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कभी अपने बहुमूल्य समय का छोटा सा हिस्सा निकालकर, किसी नवजात शिशु के निकट बैठिये
और उसे ध्यान से देखिएगा। उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं होता जिस पर वह गर्व कर सके। यहां
तक की कई बार नवजात शिशु के शरीर में कपडे का एक टुकड़ा भी नहीं होता, लेकिन फिर भी उसके
चेहरे पर आपको असीम प्रसन्नता दिखाई देगी। यहां तक की जब वह रोता है, उस समय भी उसके
चहरे पर तनाव की एक लकीर भी नहीं दिखाई देती। वह केवल इसलिए रोता है, क्योंकी उसे रोना
आता है। कई बार उसके रोने अथवा मुस्कुराने का कोई कारण नहीं होता फिर भी वह रोता एवं
मुस्कुराता है।
पहली नज़र में हम बच्चों को मुस्कुराते देख यह सोच लेते हैं की वह खुश है, लेकिन वास्तव में
अबोध बच्चों की प्रसन्नता के लिए हमें "ख़ुशी" के बजाय "आनंद" शब्द का प्रयोग करना चाहिए।
यदि हम ख़ुशी एवं आनंद में स्पष्ट अंतर देखें तो "ख़ुशी वह है जो आपको अपने शरीर के बाहरी
वस्तुओं को हासिल करके प्राप्त होती है, जबकि आनंदित होने के लिए आपको किसी भी अन्य
वस्तु अथवा व्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती। आनंद का सागर तो हमारे भीतर ही मौजूद है और
"आनंद ही सच्ची ख़ुशी है "।
आनंद शब्द का विस्तार इतना अधिक है की, इसे किसी एक परिभाषा में सीमित करना असंभव है।
हिंदू वेदों, उपनिषदों और भगवद गीता में, आनंद शाश्वत प्रसन्नता की अनुभूति का प्रतीक है।
गीता के अनुसार हमें सच्चे आनंद की अनुभूति धरती पर पुनर्जन्म चक्र के अंत के साथ होती है।
भगवत गीता कहती है की जो लोग अपने कर्मों के फल को त्याग देते हैं और खुद को पूरी तरह से
ईश्वरीय इच्छा के प्रति समर्पित कर देते हैं, वे चक्रीय जीवन प्रक्रिया (संसार) की अंतिम समाप्ति
पर पहुंच जाते हैं, और भगवान के साथ पूर्ण एकता में शाश्वत सुख (आनंद) का अनुभव करते हैं।
हिंदू दर्शनशास्त्र में आनंद के विभिन्न विवरण मिलते हैं:
तैत्तिरीय उपनिषद: संभवतः 'आनंद' शब्द पर सबसे व्यापक ग्रंथ तैत्तिरीय उपनिषद के आनंद वल्ली
में मिलता है, जहां सुख, खुशी और आनंद की एक ढाल को "परम आनंद" (ब्रह्मानंद) से अलग किया
गया है।
स्वामी विवेकानंद: स्वामी विवेकानंद के अनुसार आनंद के विभिन्न अर्थ और इसे प्राप्त करने के
विभिन्न मार्ग, हिंदू दर्शन में मौजूद हैं, क्योंकि मनुष्य एक दूसरे से भिन्न हैं, और प्रत्येक अपने
लिए आनंद के लिए सबसे उपयुक्त मार्ग चुनता है।
श्री अरबिंदो: श्री अरबिंदो ने अपनी पुस्तक “द लाइफ डिवाइन” (The Life Divine) में उल्लेख
किया है की, आनंद मानवता की प्राकृतिक अवस्था है, हालाँकि, मानव जाति में दर्द और आनंद के
द्वंद्व विकसित हो जाते हैं। अरबिंदो के अनुसार दर्द और पीड़ा की अवधारणाएं मन द्वारा समय
के साथ विकसित की गई आदतों के कारण होती हैं, जो सफलता, सम्मान और जीत को सुखद तथा
हार, असफलता, दुर्भाग्य को अप्रिय चीजों के रूप में मानते हैं।
अद्वैत वेदांत: हिंदू दर्शन के वेदांत स्कूल के अनुसार, आनंद उस परम आनंद की स्थिति है, जब
जीव सभी पापों, सभी संदेहों, सभी इच्छाओं, सभी कार्यों, सभी पीड़ाओं, सभी कष्टों और सभी
शारीरिक और मानसिक सामान्य सुखों से मुक्त हो जाता है। उपनिषद बार-बार आनंद शब्द का
उपयोग ब्रह्म, अंतरतम स्व, आनंदमय व्यक्ति को निरूपित करने के लिए करते हैं।
द्वैत वेदांत: भगवद गीता के आधार पर, द्वैत वेदांत आनंद को अच्छे विचारों और अच्छे कर्मों के
माध्यम से प्राप्त खुशी के रूप में वर्णित करता है, जो मन की स्थिति और मन के नियंत्रण पर
निर्भर करता है।
विशिष्टाद्वैत वेदांत: विशिष्टाद्वैत वेदांत के अनुसार, जिसे रामानुजाचार्य ने प्रस्तावित किया था,
सच्चा सुख केवल दैवीय कृपा के माध्यम से हो सकता है, जिसे केवल अपने अहंकार को परमात्मा
को समर्पित करने से ही प्राप्त किया जा सकता है।
श्री रमण महर्षि: रमण महर्षि के अनुसार, आनंद हमारे भीतर ही मौजूद है, जिसकी मौजूदगी किसी
के सच्चे स्व की खोज (स्वयं की खोज) के माध्यम से ही जानी जा सकती है। उन्होंने प्रस्ताव दिया
कि "मैं कौन हूं?" विचार का उपयोग करते हुए, आंतरिक जांच से आनंद प्राप्त किया जा सकता है।
हिंदू विचार के विभिन्न विद्यालयों के भीतर, आनंद प्राप्त करने के विभिन्न मार्ग और तरीके हैं।
मुख्य चार मार्ग हैं भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग और राज योग।
वास्तव में बढ़ती उम्र के साथ मनुष्य में सबसे बड़ी गलतफहमी यह विकसित होने लगती है की,
"कोई वस्तु जितनी महँगी होगी, ख़ुशी उतनी अधिक होगी"। लेकिन जब हम अबोध बच्चे थे तो
संभवतः केवल किसी रंगीन तितली को देखकर भी आनंदित हो जाते थे। उस समय हमारे लिए उस
तितली का पीछा करने से बड़ा कोई आनंद ही नहीं होता था। जब हम बड़े होते हैं तो हम अधिक
क्षमतावान होने लगते हैं, किंतु इसके बावजद, जीवन अधिक आनंदित होने के बजाय नीरस होने
लगता है, जबकि होना इसके विपरीत चाहिए।
बढ़ती उम्र के साथ जीवन में नीरसता अथवा उदासीनता आने का सबसे बड़ा कारण यही है की, हम
ख़ुशी को किसी वस्तु की कीमत अथवा व्यक्ति से हमारे संबंध के आधार पर तय करने लगते हैं।
बड़े होकर हम अपना अतीत ढोने लगे। जब आप अपने अतीत का बोझ लेकर चलते हैं, तो आपका
चेहरा लटक जाता है, खुशी गायब हो जाती है, उत्साह खत्म हो जाता है। मान लीजिए अगर आप पर
किसी तरह कोई बोझ नहीं है तो आप बिल्कुल एक छोटे बच्चे की भांति आनंद में होते हैं। अतः इसे
किसी वस्तु अथवा व्यक्ति में तलाशने के बजाय आनंद अथवा सच्ची खुशी की खोज अपने भीतर
करें।
मशीनीकरण, वैश्वीकरण, और शहरीकरण को वास्तविक विकास समझने से पूर्व हमें खुद से पूछना
चाहिए कि, वह क्या है जो हमें वास्तव में खुश करता है?
क्या भौतिक संपत्ति जैसे कार, बंगला, गैजेट्स, प्रसिद्धि, शक्ति, पैसा आदि ही सच्ची ख़ुशी है। यदि
धन ही सब कुछ होता, तो ऐसा क्यों है कि दुनिया के सबसे अमीर देशों में आत्महत्या, हत्या की दर
सबसे अधिक है! और तनाव संबंधी विकारों से इतना अधिक पीड़ित हैं? भारत की प्राचीनतम
पुस्तकें, वैदिक साहित्य, उपरोक्त विषयों के बारे में बहुत विस्तार से बात करते हैं। वैदिक साहित्य
'सादा जीवन और उच्च विचार' पर जोर देते हैं और दर्शाते हैं कि हम मूल रूप से आध्यात्मिक प्राणी
हैं जो भौतिक शरीरों में फंस गए हैं। भगवद गीता में भगवान कृष्ण द्वारा योग "(योग' शब्द का
अर्थ है स्वयं को ईश्वर से जोड़ना)" प्रक्रिया से गुजरने वाले व्यक्ति की विशेषताओं का वर्णन किया
गया है -"कोई व्यक्ति जब वह अर्जित ज्ञान और प्राप्ति के आधार पर पूरी तरह से संतुष्ट हो जाता
है, तो उसे योगी कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठता में स्थित होता है और आत्म-नियंत्रित होता है।
वह सब कुछ चाहे वह कंकड़ हो, पत्थर हो या सोना - एक ही रूप में देखता है। असीमित संपत्ति होने
के बावजूद यदि हम सच्चे आनंद से वंचित है, तो संभवतः हम उस नग्न नवजात शिशु से भी
अधिक निर्धन हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/32CzRBp
https://bit.ly/3FNxDNQ
https://bit.ly/3p6r7er
https://bit.ly/3xqZLn0
https://bit.ly/3xuxqft
चित्र संदर्भ
1. कीचड़ में खेलते छोटे बच्चों को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. मंद-मंद मुस्कुराते नवजात शिशु को दर्शाता एक चित्रण (PetaPixel)
3. ध्यान की मुद्रा में बैठे ब्राह्मण को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. कुत्ते के साथ खेलते बुजुर्ग को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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