City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Total | ||
2590 | 121 | 2711 |
***Scroll down to the bottom of the page for above post viewership metric definitions
पिछले पचास वर्षों की तुलना में आज कई पक्षी इंसानों का साथ छोड़कर विलुप्त हो चुके हैं। आज से
लगभग पांच या दस वर्ष पूर्व तक गिद्ध और कौवे जैसे, रोज दिखाई देने वाले पक्षी भी, आज कभी
कभार ही दिखाई देते हैं। हालांकि इनकी विलुप्ति का मुख्य कारण भी इंसान ही है। लेकिन हजारों
चुनौतियों और इंसानी नाराजगी का सामना करने के बावजूद कबूतर एकमात्र ऐसे पक्षी हैं, जो आज
इंसानों के साथ बने हुए हैं। आकार में कई अन्य पक्षियों के सामान ही दिखाई देने वाले कबूतर, दूसरे
पक्षियों से अधिक निर्भय, तेज़ और फुर्तीले होते हैं। यही कारण है की कबूतर, उन चुनिंदा पक्षियों में
से एक है, जिनकी दौड़ प्रतियोगिता कराई जाती हैं। जो न केवल रोमांचक होती है, वरन जीतने वाले
कबूतर के मालिक को विजेता उपहार एवं राशि भी प्रदान करवाती है।
कबूतर कितना तेज़ साबित हो सकता है, इस बात का अंदाज़ा आप इस तथ्य से लगा सकते हैं की,
यदि आप दुनिया के सबसे तेज दौड़ने वाले इंसान उसैन बोल्ट (Usain Bolt) और कबूतर के बीच
रेस करवाते हैं, तो कबूतर मात्र 2.03 सेकंड में ही सबसे तेज़ धावक उसैन बोल्ट से 100 मीटर आगे
हो जायेगे, वह भी बिना पसीना बहाए।
कबूतर दौड़ का खेल केवल कल्पना मात्र नहीं है, वरन भारत में कई लोग और समुदाय कबूतरों की
दौड़ का आयोजन करते रहे हैं। हालांकि यह दौड़ इंसानों के खिलाफ नहीं वरन कबूतरों की ही आपसी
रेस होती है, लेकिन इस खेल में विजेता रहने वाले कबूतर के मालिक अथवा पालनकर्ता अच्छा-
खासा धन और ट्राफियां हासिल कर लेते हैं। उदारहण के लिए चेन्नई में कबूतर रेस का खेल केवल
खेल न होकर एक गंभीर व्यवसाय बन चुका है। यहाँ कबूतरों की प्रतियोगिता आयोजित करने वाले
क्लबों की संख्या 15 और इस दौड़ के चाहने वालों की संख्या लगभग 10,000 से अधिक है। आज
घरेलू कबूतरों को सैन्य संपत्ति में बदल दिया गया है, कबूतरों का इस्तेमाल प्राचीन समय, लगभग
220 ईस्वी पूर्व से कबूतर दौड़ के लिए किया जाता रहा है। कबूतरों की दौड़ का आधुनिक रूप 1985
में शुरू हुआ था, भारत के कई हिस्सों जैसे चेन्नई में कबूतर रेसिंग आज भी लोकप्रिय है, जहां 800
से अधिक लोगों का जुनून और व्यवसाय भी है।
चेन्नई शहर की रॉयल पिजन सोसायटी (Royal Pigeon Society) के सचिव ओपी विजयकुमार
लगभग 35 कबूतरों के मालिक हैं, जो दो बार के रेसिंग चैंपियन भी रह चुके हैं। वे अपने कबूतरों पर
गर्व करते हैं। उनके जैसे कई अन्य लोगों के लिए, कबूतर दौड़ना सिर्फ एक शौक से ज्यादा है। वे इस
प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए ,भोजन और दवाओं सहित प्रति वर्ष लगभग 1.5 लाख रुपये खर्च
करते हैं।
घरेलू कबूतरों को 1900 की शुरुआत में एक ब्रिटिश कबूतर प्रशंसक द्वारा भारत वापस लाया गया
था। उनमे से कई अब दौड़ के लिए प्रशिक्षण करने में अपना जीवन बिताते हैं। कबूतरों की दौड़ में
सफलता बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि, इन पक्षियों को कैसे पाला जाता है? वे
अपनी वंशावली की नस्ल के जितने करीब होंगे, उनके जीतने या कम से कम घर लौटने की
संभावना उतनी ही बेहतर होगी। हर साल, लगभग 400 कबूतर, 200 किमी, 500 किमी और यहां
तक कि 1500 किमी तक की दौड़ में भाग लेते हैं, जिनमें से कभी-कभी केवल 10 ही भर लौट
पाते हैं। अधिकांश वंशावली कबूतरों को मचान में पाला जाता है, जो की घर की छत के शीर्ष पर,
जमीन से चार मंजिलों पर स्थित होते है। वंशावली पक्षी (Pedigree birds), मैग्नेटोरेसेप्शन (एक
संवेदी प्रणाली जो उन्हें ऊंचाई, दिशा और स्थान के अनुसार क्षेत्रीय मानचित्र बनाने के लिए पृथ्वी
के चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग करने की अनुमति देती है।) का उपयोग करते हैं -लेकिन जब वे घरेलू
पक्षियों के साथ पैदा होते हैं, तो कुछ को असाधारण चुंबकीय क्षमताएं विरासत में नहीं मिलती हैं।
जानकारों के अनुसार इन पक्षियों के घर न लौटने के और भी कारण हैं। जैसे डिश टीवी और नेटवर्क
टावर उनकी उड़ान के पैटर्न को बिगाड़ देते हैं, और दौड़ के बीच उन्हें भटका देते हैं। यदि एक रेसिंग
कबूतर एक जहाज पर भटक जाता है, तो नाविक उन्हें फँसा लेते हैं, और एक बार जब वे विभिन्न
भारतीय बंदरगाहों पर पहुँच जाते हैं, तो कबूतरों को उच्च कीमत पर बेच देते हैं। हालांकि कबूतरों
की दौड़ का खेल कानूनी है, लेकिन कानून कभी-कभी तोड़े जाते हैं। जैसे कि 1982 में एक ब्रिटिश
व्यक्ति द्वारा भारत में लगभग 50 वंशावली कबूतरों की तस्करी की गई थी।
विशेष तौर पर दक्षिण भारत में कबूतरों की दौड़ का मौसम चरम पर पहुंचते ही हजारों कबूतरों के
पंखों का नियमित परीक्षण किया जाता है, पक्षियों को नियमित अंतराल पर पानी पिलाया जाता है
और पौष्टिक भोजन दिया जाता है, और आसमान में होने वाली दौड़ के लिए बहुत सारी जमीन
तैयार की जाती है। चेन्नई भारत के 7,000-मजबूत प्रशंसकों में से लगभग आधे लोगों का घर
माना जाता है। जो इसे "कबूतर दौड़ का मक्का" बनाता है। जनवरी और अप्रैल के बीच, प्रशंसकों ने
अपने कबूतरों को 200 से 1,400 किलोमीटर (120 - 870 मील) तक की अलग-अलग लंबाई की
दौड़ में भाग लेने के लिए प्रशिक्षित किया। जीतने वाले पक्षियों को प्रजनन के लिए बेचा जाता है,
और घर पहुंचने वाला पहला कबूतर अपने रखवाले , पालनेवाले को पुरस्कार और अपने साथी
प्रशंसकों का सम्मान दिलाता है।
कबूतर रेसिंग, यूरोप के कुछ हिस्सों में भी लोकप्रिय है, भारत में यह पहली बार 1940 और 1970 के
दशक में भारतीय शहरों कोलकाता और बेंगलुरु में दिखाई दी थी। चेन्नई में इस खेल ने 1980 के
दशक में लोकप्रियता हासिल की। इंडियन रेसिंग पिजन एसोसिएशन ( The Indian Racing
Pigeon Association (IRPA)आधिकारिक निकाय है, जो कबूतर दौड़ आयोजित करता है और
इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता भी प्राप्त है। हालांकि अब कई अन्य छोटे क्लब भी अपने दम
पर दौड़ का आयोजन करते हैं। कभी केवल मजदूर वर्ग के शौक के रूप में देखे जाने वाली कबूतरों
की दौड़ धीरे-धीरे भारत में सामाजिक पदानुक्रम पर चढ़ने में कामयाब रही है। इसमें डॉक्टर,
वकील, व्यवसायी, इंजीनियर और कानूनविद जैसे लोग शामिल हो रहे हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/30f2qnq
https://bit.ly/3ceyEC1
https://bit.ly/30hBzXV
https://bit.ly/3C7sptT
चित्र संदर्भ
1. कबूतर दौड़ के लिए तैयार कबूतर को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
2. 1.4 मिलियन डॉलर में बिके चैंपियन कबूतर को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
3. हाथ में उठाए गए रेसिंग कबूतर को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
4. उड़ान से पूर्व हाथ में उठाये गए कबूतर को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
© - , graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.