हमारे शहर लखनऊ में आलमबाग, सिकंदर बाग, दिलकुशा जैसे कई ऐतिहासिक स्थल हैं, जो
अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई में अहम् भागीदार रहे हैं; यह स्थान सन 1857 में ब्रिटिश शासन के
खिलाफ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के साक्ष्य थे। लेकिन, 1857 से 300 साल पहले, विदेशी शासन
के प्रतिरोध की शुरुआत, हमारे बंदरगाहों पर हुई, जहां पर युद्ध द्वारा फ़तेह पा कर यूरोपीय
साम्राज्यों ने भारत के क्षेत्रों पर अपना शासन शुरू किया, और हिंद महासागर में व्यापार को
नियंत्रित किया। आइये ऐसी तीन प्रमुख लड़ाइयों पर नज़र डालते हैं।
पहली लड़ाई: दीव (Diu) की लड़ाई
3 फरवरी 1509 को भारत के दीव के बंदरगाह में, पुर्तगाली साम्राज्य और गुजरात के सुल्तान के
संयुक्त बेड़े (मिस्र के मामलुक बुर्जी सल्तनत और ज़मोरिन), के बीच लड़ी गई एक नौसैनिक लड़ाई
को दीव की लड़ाई के नाम से जाना जाता है। हालाँकि इस लड़ाई के परिणाम स्वरुप पुर्तगालियों की
विजय हुई, और गुजरात-मामलुक-कालीकट, गठबंधन के साथ भी हार गए। लेकिन मामलुक अंत
तक बहुत बहादुरी से लड़े। युद्ध के बाद, पुर्तगाल ने गोवा (Goa), सीलोन (Ceylon), मलक्का
(Malacca) और ओरमुज़ (Iran) सहित हिंद महासागर में प्रमुख बंदरगाहों पर तेजी से कब्जा कर
लिया। उन्होंने मामलुक सल्तनत और गुजरात सल्तनत को अपंग कर दिया।
इस विजय ने
पुर्तगाली साम्राज्य के विकास में बहुत सहायता की और एक सदी से भी अधिक समय तक अपना
व्यापार प्रभुत्व स्थापित किया। दीव की लड़ाई को विश्व नौसैनिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण
लड़ाइयों में से एक माना जाता है, क्योंकि यह एशियाई समुद्रों पर यूरोपीय प्रभुत्व की शुरुआत का
प्रतीक साबित हुई। इस युद्ध को लड़ने का प्रमुख कारण यह था की वास्को डी गामा (Vasco Da
Gama) के समुद्र के रास्ते भारत पहुंचने के ठीक दो साल बाद, पुर्तगालियों ने महसूस किया कि
भारत व्यापार के संदर्भ में एक अहम् कड़ी साबित हो सकता है। 16वीं शताब्दी की शुरुआत में, मिस्र
की मामलुक सल्तनत भारत के मसाला उत्पादक क्षेत्रों और भूमध्यसागर में विनीशियन
(Venetian) खरीदारों के बीच मुख्य बिचौलिया थी। उन्होंने भारत से यूरोप में मसालों को एक बड़े
लाभ पर बेचा था, और इस व्यापार का हिस्सा पुर्तगाली भी चाहते थे।
दूसरी लड़ाई: स्वाली लड़ाई
स्वाली की नौसैनिक लड़ाई 29-30 नवंबर 1612 को सूरत शहर (अब गुजरात, भारत में) के पास एक
गाँव सुवाली के तट पर हुई। स्वाली का युद्ध पुर्तगाली सेना और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी
(English East India Company) के बीच हुआ था। हालांकि बेशक यह लड़ाई एक दिन की थी
और इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी को जीत मिली थी। लेकिन अपेक्षाकृत छोटा नौसैनिक युद्ध के तौर
पर यह ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसने भारत में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी की
उपस्थिति की शुरुआत को चिह्नित किया। इस लड़ाई ने अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को अन्य
यूरोपीय शक्तियों और समुद्री लुटेरों से भी अपने वाणिज्यिक हितों की रक्षा के लिए एक छोटी
नौसेना स्थापित करने के लिए राजी कर लिया। इस छोटी सी शुरुआत को आधुनिक भारतीय
नौसेना की जड़ माना जाता है।
यह लड़ाई 15वीं और 16वीं शताब्दी के अंत में भारत के साथ व्यापार पर पुर्तगालियों के एकाधिकार
के परिणाम स्वरूप हुई थी। इस युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को बहुत फायदा हुआ था। साल
1612 में मुगल शासक जहांगीर ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार करने की अनुमति दे दी।
इसके बाद कंपनी ने तटीय भारत में कई कारखानों की स्थापना की थी।
तीसरी लड़ाई: कोलाचेल (Colachel) की लड़ाई
10 अगस्त 1741 को भारतीय सम्राज्य त्रावणकोर (Travancore) और डच ईस्ट इंडिया कंपनी
(Dutch East India Company) के बीच लड़ी गई लड़ाई को कोलाचेल की लड़ाई के नाम से जाना
जाता है। इस भयावह त्रावणकोर-डच युद्ध के दौरान, राजा मार्तंडा वर्मा (1729-1758) की सेना ने
10 अगस्त 1741 को एडमिरल यूस्टाचियस डी लैनॉय (Admiral Eustachius de Lanoy) के
नेतृत्व वाली डच ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को हराया। 1730 के दशक में, त्रावणकोर के शासक
मार्तंड वर्मा ने विस्तारवादी नीति अपनाई, और विभिन्न छोटे राज्यों सहित कई क्षेत्रों पर विजय
प्राप्त की। उनकी इस नीति से मालाबार में डच ईस्ट इंडिया कंपनी की कमान के हितों पर खतरा
मंडराने लगा, जिसका व्यापार इन राज्यों से मसालों की खरीद पर निर्भर करता था। दरअसल
मार्तंड वर्मा और उनके जागीरदारों ने उन एकाधिकार अनुबंधों का सम्मान करने से इनकार कर
दिया, जो डचों ने त्रावणकोर से जुड़े राज्यों के साथ किया था, जिससे मालाबार में डच व्यापार पर
प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
जनवरी 1739 में, सीलोन के डच गवर्नर गुस्ताफ विलेम वैन इम्हॉफ (Gustaf Willem van
Imhof) ने कोच्चि का दौरा किया, और जुलाई की एक रिपोर्ट में, उन्होंने मालाबार में डच व्यवसाय
को बचाने के लिए सैन्य कार्रवाई की सिफारिश की। वैन इम्हॉफ ने व्यक्तिगत रूप से मार्तंडा वर्मा
से शांति वार्ता के लिए मुलाकात की, लेकिन उन्होंने शर्तों को मानने से इंकार करने पर त्रावणकोर
के खिलाफ युद्ध छेड़ने की धमकी दी। लेकिन मार्तंडा वर्मा ने उनकी शर्तों को सिरे से खारिज कर
दिया।
अंततः 1739 के अंत में, मालाबार में डच कमान ने अनुमति प्राप्त किए बिना या बटाविया
(Batavia, Indonesia) से सुदृढीकरण की प्रतीक्षा किए बिना, त्रावणकोर पर युद्ध की घोषणा की।
हालांकि उन्होंने और उनके सहयोगियों ने प्रारंभिक अभियान में कई सैन्य सफलताएँ हासिल कर
दी। नवंबर में, सहयोगी सेना ने कोल्लम के पास तैनात त्रावणकोर सेना को पीछे हटने के लिए
मजबूर किया, और तांगसेरी तक आगे बढ़ गई। मालाबार में डच कमांड ने त्रावणकोर के खिलाफ
दूसरा अभियान शुरू किया। लेकिन यहाँ मार्तंडा वर्मा की सेना डचों पर हावी हो गई। उन्होंने,
त्रावणकोर में डच चौकियों पर कब्जा कर लिया, कारखानों पर हमला किया, और संग्रहीत माल पर
कब्जा कर लिया।
5 अगस्त को, त्रावणकोर सेना द्वारा दागी गई एक तोप का गोला डच गैरीसन के अंदर
बारूद केएक बैरल में गिर गया, और परिणामी आग ने भंडार की पूरी चावल की आपूर्ति को नष्ट कर दिया।
नतीजतन, डचों को 7 अगस्त को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर होना पड़ा। त्रावणकोर के
इतिहासकारों ने कोलाचेल की लड़ाई को डचों की निर्णायक और करारी हार के रूप में महिमामंडित
किया।
संदर्भ
https://en.m.wikipedia.org/wiki/Battle_of_Diu
https://en.m.wikipedia.org/wiki/Battle_of_Colachel
https://en.m.wikipedia.org/wiki/Battle_of_Swally
चित्र संदर्भ
1. चीनी समुद्री लुटेरों की लड़ाई को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में हिंद महासागर में पुर्तगालियों की उपस्थिति को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. तटीय समुद्री युद्ध को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. डच ईस्ट इंडिया कंपनी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. डी लैनॉय (De Lanoy's) के आत्म समर्पण को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)