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भारत एक ऐसा देश है, जहां चिकित्सक (Doctors) को बिना किसी अपवाद के ईश्वर का दर्जा दिया जाताहै। बढ़ते प्रदूषण और हाल के वर्षों में फैली महामारी ने देश में चिकित्सकों की महत्ता को और भी अधिक बड़ादिया है। किंतु क्या आप जानते हैं की भारत में इनकी उपयोगिता और आवश्यकता में भले ही वृद्धि हुई हो,
लेकिन दुखद रूप से पिछले कुछ वर्षों में भारत में डॉक्टरों सहित अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या में
निरंतर कमी देखी जा रही है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यबल खाता (NHWA) 2018 और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2017-2018 में स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या पर किये गए अध्ययनों (NHWA)
के अनुसार, भारत में 2018 के दौरान स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की कुल अनुमानित संख्या 5.76 मिलियन पाई
गई। जिसमें एलोपैथिक डॉक्टर (1.16 मिलियन), नर्स/दाई (2.34 मिलियन), फार्मासिस्ट (1.20 मिलियन),
दंत चिकित्सक (0.27 मिलियन), आयुष 0.79 मिलियन और पारंपरिक चिकित्सा व्यवसायी शामिल हैं।
हालांकि, एनएसएसओ 2017-2018 का सक्रिय स्वास्थ्य कार्यबल का अनुमानित आकार इसकी तुलना में
बहुत कम (3.12 मिलियन) है, जिसमें एलोपैथिक डॉक्टरों और नर्सों / दाइयों का अनुमान क्रमशः 0.80
मिलियन और 1.40 मिलियन है। एनएचडब्ल्यूए के अनुसार प्रति 10,000 व्यक्ति में डॉक्टर और
नर्सों/दाइयों का स्टॉक घनत्व क्रमशः 8.8 और 17.7 है। हालांकि, एनएसएसओ द्वारा अनुमानित डॉक्टर
और नर्सों/दाइयों के सक्रिय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का घनत्व क्रमशः 6.1 और 10.6 होने का अनुमान है। ये
सभी अनुमान प्रति 10,000 जनसंख्या पर 44.5 डॉक्टर, नर्स और दाइयों की डब्ल्यूएचओ की सीमा से
काफी नीचे हैं।
भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र, पर्याप्त बुनियादी ढांचे और मानव संसाधन के अभाव में एक बड़े संकट से जूझ रहा
है। पिछले नौ वर्षों में, मध्य प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा कर्मचारियों, विशेषकर डॉक्टरों की
कमी ने 72,000 शिशुओं की जान ले ली। बिहार में एक सरकारी डॉक्टर 28,391 लोगों की सेवा करता है।
उत्तर प्रदेश प्रति 19,962 रोगियों में केवल एक डॉक्टर के साथ दूसरे स्थान पर है, जिसके बाद झारखंड
(18,518), मध्य प्रदेश (16,996), छत्तीसगढ़ (15,916) और कर्नाटक (13,556) का स्थान है।
भारत काफी समय से सुसज्जित चिकित्सा संस्थानों (well equipped medical institutions) की कमी
के रूप में बुनियादी ढांचे की कमी से जूझ रहा है। साथ ही सरकारी विनियमन (Government
regulation) ने अनिवार्य कर दिया कि, निजी मेडिकल कॉलेज कम से कम पांच एकड़ भूमि पर बनाए जाने
चाहिए। नतीजतन, ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ निजी कॉलेज ऐसे स्थानों में बनाए गए, जहां कम वेतनमान के
अलावा, उचित रहने की स्थिति की कमी के कारण पर्याप्त रूप से योग्य, पूर्णकालिक डॉक्टरों की भर्ती
करना काफी मुश्किल हो गया। हालांकि नवगठित राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने मेडिकल
कॉलेज की स्थापना के लिए न्यूनतम पांच एकड़ भूमि की आवश्यकता को समाप्त करने का विचार सामने
रखा है।
31 मार्च, 2017 तक, देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 10,112 महिला स्वास्थ्य कर्मियों, 11,712 महिला
स्वास्थ्य सहायकों, 15,592 पुरुष स्वास्थ्य सहायकों और उप-केंद्रों में 6,1000 से अधिक महिला स्वास्थ्य
कर्मियों और सहायक नर्सों की कमी पाई गई थी। देश में कथित तौर पर 462 मेडिकल कॉलेज हैं जो हर
साल 56,748 डॉक्टरों को तैयार करते हैं। इसी तरह, देश भर में 3,123 संस्थान हर साल 125,764 नर्स
तैयार करते हैं। हालांकि, भारत की जनसंख्या में हर साल लगभग 26 मिलियन की वृद्धि के साथ,
चिकित्सा कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि औसतन बहुत कम है।भारत में सिर्फ एक डॉक्टर के भरोसे
15,700 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र चल रहे हैं!
केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे के अनुसार, हालंकि देश में 600,000 से अधिक डॉक्टरों की कमी है,
लेकिन 2022 तक यह संकट खत्म हो जाएगा! क्योंकि मेडिकल कॉलेजों में सीटों की संख्या बढ़ा दी गई है।
पिछले दशक में, भारत में मेडिकल स्कूलों की संख्या 256 (2006) से बढ़कर 479 (2017) हो गई, जिनमें से
259 निजी स्वामित्व और प्रबंधित हैं। हालांकि, अपर्याप्त शिक्षण बुनियादी ढांचे और फैकल्टी जैसे मुद्दों
के कारण केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 82 मेडिकल कॉलेजों के संचालन पर रोक लगा दी है, इनमें से 70
निजी स्वामित्व वाले हैं।
भारत में सबसे अधिक दबाव वाली समस्याओं में से एक चिकित्सा क्षेत्र में प्रशिक्षित जनशक्ति की भारी
कमी भी है। इसमें डॉक्टर, नर्स, पैरामेडिक्स और प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता शामिल हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में
स्थिति और भी अधिक चिंताजनक बनी हुई है, जहां भारत की लगभग 66 प्रतिशत आबादी निवास करती
है।
कोविड -19 महामारी के प्रकोप से पहले भी, स्वास्थ्य सुविधाओं को असहनीय रोगी-भार के कारण तनाव
महसूस हो रहा था। इसके अलावा, जब स्वास्थ्य सुविधाओं के उचित प्रबंधन की बात आती है, तो 1.4
बिलियन की आबादी की सेवा करना अपने आप में एक कठिन कार्य है।
सरकार की आयुष्मान भारत योजना के मामले में, प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना (PM-JAY) को
स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों (एचडब्ल्यूसी) घटक की तुलना में काफी ध्यान और संसाधन प्राप्त हुए हैं।
भविष्य में स्वास्थ्य सेवा के विकास के लिए इस विषमता को उपयुक्त रूप से संबोधित करने की
आवश्यकता है।
भारत में अधिकांश स्वास्थ्य सेवाएं निजी संस्थानों द्वारा प्रदान की जाती हैं, और यहाँ चिकित्सा व्यय का
65 प्रतिशत रोगियों द्वारा अपनी जेब से भुगतान किया जाता है। इस मुद्दे का समाधान करने का एक
संभावित समाधान स्वास्थ्य बीमा को अपनाने में वृद्धि करना हो सकता है। इस संबंध में सरकारी और
निजी संस्थानों दोनों को मिलकर काम करने की जरूरत है। साथ ही स्वास्थ्य सेवा और सेवा प्रदाताओं को
परिचालन में अधिक पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है। भारत को सक्रिय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की संख्या
बढ़ाने के लिए एचआरएच में निवेश करने और कौशल-मिश्रण में सुधार करने की आवश्यकता है, जिसके
लिए पेशेवर कॉलेजों और तकनीकी शिक्षा में निवेश की आवश्यकता है। भारत को श्रम बाजारों में शामिल
होने के लिए योग्य स्वास्थ्य पेशेवरों को प्रोत्साहित करने और पहले से ही काम कर रहे लेकिन अपर्याप्त
रूप से योग्य स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए अतिरिक्त प्रशिक्षण और कौशल निर्माण की भी आवश्यकता
नज़र आती है।
संदर्भ
https://bit.ly/3udchGE
https://bit.ly/3LIUm0u
https://bit.ly/3DL5maQ
चित्र संदर्भ
1. भारतीय महिला चिकित्सकों को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
2. महिला चिकित्सक को दर्शाता एक चित्रण (Pixabay)
3. भारतीय अस्पताल को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. COVID-19 फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ता को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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