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कुछ भी मुफ्त या फ्री नहीं होता, हर वस्तु तथा हर सेवा की एक कीमत होती है! किंतु कई बार यह कीमत
हमसे सीधे तौर पर वसूलने के बजाय, अप्रत्यक्ष रूप से वसूली जाती है। समझदार व्यक्ति हमेशा इस बात
को जानता है कि, यदि वह प्रत्यक्ष रूप से किसी वस्तु की सही कीमत अदा नहीं करेगा, तो संभव है की
अप्रत्यक्ष रूप उससे कई गुना अधिक कीमत वसूली जाएगी। लेकिन कई बार देश की भोली-भाली जनता
शायद इस तथ्य को समझने में देरी कर देती है, क्यों की राजनीति में ऐसा कई बार हुआ है जब, जनता ने
मुफ्त में प्राप्त वस्तु अथवा सेवाओं की कीमत, उसके असल मूल्य से भी कई गुना अधिक कीमत देकर
चुकाई है! इस प्रकार की राजनीति को “फ्रीबी पॉलिटिक्स” कहा जाता है।
राजनीति में मुफ्त उपहारों और योजनाओं की घोषणा करके राजनीतिक लोकप्रियता बढ़ाने, और लाभ
कमानें की होड़ मची रहती है। तकनीकी भाषा में इसे फ्रीबी राजनीति (freebie politics) कहा जाता है।
जानकार मानते हैं की फ्रीबीज, व्यापक रूप से आर्थिक स्थिरता के बुनियादी ढांचे को कमजोर करती हैं, और
आम जनता के जीवन की गुणवत्ता में समग्र सुधार करने के बजाय, नेता अपने राजस्व पर खर्च करने के
लिए व्यय प्राथमिकताओं को विकृत करते हैं।
पंद्रहवें वित्त आयोग के अध्यक्ष, एन के सिंह (N.K Singh) के अनुसार "मुफ्त उपहारों का अर्थशास्त्र हमेशा
गलत होता है, तथा अर्थशास्त्र और राजनीति में मुफ्तखोरी एक गहरी खामि होती हैं।” जिसका सरल शब्दों
में अर्थ है कि, आने वाले समय में फ्री के चक्कर में केंद्र से उधार लेने वाले राज्य अत्यधिक तनाव ग्रस्ततथा दिवालिया हो जायेगें। "हमें अच्छी तरह से प्रबंधित राज्यों, और कम अच्छी तरह से प्रबंधित राज्यों के
बीच अंतर करने के लिए डिज़ाइन की गई नीतियों की परामर्श प्रक्रिया पर विचार करना चाहिए। उदाहरण
के तौर पर, संविधान का अनुच्छेद 293(3) हमें बताता है की, “यदि किसी भी राज्य का पुराना ऋण अभी भी
बकाया है तो, वह राज्य भारत सरकार की सहमति के बिना कोई ऋण नहीं ले सकता है।
एन के सिंह ने पंजाब को एक उदाहरण के रूप में लेते हुए कहा की "हमें प्रतिस्पर्धी फ्रीबी राजनीति की
संस्कृति के विचार से भी दूर रहना चाहिए।
पंजाब के संदर्भ में, कुछ लोगों ने अनुमान लगाया है कि, हाल के विधानसभा चुनाव में किए गए मुफ्त के
वादे को लागू करने के लिए लगभग 17,000 करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं। एक ओर जहाँ पंजाब के सकल
घरेलू उत्पाद का कर्ज 2021 में पहले से ही 53.3 प्रतिशत है। जो इन नए वादों को लागू करने के कारण और
-22% तक खराब हो जाएगा।" पंजाब में आप (AAP) ने 55 लाख घरों में 300 यूनिट मुफ्त बिजली और हर
महिला को 1,000 रुपये मासिक भत्ता देने का वादा किया है।
एक अन्य उदाहरण के तौर पर, हमारे उत्तरप्रदेश की सरकार ने जनवरी में, विधानसभा चुनावों से एक महीने
पहले, ग्रामीण और अर्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में 13 लाख से अधिक उपयोगकर्ताओं को सीधे लाभान्वित करने के
लिए कृषि उपयोग पर बिजली दरों में 50 प्रतिशत की कटौती की घोषणा की। इसके साथ ही यूपी में भाजपा
के अभियान में 2.3 करोड़ कृषि जोतों के लिए मुफ्त बिजली, कॉलेज जाने वाली महिलाओं के लिए मुफ्त
स्कूटर और दो मुफ्त एलपीजी सिलेंडर का वादा शामिल था।
हमें आर्थिक विकास की ऊंची दर हासिल करने के प्रयास करने चाहिए। दक्षता की दौड़ समृद्धि की दौड़
होती है। मुफ्तखोरी, आम जीवन में समग्र सुधार के लिए किये जाने वाले खर्चे अर्थात व्यय करने के बजाय,
व्यापक आर्थिक स्थिरता को जन्म देती है, और व्यय प्राथमिकताओं को भी विकृत करती है। मुफ्त उपहारों
की संस्कृति का, निर्माण के भविष्य (future of construction) पर भी कमजोर प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि
इससे कुशल और प्रतिस्पर्धी बुनियादी ढांचे से हटकर, विनिर्माण क्षेत्र की गुणवत्ता और प्रतिस्पर्धात्मकता
को कम किया जाता हैं।
अब सवाल यह उठता है की आखिर, राजनीतिक दलों को हर चुनाव से पहले गरीबों को रियायतें देने का
वादा क्यों करना पड़ता है?
इसका उत्तर, बड़ी संख्या में भारतीयों के लिए अच्छी आजीविका सृजित करने में हमारी आर्थिक नीतियों की
पूर्ण विफलता में निहित है। 1981 से रोजगार के लिए RBI-KLEMS और 2016 में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग
इंडियाज इकोनॉमी (Center for Monitoring India's Economy “CMIE”) द्वारा किए गए रोजगार
सर्वेक्षण के अनुसार, 1990 के दशक से रोजगार वृद्धि धीमी हो गई है, और पिछले कुछ वर्षों में नकारात्मक
हो गई है।
यह स्पष्ट है कि यदि लोग दो वक्त का भोजन पाने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं करते हैं, तो राजनेताओं की
सत्ता में वापस आने की संभावना भी नहीं होगी। यह स्थिति कोविड के आने से पहले भी काफी बेहतर नहीं
थी। सीएमआईई (CMIE) के सर्वेक्षणों और विश्व असमानता डेटाबेस से आय के आंकड़े बताते हैं कि 10%
से अधिक भारतीय, उच्च मूल्य वाली टिकाऊ वस्तुओं खरीदने जितना भी पर्याप्त नहीं कमाते हैं। अन्य
30% के पास आय ऐसे सीमित श्रोत है, जो उन्हें कम मूल्य की टिकाऊ वस्तुओं और सस्ती एफएमसीजी
वस्तुओं (Affordable FMCG Items) पर खर्च करने जितना ही सक्षम बनाती है।
“फ्रीबी पॉलिटिक्स” कई राज्यों में देखी गई है, और इसने एक सब नेशनल दिवालियेपन ढांचे (Sub
National Bankruptcy Framework) का निर्माण किया है। इस ढांचे के अंतर्गत ऐसे राज्यों को शामिल
किया जाता है जो अपने बिलों का भुगतान करने में असमर्थ है, और आखिर में मदद के लिए वह केंद्र के
पास जाते हैं, तथा उसके पास वित्त आयोग के बाहर कोई सहारा तंत्र (support system) भी नहीं होता है।
राजनीति में मुफ्त उपहार, राजकोषीय असंतुलन पैदा करते हैं, यह राज्य की वित्तीय स्थिति को और खराब
कर देगा!
संदर्भ
https://bit.ly/3EzrQfu
https://bit.ly/3Oqr6xI
https://bit.ly/3xJ8F1c
चित्र संदर्भ
1 राजनीतिक उदासीनता को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. पंद्रहवें वित्त आयोग के अध्यक्ष, एन के सिंह (N.K Singh) को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. एक सामूहिक जनसभा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. भारत में वर्तमान सत्तारूढ़ दलों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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