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रामायण की एक बहुचर्चित चौपाई है "रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई" अर्थात
रघुकुल परम्परा में हमेशा वचनों को प्राणों से ज्यादा महत्व दिया गया है। लेकिन प्रतीत होता है की राम
राज्य अर्थात सतयुग की समाप्ति के साथ ही रघुकुल की इस गौरवपूर्ण रीत की भी समाप्ति हो गई। आज
सतयुग में वंशवाद जनसेवा के बजाय राजनीतिक लाभ से प्रेरित रहता है।
वंशवाद या परिवारवाद शासन की ऐसी पद्धति होती है, जिसमें एक ही परिवार, वंश या समूह से संबंध
रखने वाले लोग ही अपने अधीन प्रजा अर्थात जनता पर शाशन करते हैं। वंशवाद, भाईभतीजावाद का
जनक और इसका ही एक रूप है। लोकतंत्र के लिए वंशवाद बेहद घातक माना जाता है। यह राजतन्त्र का
एक सुधरा हुआ रूप कहा जा सकता है। और कई देशों में आज भी वंशवाद हावी है, यह आधुनिक राजनैतिक
सिद्धान्तों एवं प्रगतिशीलता के विरुद्ध माना गया है।
राजनीतिक वंशवाद या राजनीतिक परिवारवाद का सीधा सा अर्थ है कि, एक ही परिवार के कई सदस्य (चाहे
रक्त या विवाह से संबंधित हों) राजनीति में, चाहे कार्यालय शामिल हों,या इस प्रकार कुछ भी हो। इस प्रकार,
वंशानुगत राजनेता को राजनीतिक वंश का एक अधिक विशिष्ट उपसमूह कहा जा सकता है, क्योंकि यह
अगली पीढ़ी को उनके माता-पिता या दादा-दादी के समान राजनीतिक पद प्राप्त करने के लिए संदर्भित
करता है।
वंशवाद के कारण राष्ट्रिय स्तर पर बड़े नुकसान देखने को मिल सकते हैं जैसे:
1. वंशवाद सच्चे लोकतन्त्र को मजबूत नहीं होने देता।
2. कई मामलों में अयोग्य शासक देश पर शासन करते हैं।
3. समान अवसर का सिद्धान्त मिथ्या साबित हो जाता है।
4. ऐसे कानून एवं नीतियाँ बनायी जाती हैं जो वंशवाद का भरण-पोषण करती रहती हैं।
5. आम जनता कुंठा की भावना से ग्रस्त हो जाती है।
6. जनता में स्वतन्त्रता की भावना का आभाव नज़र आने लगता है।
7. देश की सभी प्रमुख संस्थाएँ मूक दर्शक बनाकर रखी जाती हैं।
8. वंशवाद के कारण नये लोग राजनीति में नहीं आ पाते।
एक राजनेता के वंश से जुड़ा होने से किसी व्यक्ति के लिए सफलता की एक निश्चित गारंटी होती है, क्योंकि
इससे न केवल उसे मूल्यवान नाम मान्यता प्राप्त होती है, बल्कि पहले से स्थापित सामाजिक नेटवर्क और
संसाधनों से भी लाभ होता है। उनके माता-पिता या संबंधियों ने अतीत में जो राजनीतिक संबंध बनाए हैं, वे
भी संतानों के लिए उपयोगी होंगे, खासकर तब जब चुनाव प्रचार, राजनीतिक दल बनाने और धन उगाहने
की बात आती है।
हालांकि भारतीय राजनीति में भी कुछ वर्ष पूर्व तक वंशवाद की जड़ें काफी गहरी थी। लेकिन आज
सकारात्मक रूप से भारतीय प्रजा वंशवाद प्रथा से ऊपर उठकर फैसले लेने लगी है, अर्थात अपने नेताओं का
चुनाव उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बजाय योग्यता देखकर करने लगी है। हालांकि कई राजनैतिक दलों
में अभी भी वंशवाद परंपरा फल-फूल रही है, जैसे उदाहरण के तौर पर पंडित जवाहर लाल नेहरू परिवार
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जिसमें जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल
गांधी जी वंशानुगत सत्ता संभाल रहे हैं। हालाँकि केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि अधिकांश या सभी भारतीय
राजनितिक दलों में आंशिक तौर पर ही सही लेकिन वंशवाद अभी भी स्थापित है। अर्थात राजनीतिक
वंशवाद सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में समान हैं।
भाई-भतीजावाद हर जगह, हर पेशे में, हर स्तर पर मौजूद है। इसके दुष्परिणाम के तौर पर दिखाई देता है
की राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक बड़ी संख्या ऐसी भी है, जो धार्मिक रूप से विभिन्न राजनीतिक दलों के
तहत नैतिकता और ईमानदारी के साथ काम करते हैं लेकिन फिर भी उन्हें वह शक्ति या पद नहीं मिलता
जिसके वे हकदार हैं।
हालांकि वंशवाद को पूरी तरह से हानिकारक या अन्यायपूर्ण साबित करना भी उचित नहीं होगा। जैसे भाई-
भतीजावाद ने हमें ऋतिक रोशन और रणबीर कपूर जैसे शानदार अभिनेता भी दिए हैं। ठीक उसी प्रकार
कुछ राजनेता जो कुछ महान राजवंशों से संबंध रखते हैं, उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में खुद को साबित भी
किया है, लेकिन अन्य कई बुरी तरह विफल भी रहे, जिसके कारण उनके परिवार को सरकारी सत्ता भी
गंवानी पड़ी।
हजारों साल पहले, से ही भारत को आध्यात्मिक लोकतंत्र की वैश्विक राजधानी के रूप में जाना जाने लगा
था। “एकम सत विप्र बहुदा वदन्ति” का दर्शन (सत्य एक है और बुद्धिमान लोग उसी का अलग तरह से
वर्णन करते हैं।) भारतीय विश्व दृष्टिकोण की आधारशिला रहा है। जाहिर है, भारत में प्रवेश करने वाले
बाहरी लोगों को न केवल अपने धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी, बल्कि उन्हें अपनी पूजा के
तरीके का प्रचार करने और यहां तक कि लोगों को अपने पाले में बदलने की भी अनुमति थी। भारत में
इस तरह की परंपराएं आध्यात्मिक लोकतंत्र से शुरू हुई हैं और उस नींव पर हमने राजनीतिक लोकतंत्र को
सफल बनाने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। हमारा आगे बढ़ना अब सामाजिक और आर्थिक
लोकतंत्रों को एक वास्तविकता बनाने की दिशा में है।
दुर्भाग्य से हमारे देश में, अधिकांश राजनीतिक पंडित, विश्लेषक और यहां तक कि लोकतंत्र के शोधकर्ता
भी हमारी राजनीति पर वंशवाद की राजनीति के दुष्परिणामों पर चुप रहे हैं। वंशवाद की राजनीति सिर्फ
लोकतंत्र विरोधी नहीं है बल्कि समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का त्याग करके ही काम करती
है। एक राजवंश अयोग्य होने पर भी स्वतः ही इस पद पर आसीन हो जाता है, क्योंकि वह उनकी पार्टी के
शासक परिवार से संबंधित होता है। स्वाभाविक रूप से, यह सामाजिक न्याय के बजाय जन्म के आधार पर
भेदभाव का एक उत्कृष्ट मामला बन जाता है।
हालांकि वंशवाद अभी-भी चुनावी राजनीति पर हावी है, लेकिन अब उनका प्रभाव पहले जितना नहीं रह
गया है। सबसे महत्वपूर्ण राजनेताओं को शीर्ष पर जाने का एक और रास्ता मिल गया कई दलों के
महत्वपूर्ण पदों में सर्वोपरि नेता भाई-भतीजावाद के लाभार्थी नहीं हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/3u0jASt
https://bit.ly/3G3Ogok
https://bit.ly/3r6IYUR
https://casi.sas.upenn.edu/iit/patrickfrench
https://en.wikipedia.org/wiki/Hereditary_politicians
चित्र संदर्भ
1. नेताओं के कार्टून को दर्शाता एक चित्रण (facebook)
2. उत्तर कोरिया के परिवार वृक्ष को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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