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आज हम अपनी छवि को देखने के लिए जिस दर्पण का उपयोग करते हैं, इसका आविष्कार
1835 में हुआ था। दर्पण वास्तव में एक सपाट या घुमावदार सतह है जो आमतौर पर कांच
से बनी होती है जिस पर एक परावर्तक कोटिंग लगाई जाती है।आज दर्पण का उपयोग
विभिन्न प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में भी किया जा रहा है, दूरबीन, औद्योगिक मशीनरी, कैमरा और
लेजर जैसे वैज्ञानिक उपकरणों में यह एक महत्वपूर्ण घटक है।इससे पहले विश्व में और
प्राचीन भारत में लोग अपनी छवि देखने के लिए किस चीज का उपयोग करते थे, यह एक
रोचक प्रश्न है?
प्रारंभ में लोगों ने अपने प्रतिबिंबों को पानी, नदियों और तालों में देखना शुरू किया होगा,जो
इनके प्रारंभिक दर्पण थे। प्रारंभिक मानव निर्मित दर्पण पॉलिश किए गए पत्थर से बनाए गए
थे और यह दर्पण ब्लैक वोल्केनिक ग्लास ओब्सीडियन (black volcanic glass
obsidian) से बने होते थे। लगभग 6000 वर्ष पुराने इस प्रकार के दर्पणों के कुछ नमूने
तुर्की (Turkey) में पाए गए हैं। प्राचीन मिस्रवासी दर्पण बनाने के लिए पॉलिश किए हुए
तांबे का उपयोग करते थे, और अक्सर गोलाकार दर्पण को अलंकरण से अलंकृत किया जाता
था। प्राचीन मेसोपोटामिया (Mesopotamia) के लोगों ने भी पॉलिश किए हुए धातु के दर्पणों
का निर्माण किया और लगभग 2000 ईसा पूर्व से पॉलिश किए गए पत्थर से बने दर्पण
मध्य और दक्षिण अमेरिका में तैयार किए गए थे। यूरोप (Europe) के धनी लोग मध्य युग
के बाद से कांच के दर्पणों का उपयोग कर रहे थे, लेकिन इसकी सतह समतल नहीं थी और
प्रत्येक दर्पण अपनी तरह की एक अनूठी रचना थी। उत्तल दर्पण गोलाकार था और इसके
चारों ओर अक्सर एक मोटा फ्रेम बना होता था। चीन (China) में दर्पण धातु मिश्र धातुओं
(टिन और तांबे का मिश्रण जिसे वीक्षक धातु कहा जाता है) से बनाए गए, इन्हें एक
परावर्तक सतह के साथ-साथ पॉलिश किए गए कांस्य से बने दर्पण बनाने के लिए अत्यधिक
पॉलिश किया जाता था। मिश्र धातु या कीमती धातु के दर्पण प्राचीन काल में बहुत ही
मूल्यवान वस्तुओं में शामिल थीं जो केवल बहुत धनी लोगों के लिए ही उपलब्ध थीं।
भारत ने "दर्पण" का उपयोग कब से शुरू हुआ? इसका उत्तर देने के लिए हमें सभी प्राचीन
भारतीय ग्रंथों के भीतर झांकना होगा। फिनलैंड (Finland) के प्रोफेसर आस्को परपोला
(Asko Parpola), प्राचीन भारत के एक विशेषज्ञ, इस क्षेत्र में अपना प्रयास कर चुके हैं:
प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय वैदिक साहित्य संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों और श्रौतसूत्रों
(उत्तर कात्यायन-श्रौतसूत्र को छोड़कर) में कहीं पर भी दर्पण का कोई उल्लेख नहीं किया
गया है। इससे ज्ञात होता है कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व के अंत में जब तक फारसी साम्राज्यद्वारा दक्षिण एशिया में शीशा नहीं लाया गया था, वैदिक भारतीय इससे परिचित नहीं थे।
उत्तर वैदिक साहित्य, प्रारंभिक उपनिषदों से शुरू होते हैं और इसमें गृह्यसूत्र और
कात्यायन-श्रोतसूत्र भी शामिल हैं, इसलिए यह 500 ईसा पूर्व के बाद का होगा। दूसरे शब्दों
में, 'दर्पण' शब्द एक मानदंड प्रदान करता प्रतीत होता है जो पहली बार विकास के दो अलग
चरणों में वैदिक साहित्य के विभाजन को सक्षम बनाता है। उतना ही महत्वपूर्ण यह दृढ़
ऐतिहासिक आधार भी है जिसमें दर्पण परिवर्तनकाल के बिंदुओं की तिथि निर्धारण में
सहायता प्रदान करता है।
मूलत: फ़िनलैंड से प्राचीन भारत के दिवंगत प्रोफेसर, आस्को परपोला ने निष्कर्ष निकाला कि
- "500 ईसा पूर्व उत्तर वैदिक ग्रंथों के लिए एक निश्चित टर्मिनस पोस्ट क्वेम (terminus
post quem) है - जिसमें उपनिषद, गृहसूत्र और कात्यायन-श्रुतसूत्र शामिल हैं - इसमें एक
संस्कृत शब्द है आकाश (akasa) जिसका अर्थ दर्पण के काफी निकट प्रतीत होता है। यह
उल्लेखनीय है कि अरण्यक और जैमिनीय-उपनिषद-ब्राह्मण, जो ब्राह्मणों से उपनिषदों में
परिवर्ततन का प्रतिनिधित्व करते हैं, में अभी तक आकाश दर्पण से संबंधित नहीं है, जबकि
आकाश शब्द - वास्तविक ब्राह्मण के पाठ में किसी भी प्रकरण ( तैत्तिरीय-ब्राह्मण
3,12,9,2) में 'दर्पण' का प्रतीक नहीं है। धार्मिक अनुष्ठानों में नई चीजों को अपनाने की
धीमी गति होती है, और यही स्थिति गृह संस्कारों में भी समान थी, जहां विभिन्न शाखाओं
के ग्रंथ दर्पण के असमान उपयोग की पुष्टि करते हैं।
दूसरी ओर, दार्शनिक वाद विवाद, नवीनता के लिए अधिक खुले होते हैं, इसलिए उपनिषदिक
साक्ष्यों को शहरी उत्तर भारत में दर्पण के पुन: प्रकट होने को काफी संवेदनशील रूप से
प्रतिबिंबित करना चाहिए। याज्ञवल्क्य और शाकल्य जैसे प्रसिद्ध व्यक्तियों, ने इस विवाद को
प्रारंभ किया था, यह शतपथ-ब्राह्मण से पहले से ही ज्ञात है, इसलिए संभवत: शुरुआत में
पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास प्रारंभिक उपनिषदों की रचना के समय दर्पण संदर्भों को
उनकी शिक्षाओं में प्रक्षेपित किया गया होगा।"
ऐसा माना जाता है कि धातु मिश्रित कांच से बने दर्पण का उपयोग पहली बार लेबनान में
किया गया था, जो कि पहली शताब्दी ईस्वी में बनाया गया था और रोमनों ने ब्लो ग्लास
(blown glass) से और पिछले भाग में लेड लगाकर कच्चे दर्पण बनाए गए थे।आज के
दर्पण सिल्वर(silver) से ढके कांच के बने होते हैं। 1508 में, वेनिस, इटली (Venice,
Italy) के कांच निर्माताओं ने कांच से बने दर्पण का अविष्कार किया। उन्होनें कांच की एक
शीट के पिछले हिस्से को टिन और पारे से ढक दिया, जिससे यह चमकदार हो गया और
छवियों को पूरी तरह से पराविर्तत करने लगा।
1835 में एक जर्मन (German) रसायनज्ञ जस्टस वॉन लिबिग (Justus von Liebig) ने
सिल्वर-ग्लास मिरर (silvered-glass mirror) का अविष्कार किया, इसे बनाने की प्रक्रिया
में सिल्वर नाइट्रेट (silver nitrate) की रासायनिक रिडक्शन(chemical reduction) से
चांदी की एक पतली परत कांच पर डाल दी जाती है। इस प्रक्रिया के आविष्कार ने शीशे के
उत्पादन में तीव्रता लाई। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में भी, कई गरीब परिवार अपने बालों
और बोनट की जांच के लिए केवल एक छोटा दर्पण ही खरीद पाते थे।नियमित घरों में कोई
पूर्ण लंबाई वाला दर्पण नहीं होता था। वर्तमान समय के दर्पण अधिकांशत: वैक्यूम
(vacuum) द्वारा कांच पर सीधे एल्यूमीनियम (aluminum) जमा करके बनाए जाते हैं।
संदर्भ:
https://bit.ly/35bBW8M
https://bit.ly/36uvk69
https://bit.ly/33wDFov
चित्र संदर्भ
1. बेलूर हिंदू मंदिर में 12वीं सदी की मूर्ति, खुद को आईने में देखती महिला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. पानी में बन रहे प्रतिबिम्बों को दर्शाता चित्रण (Max Pixel)
3. प्रारंभिक मानव निर्मित दर्पण पॉलिश किए गए पत्थर से बनाए गए
थे और यह दर्पण ब्लैक वोल्केनिक ग्लास ओब्सीडियन (black volcanic glass
obsidian) से बने होते थे, जिनको दर्शाता चित्रण (flickr)
4. दक्षिण भारत के एक मंदिर में आईने को दर्शाता चित्रण (quora)
5. सिल्वर-ग्लास मिरर (silvered-glass mirror) को दर्शाता चित्रण (flickr)
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