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भारत में कृषि अर्थव्यवस्था का आधार मानी जाती है। किसान हमारे देश की सबसे अनमोल संपत्ति
हैं, वे हमारे पोषक भी हैं। अतः तार्किक आधार पर किसानों को देश में सबसे सम्पन्न और खुशहाल
वर्ग होना था। किंतु धरातल पर किसानों एवं फसलों की स्थिति निरंतर इसके विपरीत बेहद
दयनीय होती जा रही है। आखिर इसके कारण क्यां हैं?
हमारा देश भारत एक वैश्विक कृषि महाशक्ति है। यह दूध, दालों और मसालों का दुनिया में सबसे
बड़ा उत्पादक है, भारत दुनिया में सर्वाधिक मवेशियों का भी घर है। साथ ही यहाँ गेहूं, चावल और
कपास के खेत का क्षेत्रफल भी अन्य देशों की तुलना में अधिक है।
बहुत कम, कम, साधारण,उच्च, बहुत उच्च, कोई डाटा उपलब्ध नहीं हैं।
भारत चावल, गेहूं, कपास, गन्ना,
मछली, भेड़, बकरी के मांस, फल, सब्जियां और चाय का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राष्ट्र भी है। देश
में लगभग 195 मिलियन हेक्टेयर खेती की जाती है, जिसमें से कुछ 63 प्रतिशत वर्षा (लगभग 125
मिलियन हेक्टेयर) पर निर्भर हैं, जबकि 37 प्रतिशत सिंचित (70 मिलियन हेक्टेयर) हैं। इसके
अलावा, वन भारत की लगभग 65m हेक्टेयर भूमि को कवर करते हैं। हलांकि इसके बावजूद भारत
में किसानों और कृषि क्षेत्र की कई बड़ी चुनौतियाँ हैं।
1. प्रति यूनिट भूमि पर कृषि उत्पादकता बढ़ाने की चुनौती: भारत में कृषि के विकास के लिए प्रति
यूनिट भूमि की उत्पादकता बढ़ाना बेहद आवश्यक है। यहाँ जल संसाधन भी सीमित हैं, और सिंचाई
के लिए पानी को बढ़ती औद्योगिक मांग और शहरी जरूरतों के बीच में कड़ा संघर्ष भी है। कृषि
उत्पादकता बढ़ाने के लिए सभी जरूरी उपायों को लागू करने की आवश्यकता है, जैसे: पैदावार
बढ़ाना, उच्च मूल्य वाली फसलों का विविधीकरण, और विपणन लागत को कम करने के लिए
मूल्य श्रृंखला विकसित करना इत्यादि।
2. सामाजिक रूप से समावेशी रणनीति के माध्यम से ग्रामीण गरीबी को कम करना: कहने का
तात्पर्य यह है की, ग्रामीण विकास से गरीबों, भूमिहीनों, महिलाओं, अनुसूचित जातियों और
जनजातियों को भी लाभ होना चाहिए, जैसा की नहीं हो रहा है। इसलिए, गरीबी उन्मूलन विषय
सरकार और विश्व बैंक के ग्रामीण विकास प्रयासों का एक केंद्रीय स्तंभ होना चाहिए ।
3.कृषि में निवेश घट रहा है: निवेश विकास की कुंजी है। सीमित राजकोषीय गुंजाइश को देखते हुए,
भारत सरकारें निजी निवेश को बढ़ावा दे रही हैं। दलवई समिति ने 2017 में सिफारिश की थी कि
2022-23 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए 6.39 लाख करोड़ रुपये के अतिरिक्त निवेश
की जरूरत होगी।.हालाँकि आंकड़ों में इसके विपरीत अर्थव्यवस्था में कुल जीसीएफ के प्रतिशत के
रूप में कृषि में सकल पूंजी निर्माण (जीसीएफ) वित्त वर्ष 2012 में 8.5 प्रतिशत से गिरकर 6.5
प्रतिशत हो गया है।
4. यह सुनिश्चित करना कि कृषि विकास खाद्य सुरक्षा आवश्यकताओं के अनुरूप हो: 1970 के
दशक की भारत की हरित क्रांति के बाद से भारतीय खाद्यान्न उत्पादन में तेज वृद्धि ने देश को
खाद्यान्न में आत्मनिर्भर होने और अकाल के खतरे से दूरी स्थापित हो गई है। 1970 से 1980 के
दशक में कृषि विकास से ग्रामीण श्रम की मांग में वृद्धि देखी, जिसने ग्रामीण मजदूरी को बढ़ाया
और खाद्य कीमतों में गिरावट के साथ-साथ ग्रामीण गरीबी को भी कम किया। हालाँकि 1990 और
2000 के दशक में कृषि विकास औसतन लगभग 3.5% प्रति वर्ष धीमा हो गया और 2000 के
दशक में अनाज की पैदावार में केवल 1.4% प्रति वर्ष की वृद्धि हुई है।
कृषि विकास में मंदी भी
चिंता का एक प्रमुख कारण बन गई है। भारत की चावल की पैदावार चीन की एक तिहाई और
वियतनाम और इंडोनेशिया में लगभग आधी है। अतः नीति निर्माताओं को इस क्षेत्र के लिए
नीतिगत कार्रवाइयों और सार्वजनिक कार्यक्रमों को शुरू करने और / या समाप्त करने की
आवश्यकता है। वित्त वर्ष 2010 में, देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) (राष्ट्रीय आय) में कृषि की
हिस्सेदारी सिर्फ 14.65 प्रतिशत थी – जो वित्त वर्ष 05 की तुलना में में 22.6 प्रतिशत से कम थी।
कृषि की स्थिति पर करीब से नज़र डालने से पता चलता है की आज भूमि, श्रम और पूंजी जैसे
उत्पादन के कारकों से लेकर विपणन, व्यापार और फसल के नुकसान के प्रति सुरक्षा तक - व्यापक
समीक्षा और नीतियों को फिर से तैयार करने की आवश्यकता है। कोविड-19 महामारी से पहले भी
भारत दुनिया में सबसे अधिक कुपोषित लोगों का घर था। जुलाई में संयुक्त राष्ट्र के पांच संगठनों
द्वारा संयुक्त रूप से जारी विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण राज्य (एसओएफआई) रिपोर्ट में
प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, भारत में मध्यम से गंभीर खाद्य असुरक्षा की व्यापकता 2018-20 में
लगभग 6.8 प्रतिशत अंक बढ़ी। कुल मिलाकर, महामारी के प्रकोप के बाद से मध्यम से गंभीर
खाद्य असुरक्षा का सामना करने वाले व्यक्तियों की संख्या में लगभग 9.7 करोड़ की वृद्धि हुई है।
जानकारों के अनुसार, 2020 में, 237 करोड़ से अधिक लोग विश्व स्तर पर खाद्य असुरक्षा से जूझ
रहे थे, यह वृद्धि वर्ष 2019 की तुलना में लगभग 32 करोड़ अधिक थी। अकेले दक्षिण एशिया में
वैश्विक खाद्य असुरक्षा का 36 प्रतिशत हिस्सा है। PMSFI के अनुमान बताते हैं कि 2019 में भारत
में लगभग 43 करोड़ मध्यम से गंभीर खाद्य-असुरक्षित लोग थे। महामारी से संबंधित व्यवधानों
के परिणामस्वरूप, यह आंकड़ा बढ़कर एक वर्ष में बढ़कर 52 करोड़ हो गया। व्यापकता दर में,
मध्यम से गंभीर खाद्य असुरक्षा 2019 में लगभग 31.6 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 38.4 प्रतिशत
हो गई। भारत का प्रमुख खाद्य वस्तुओं के उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के बावजूद, व्यापक
आर्थिक संकट, उच्च बेरोजगारी और उच्च स्तर की असमानता के कारण भारत में भूख और खाद्य
असुरक्षा की समस्याएं गंभीर हैं। गरीबों का एक बड़ा हिस्सा अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर निर्भर
है, जिसमें आय बहुत कम और अनिश्चित है।
भारत में किसानों की आय और मनोबल बढ़ाने के लिए सरकारों को नई और किसानों के पक्ष में
नीतियां निर्धारित करने की आवश्यकता है। विशेष रूप से जल संसाधन और सिंचाई/जल निकासीप्रबंधन में सुधार करने की जरूरत है। भारत कृषि के सन्दर्भ में पानी का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है।
हालांकि, उद्योग, घरेलू उपयोग और कृषि के बीच पानी के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने नदी बेसिन
और बहु-क्षेत्रीय आधार पर पानी की योजना और प्रबंधन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है।
संदर्भ
https://bit.ly/3pTYXoK
https://bit.ly/3CASDWI
https://bit.ly/3GrZMeF
https://bit.ly/3pJjlJp
चित्र संदर्भ
1. अपने खेत में निराश बैठी महिला को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. 2003-2005 में भारत के जिलों की कृषि उत्पादकता को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. खेत में बैल जुताई करते किसान का एक चित्रण (wikimedia)
4. मसालों के दामों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)