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पुराने और वीरान पड़े महलों या खंडहरों में आपको राजा अथवा उसके सेवकों के भूत भले ही न
दिखें, लेकिन गुटरगूं करते और महलों की छतों में फड़फड़ाते कबूतर आपको अवश्य दिख जायेगे।
इन कबूतरों के पूर्वज प्राचीन काल में राजकुमारों के संदेश, दूर स्थित राजकुमारी के महल में
पहुँचाया करते थे! लेकिन आज उनके वंशजों की दिनचर्या केवल भोजन की व्यवस्था करने तक ही
सीमित रह गई है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है की आज कबूतर हर जगह हैं, एक ओर जहां गौरैया जैसे पक्षियों की
प्रजाति शहरीकरण तथा अन्य कई कारणों से सिमट रही हैं, वहीं कबूतरों की संख्या इसके विपरीत
बड़ी ही तेज़ी बढ़ रही हैं! क्या आपने कभी सोचा है कि, कैसे यह पक्षी, आज न केवल पूरी दुनिया
(लंदन, इंग्लॆंड; मुंबई, भारत; और मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया) आदि शहरों में फ़ैल चुका है, बल्कि गौरेया,
चील, टर्की, हमिंगबर्ड (hummingbird) या गिद्ध की तुलना में कई अधिक संख्या में मौजूद भी
हैं।
दरसल कबूतर उत्तरी अफ्रीका और भूमध्य सागर के तट पर विकसित हुए, जहां वे चट्टानी किनारों
और चट्टानों पर आज भी अपना घर बनाते हैं। यह कबूतरों का चट्टानों तथा कठोर सतहों के प्रति
प्राकृतिक प्रेम ही था, जिसने उन्हें शहरी क्षेत्रों के लिए एकदम फिट बना दिया। यही कारण है की,
“कबूतर वास्तव में कंक्रीट, संगमरमर और पत्थर पसंद करते हैं, इसलिए वे पेड़ों और झाड़ियों और
घास में नहीं, बल्कि इमारतों में रहना और घोंसला बनाना पसंद करते हैं”।
लेकिन दुनिया भर के शहरों में आपको कबूतर मिलने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इंसान उन्हें
वहां ले आए। तकरीबन 5,000 साल पहले, मेसोपोटामिया (Mesopotamia) के नाम से जानी
जाने वाली एक प्राचीन मध्य पूर्वी सभ्यता के लोगों ने इन पक्षियों के लिए घर बनाना शुरू कर दिया
था। जैसे-जैसे पक्षी इन घरों के अनुकूल होते गए, लोगों ने उन्हें उन क्षेत्रों में भोजन के लिए पालना
शुरू कर दिया। बाद में, लोगों को पता चला कि वे इन कबूतरों का उपयोग लिखित संदेशों को लंबी
दूरी तक भेजने के लिए भी कर सकते हैं, इसका श्रेय कबूतरों की घर वापसी की प्रवृत्ति को जाता है।
प्राचीन यूनानियों और रोमनों ने सभी प्रकार के संदेश भेजने के लिए कबूतरों का इस्तेमाल किया।
8वीं शताब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत में, यूनानियों ने घरेलू कबूतरों का इस्तेमाल ओलंपिक चैंपियनों
(Olympic Champions) की खबर भेजने के लिए किया था। कबूतरों ने नेपोलियन (Napoleon)
की हार की शुरुआती खबर दी। 1870 में प्रशिया (Prussia) के हमले के दौरान, पेरिसियों ने कबूतरों
द्वारा प्रियजनों को संदेश भेजे। प्रथम विश्व युद्ध में, जर्मनों ने प्रभावी ढंग से कबूतरों को जासूसों
के रूप में इस्तेमाल किया, जहाँ उन्होने पक्षियों पर छोटे कैमरे लगाए और निश्चित समय पर
दुश्मन के इलाके में तस्वीरें लेने के लिए उन्हें स्थापित किया। जीआई (GI) नामक एक कबूतर
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सैनिकों के बचाव में तब आया, जब रेडियो प्रसारण विफल हो
गया।
विश्व की विभिन्न संस्कृतियों अथवा धर्मों में भी कबूतर हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण पक्षी रहे हैं।
जैसे :
हिंदू धर्म ने भी पूरे इतिहास में कबूतर का सम्मान किया है। पूरे हिंदू इतिहास में कबूतर के
अनगिनत चित्र हैं, जिन्हें विभिन्न देवताओं के साथ चित्रित किया जाता है। यहाँ कबूतर आज भी
पूजनीय है, पूरे भारत के मंदिरों में कबूतरों के विशाल झुंड को दैनिक आधार पर खिलाया जाता है।
16वीं शताब्दी में स्थापित सिख धर्म, कबूतर को शांति, और सद्भावना का प्रतीक मानता है। सिखों
का मानना है कि कबूतर और अन्य पक्षियों सहित सभी प्राणियों में भगवान की रोशनी है।
हिंदू
धर्म की तरह, सिख भी आज भारत और पूरे ब्रिटेन और कई यूरोपीय शहरों में मंदिरों के आसपास
कबूतरों को खाना खिलाते हैं। इतिहास में इस्लाम का कबूतरों के साथ मजबूत संबंध रहा है, और
यह जुड़ाव आज भी पवित्र शहर मक्का में पाए जाने वाले झुंडों के साथ जारी है, जहां पक्षियों के लिए
प्रजनन स्थल उपलब्ध कराए जाते हैं। और मक्का के तीर्थयात्री उन्हें खिलाने के लिए अनाज
खरीदते हैं। मदीना (पश्चिमी सऊदी अरब) में मोहम्मद की दरगाह पर हजारों कबूतर इकट्ठा होते
हैं जिन्हें आमतौर पर 'पैगंबर पक्षी' कहा जाता है। पिजन रेसिंग और फैन्सिंग (Pigeon Racing
and Fencing) अभी भी मुस्लिम दुनिया में एक लोकप्रिय खेल है, और रेस में अहम् अरेबियन
लाफ्टर (Arabian Laughter') के नाम की कबूतर की नस्ल आज भी पाली जाती है, जिसे
मोहम्मद द्वारा पेश किया गया था।
कबूतर-बाजी नामक खेल (कबूतर उड़ाने की कला), मुगल सम्राटों का एक पसंदीदा खेल था। खेल में
कबूतरों के झुंड को नियंत्रित करने के कौशल को सीखना और विकसित करना, उड़ान भरना और
नियंत्रक के आदेश पर वापस उतरना शामिल था। कबूतरों को आयोजित होने वाली प्रतियोगिताओं
के लिए महीनों और वर्षों तक प्रशिक्षण दिया जाता था, जहाँ इन कौशलों को प्रदर्शित किया जाता
था, तथा विजेताओं को पूरे समुदाय में सम्मान दिया जाता था। अकबर के शासनकाल के दौरान,
कबूतर उड़ाने को शाही संरक्षण प्राप्त था, और यह 'खेल' अभी भी पुरानी दिल्ली के कुछ हिस्सों में
खेला जाता है।
हालांकि कबूतर अब पक्षियों की जंगली प्रजाति नहीं रहे। उन्हें खिलाना, उनका व्यापार करना कई
बार नाजुक पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ देता है। शहर भर में कबूतरों को समर्पित फीडिंग
स्टेशन (feeding station) हैं, जिनके ठीक बगल में कबूतरों का चारा बेचने वाली दुकानें हैं। वहां
उन्हें मकई और चावल से लेकर बचा हुआ खाना, यहां तक कि केक और कुकीज तक सब कुछ
खिलाया जाता है।
लेकिन यह प्रक्रिया पक्षियों को जीवित रहने के लिए मनुष्यों पर अत्यधिक निर्भर बना रही है, तथा
उनके खाने की आदतों में भारी बदलाव भी करती है। ऐतिहासिक इमारतों और मूर्तियों को पक्षी के
मलमूत्र के अधीन कर दिया जाता है, जिसमें यूरिक एसिड होता है और जिससे इमारतों को
अपरिवर्तनीय क्षति हो सकती है। बलुआ पत्थर और चूना पत्थर इसके लिए अतिसंवेदनशील होते
हैं।
कबूतर के मलमूत्र में बैक्टीरिया ई. कोलाई (एस्चेरिचिया कोलाई) Bacteria E. coli
(Escherichia coli) के कुछ उपभेद होते हैं, जो भोजन या पानी की आपूर्ति में पेश किए जाने पर
बीमारियों का कारण बन सकते हैं, जिससे कबूतर इन बीमारियों का नियमित वाहक बन जाते हैं।
हालांकि पिछले 80 से 100 वर्षों में ही लोगों ने इन पक्षियों को नापसंद करना शुरू कर दिया है। क्यों
की लोग सोचने लगे हैं की, कबूतर लोगों को बीमारियाँ देते हैं। हालांकि इस बात का कोई ठोस सबूत
नहीं है।
संदर्भ
https://bit.ly/3vCLIM7
https://bit.ly/3hDwsGP
https://wapo.st/3MpDFbK
https://www.pigeonpatrol.ca/pigeons-in-religions/
चित्र संदर्भ
1. दाना चरते कबूतर को दर्शाता एक चित्रण (pixahive)
2. जामा मस्जिद, दिल्ली के पास कबूतरों को दर्शाता चित्रण (flickr)
3. यारेल हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश बर्ड्स 1843 से लेडी एंड पिजन पोस्ट का टेल-पीस को दर्शाता चित्रण (flickr)
4. चारा चरते कबूतरों को दर्शाता एक चित्रण (Max Pixel)