चाहिए।
अब परिहार्य प्रश्न यह उठता है कि ऐसी शाश्वत खुशी कैसे प्राप्त की जा सकती है?
यहाँ पर तत्त्वबोध इसका उत्तर देने का प्रयास करता है। इसका वेदांत (वेदस्य अंत) सिखाता है कि जीवित
प्राणियों का वास्तविक स्वरूप दिव्य और चिरस्थायी आनंद (everlasting joy) होता है, जिसे प्राप्त करने
की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह तो हमारे भीतर पहले से ही मौजूद रहा है। तत्व बोध को आत्म के
अध्ययन के लिए एक निश्चित साधन माना जाता है।
इसमें कुल 103 श्लोकों के लिए 38 मुख्य श्लोक हैं, जिन्हें पांच खंडों में व्यवस्थित किया गया है:
परिचय - उपयोधगता।
1.व्यक्ति में पूछताछ - जीव विकार:।
2.व्यक्ति की जांच - आत्मा विकार:।
3.सृष्टि की खोज - श्री विचारं।
4.व्यक्ति और ईश्वर के बीच की पहचान की जांच - जीव ईश्वर विकार:।
5.स्वयं को जानने का फल - ज्ञान फलम्।
उद्घाटन और समापन छंद में विशिष्ट श्लोक वर्णित हैं, जबकि पुस्तक के शेष भाग को गद्य के रूप में
लिखा गया हैं। इस पूरे पाठ को आमतौर पर एक प्रश्न और उत्तर शैली में आयोजित किया जाता है, जो
ज्ञानयोग की बुनियादी दार्शनिक अवधारणाओं को सटीक रूप में स्पष्ट करता है।
परिचय: पुस्तक के परिचय में भगवान ( वासुदेव ) का आह्वान तथा शिक्षक ( गुरुओं ) के लिए सम्मान
व्यक्त किया गया है।
1.("Jīva vicāra or adhikārī” जीव विकार या अधिकारी )
इस खंड में सात मुख्य छंद (श्लोक 1 से 7) या 17 व्यक्तिगत छंद ,हैं और यह छात्र (अधिकारी) को
परिभाषित करता है। इसमें आध्यात्मिक पथ की साधना चार चतुर्भुज, पूर्व शर्त तथा योग्यता की
अभिव्यक्त की जाती है।
विवेक (भेदभाव - विशेष रूप से स्थायी, शाश्वत और अस्थायी, क्षणिक के बीच अंतर स्पष्ट करने की
शक्ति), वैराग्य, मुमुक्षुत्व (मुक्ति की इच्छा - विशेष रूप से संसार से मुक्ति ), दामा (इंद्रियों का नियंत्रण),
उपरति या उपरमा (आत्मनिरीक्षण, अंतर्मुखी मोड़), तितिक्षा (धीरज, दृढ़ता, आंतरिक शक्ति), श्रद्धा
(विश्वास, शिक्षकों और शास्त्रों में विश्वास) और समाधान (एकाग्रता) आदि इन सभी साधनाओं में महारत
हासिल कर लेता है, वह अधिकारी (शिष्य) बन जाता है, और सत्य की खोज शुरू कर सकता है।
२. ( “ātma vicāra bzw. ātmatattvaviveka” आत्म विकार, आत्मतत्त्वविवेक)
इस खंड के 9 मुख्य छंदों (श्लोक 8 से 16) में 38 व्यक्तिगत छंद हैं और यह जो कुछ भी परिवर्तनशील है,
उसके संबंध में आत्मा की एकमात्र वास्तविकता को परिभाषित करते है। आत्मा भौतिक शरीर से अलग है,
जो तीन मोड (शरीर त्रयं) स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर में मौजूद है। आत्मा का, चिंतन की
तीन अवस्थाओं (अवस्था त्रयं) जाग्रत, स्वप्न और गहरी नींद और पांच शरीर ( पंच कोश:), भोजन, वायु या
ऊर्जा, आत्मा या मानस, मन या बुद्धि और आनंद या बेहोशी से भी कोई लेना-देना नहीं है।
तो अंतत: आत्मा क्या है?
उत्तर है, सत-चित-आनंद , आनंद का चिरस्थायी ज्ञान।
3. (“śriṣṭi vicāra bzw. jagata kī utpatti" श्री विकारा bzw. जगत की उत्पत्ति)
इस खंड में, कुल 23 व्यक्तिगत छंदों के साथ 9 मुख्य छंद (श्लोक 17 से 25) शामिल हैं। साथ ही 24 तत्व
प्रस्तुत किए गए हैं, जो सभी माया , कारण ब्रह्मांड से उत्पन्न होते हैं। माया पांच तत्वों (पंच भूतनी) से बनी
है। पांच तत्व आकाश (ईथर), वायु (वायु), अग्नि या तेजस (अग्नि), जलम या आपा (जल) और भूमि या
पृथ्वी होते हैं।
4. (" jīva iśvara vicāra bzw. jiva-brahma as ekya” जीव ईश्वर विकार. जीव-ब्रह्मा एक्य:)
इस खंड में 10 मुख्य छंद (26 से 35 छंद) और कुल 11 व्यक्तिगत छंदों के साथ यह अग्रिम रूप से समझाया
गया है, कि सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत के बीच एक मौलिक एकता है। अर्थात अज्ञान के कारण ही
जीवात्मा स्वयं को परमात्मा से भिन्न मानती है। जब तक यह त्रुटि बनी रहती है, तब तक व्यक्ति की
आत्मा संसार में, पुनर्जन्म के चक्र में फंसती रहेगी। लेकिन जैसे ही व्यक्ति की आत्मा ब्रह्म के साथ अपनी
पहचान (उदाहरण के लिए समाधि में ) पहचान लेती है, वह जीवन मुक्त हो जाती है।
5. (" jñanaphalam or jīvanmuktaḥ" ज्ञानफलम या जीवनमुक्ता)
अंतिम खंड में तीन मुख्य श्लोक (श्लोक 36 से 38) और 14 व्यक्तिगत छंदों के साथ, जीवनमुक्ता के ज्ञान
के फल की फिर से चर्चा की गई है। इसकी मुख्य विशेषता कर्म से मुक्ति तथा संसार चक्र से बाहर निकलना
है।
इसमें तीन प्रकार के कर्मों की व्याख्या की जाती है:
1. आगामी कर्म - पहचान को पहचानने के बाद अच्छे और बुरे कर्मों का परिणाम।
2. संचित कर्म - पिछले अवतारों (बीज रूप में) में कर्मों के संचित परिणाम।
3. प्रारब्ध कर्म - इस जीवन में क्रियाओं का प्रभाव।
अंत में यह पुष्टि की जाती है कि स्वयं को जानने वाला सभी चिंताओं को पीछे छोड़ सकता है, क्योंकि
उसकी जागरूकता ने उसे अपने कार्यों के सभी प्रभावों से स्वतः मुक्त कर दिया है।
तत्वबोध के माध्यम से आदि शंकराचार्य अतुलनीय और संक्षिप्त रूप में, वेदांत के सार को समझाने मेंसफल होते हैं। इसका सार इस प्रकार है:
1. जीव आत्मा, गुणात्मक रूप से परमात्मा के समान है।
2. परमात्मा सत्यम और वास्तव में शाश्वत और अमर है।
3. हालाँकि, आत्मा मिथ्याम (आश्रित और अस्थायी) है और परम आत्मा पर आधारित है। लेकिन सच्चे स्व
की शाश्वत प्रकृति का ज्ञान सभी कर्मों को नष्ट कर देता है, और इस प्रकार जीव संसार से मुक्त हो जाता है।
संदर्भ
https://bit.ly/3j30NPS
https://second.wiki/wiki/tattva_bodha
चित्र संदर्भ
१. तत्वबोध को दर्शाता एक चित्र (flickr)
२. कृष्ण वात्सल्य को दर्शाता एक चित्र (flickr)
3. आदि गुरु शंकराचार्य को दर्शाता एक चित्र (wikimedia)