औपनिवेशिक युग में इत्र बनाने की प्रक्रिया तथा कन्नौज एवं जौनपुर में इससे संबंधित श्रम की स्थिति

औपनिवेशिक काल और विश्व युद्ध : 1780 ई. से 1947 ई.
05-03-2022 09:00 AM
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औपनिवेशिक युग में इत्र बनाने की प्रक्रिया तथा कन्नौज एवं जौनपुर में इससे संबंधित श्रम की स्थिति

गंध में अपनी एक अद्भूत क्षमता होती, जहां एक ओर यह आदमी का सांस लेना मुश्किल कर देती है तो वहीं दूसरी ओर मानव के भीतर अप्रतीम भावनाओं को जागृ‍त करने की क्षमता भी रखती है। सुगंध के इन दोनों (सुगंध एवं दुर्गन्‍ध) ही क्षेत्र सेश्रमिक वर्ग जुड़ा हुआ है,खाल निकालने, जानवरों के शवों के निस्‍तारण करने और सीवेज में काम करने वाला श्रमिकगंध की दुनिया से जुड़ा हुआ है तो वहीं इत्र बनाने वाला श्रमिक एक अतुलनीय सुगंध के जगत से जुड़ा हुआ है।इत्र के प्रत्येक बूंद में श्रम और कारीगरी कौशल का इतिहास छिपा हुआ है।पूर्व-औपनिवेशिक काल में दक्षिण एशिया में इत्र, एक विलासिता की वस्तु हुआ करती थी। प्राचीन और मध्यकालीन भारत में भी इसका बाजार जीवित था। प्राचीन और प्रारंभिक आधुनिक संस्कृत, पाली और फारसी अभिलेखों में हिंदू धार्मिक आयोजनों में चंदन का, सामान्य रूप से अत्तर का, और विदेशी इत्र के उपयोग का उल्लेख मिलता है।
भारतीय उपमहाद्वीप के विषय में कहा जाता है कि आर्यों द्वारा लिखित अभिलेख तैयार करने से पहले ही, सिंधु घाटी के लोगों ने विभिन्न तरीकों से सुगंधित जल प्राप्त करने या कई पौधों के अर्क को संश्लेषित करने की कला विकसित की थी, जिसे बाद में वैद और हकीमों द्वारा दवा बनाने के लिए अपनाया गया था। आयुर्वेद में वर्णित वैदिक काल के दौरान इत्र का विकास जारी रहा। रामायण और महाभारत में इत्र, सौंदर्य प्रसाधन और धूप का भी उल्लेख है। भगवत गीता में द्रौपदी के स्वयंवर में चंदन की लकड़ी और गुलाब जल के छिड़काव का वर्णन किया गया है। 100 ईसा पूर्व में दक्षिण भारत के विद्वान नागार्जुन ने अगरबत्ती पर एक ग्रंथ लिखा था।प्राचीन काल में, 'अत्तर' और 'पुष्प जल' बनाने की कला विशेष रूप से गुप्त काल के दौरान अच्छी तरह से स्थापित हो गई थी। वास्तव में 'जलीय आसवन' अर्थात जल आसवन का उल्लेख चरक संहिता में मिलता है।मुगलों केशासन के दौरान गाजीपुर, जौनपुर और विशेष रूप से कन्नौज में इत्र निर्माण के केंद्र विकसित हुए। साथ ही, इस दौरान कन्नौज के 'गांधीवादी मुहल्ले' में निर्मित अत्तर को सम्राट के उपयोग के लिए दिल्ली भेजा जाता था। जहाँगीर के अधीन, एक अधिकारी को 'खुशबू-दरोगा' के रूप में नियुक्त किया गया था जो अत्तर की उचित आपूर्ति की निगरानी और व्यवस्था करता था।
कन्नौज जिले के आसपास के जिलों जैसे अलीगढ़, एटा, फरुखाबाद और मैनपुरी के किसान फूल उगाते थे और अत्तर उद्योग के लिए कन्नौज को अपनी फसल की आपूर्ति करते थे। गुलाब हाथरस और अलीगढ़ से, खुस राजस्थान के भरतपुर से, चमेली जौनपुर जिले के चंदोली से और रात की रानी बिजनौर और उसके आसपास से प्राप्त किया जाता था। कन्नौज में मेंथा (मेंथे आर्वेन्सिस) (Mentha (Mentha arvensis)) , पामारोसा (सिंबोपोगोन मार्टिनी) (Palmarosa (Cymbopogon martini)), सिट्रोनेला (सिंबोपोगोन विंटरियनस) (Citronella (Cymbopogon winterianus)), लेमन ग्रास (सिंबोपोगोन फ्लेक्सुओसस) (Lemon Grass (Cymbopogon flexuosus)), पचौली (पोगोस्टेमोन पैचौली) (Patchouli (Pogostemon Patchouli)), तुलसी (ओसिमम बेसिलिकम) (Basil (Ocimumbasilicum)), गुलाब (रोजा डेमासेना) (Rosa Demasena), जर्मन कैमोमाइल (मैट्रिकिया कैमोमाइल) (German chamomile (Matricaria chamomile)), गेंदा, बेला या चमेली, हिना या मेहंदी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
भारतीय अत्तर पश्चिमी परफ्यूम (perfume) से अलग है, क्योंकि ये यूरोपीय परफ्यूम (european perfume) की भांति अल्कोहल बेस (alcohol base) की बजाय तेल बेस (oil base) का उपयोग करके आसुत किया जाता है। औपनिवेशिक काल के दौरान भारतीय अत्‍तर तैयार करने हेतु उपयोग किए जाने वाले तेल बेस में चन्‍दन शामिल था। 19वीं शताब्दी तककन्नौज में बड़े पैमाने पर चंदन के अत्तर का उत्पादन किया जाता था। कन्‍नौज में अत्‍तर उत्‍पादन हेतु सर्वप्रथम चन्‍दन का आयात किया जाता था, फिर तांबे के बर्तन में चंदन के टुकड़े या छीली हुई लकड़ी को उबालकर तेल निकालना जाता था। चंदन तब अक्सर फूलों की पंखुड़ियों से सुगंध निकालने के लिए आधार के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, जिसे एक डिग (dig) में गर्म किया जाता था, जो कि एक बांस पाइप के माध्यम से एक भापका, या रिसीवर (receiver) से जुड़ा होता था, जिसमें चंदन का बेस होता था।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इत्र बनाने वाली बड़ी फर्मों (firms) का उदय हुआ, जिन्होंने उत्पादन के इन विभिन्न चरणों के लिए मजदूरों को एकीकृत और भर्ती किया। वहीं भारत में छोटे पैमाने के कारीगरों को आयातित सुगंध से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। नई, बड़े पैमाने की फर्में उत्पादन और वितरण के नेटवर्क को यूरोप (Europe)में निर्मित सिंथेटिक परफ्यूम (synthetic perfumes) के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए कीमतों को काफी कम रखते हुए, नियंत्रित करने में सक्षम थीं। 19वीं सदी के अंत में और 20वीं सदी की शुरुआत में भारत में इत्र बनाने वाली फर्मों को एहसास हुआ कि श्रमिक उपमहाद्वीप में मौसमी रूप से प्रवास करते रहते हैं, यह जिन क्षेत्रों में लकड़ी और फूल पर्याप्‍त रूप से उत्‍पादित -होते थे वहां से खरीदकर इन्हें इत्र को आसुत, परिष्कृत और वितरित करने वाली फर्मों को बेचते थे। यह प्रणाली इतिहास में काफी लंबे समय‍ तक चली, जिसमें बागवानी या फूलों की खेती से जुड़े लोग फूल और लकड़ी इकट्ठा करने के चलते रहते थे, और फिर उन्हें इत्र उद्योगों के लिए जाने जाने वाले शहरों में परफ्यूमर्स को बेच दिया कर दिया करते थे। 20वीं शताब्दी के आसपास ये किसान और फूल संग्रहकर्ता बड़ी फर्मों से जुड़ गए। उन्हें कन्नौज जैसे इत्र उत्पादन और वितरण के प्रमुख केंद्रों में भेजा गया। तब तक कन्‍नौज भारत की इत्र राजधानी के रूप में जाना जाता था - मध्य प्रांतों और रियासतों हैदराबाद और मैसूर राज्यों में मजदूरों को लेमनग्रास (lemongrass), चंदन और केवड़ा एकत्रित करने के लिए भेजा जाता था, जो जिस क्षेत्र में बेहतर होता था उसे उसी के अनुसार भेजा जाता था।कन्नौज में परफ्यूम उद्योग का संगठन 20वीं सदी की शुरुआत में श्रम और उभरते पूंजीपतियों के बीच संबंधों का सूचक है। 1908 तक कन्नौज के अत्तर उद्योग में 'पांच या छह पूंजीपतियों' का बोलबाला था।
इन स्थानीय उद्योगपतियों ने विशेष रूप से मैसूर राज्य से चंदन आयात करने के लिए श्रमिकों को अनुबंधित किया। वे 'जुलाहों' के एक हाशिए पर और अक्सर प्रवासी मजदूर समुदाय पर भी भरोसा करते थे , जो आमतौर पर बुनाई से जुड़े हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का एक जाति समूह था। कन्नौज में ईंधन विशेष रूप से महंगा था, इसलिए जुलाहा मजदूर बहराइच जैसे शहरों में चले गए, जहां ईंधन सस्ता था, वहां यह चंदन से तेल निकालकर कन्नौज में कारखानों, कार्यशालाओं और वितरण केंद्रों में लाते थे। 1947 में भारतीय स्वतंत्रता के समय तक घटते मुनाफे और बढ़ते कर्ज के परिणामस्वरूप, कन्नौज जैसे शहरों में कुछ इत्र बनाने वालों ने अपने अत्तरों में कृत्रिम या सुगंधित रसायन मिलाना शुरू कर दिया। भारतीय अत्तर का उत्पादन अक्सर अल्कोहल-आधारित और सिंथेटिक परफ्यूम के उत्पादन के विपरीत होता है। हालांकि, 20 वीं शताब्दी के मध्य तक, कुछ भारतीय कारीगर आयात से अभिभूत एक इत्र अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा करने के लिए दोनों के साथ जुड़ गए।

संदर्भ:
https://bit.ly/36P236f
https://bit.ly/3HoqaVP
https://bit.ly/3t7ZwLG

चित्र संदर्भ   
1. इत्र विक्रेता को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. विभिन्न प्रकार के इत्रों को दर्शाता चित्रण (freepik)
3. इत्र निर्माण प्रक्रिया को दर्शाता चित्रण (youtube)
4. गुलाब के इत्र को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)