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“दिलरुबा” शब्द को देखकर आपके मन में भी बॉलीवुड के गानों और प्रेमी-प्रेमिकाओं की कहानियों के चित्र उभरने लगे होंगे। लेकिन ऐसे बहुत कम लोग हैं, जो ये बात जानते हैं कि “दिलरुबा” वास्तव में एक प्राचीन वाद्ययंत्र का भी नाम है, जिसका हमारे देश में धार्मिक संगीत के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान रहा है।
दरअसल “दिलरुबा और एसराज” दो तार वाले वाद्ययंत्र हैं, जो लगभग 200 साल पहले हिंदुस्तानी संगीत का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे। सितार और सारंगी जैसे आधुनिक वाद्ययंत्र, इनकी विशेषताओं से मिलकर बने हैं; सितार की लंबी गर्दन, झल्लाहट (fretting) और धातु के तार ही देख लीजिए। इस वाद्ययंत्र का नाम फ़ारसी कृत हिंदुस्तानी शब्द دلربا/दिलरुबा से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ "वह जिसने दिल को मोहित कर लिया या चुरा लिया" होता है।
19वीं शताब्दी में इन वाद्ययंत्रों की उस समय समाज में बहुत अधिक मांग थी। 19वीं सदी में शास्त्रीय संगीत में “सारंगी” के अलावा कोई अन्य झुकी हुई आकृति वाला वाद्ययंत्र नहीं था। लेकिन सारंगी को धुनना और बजाना बहुत कठिन साबित होता था। तभी दिलरुबा इस जटिल समस्या के समाधान के रूप उभरी। दिलरुबा में चार मुख्य तार होते हैं, जो सभी धातु से बने होते हैं। इसका साउंडबोर्ड (soundboard) भी सारंगी के समान ही फैली हुई बकरी की खाल से बना होता है। कभी-कभी, संतुलन के लिए या ध्वनि को बेहतर बनाने के लिए यंत्र के शीर्ष पर एक खोकली लौकी लगाई जाती है। खोकली की गई लौकी या कद्दू का उपयोग सदियों से संगीत वाद्य यंत्रों के निर्माण में किया जाता रहा है। इन्हें अक्सर वाद्य यन्त्र को हल्का रखने और ध्वनि को बढ़ाने के लिए अनुनादक के रूप में उपयोग किया जाता है।मान्यता है कि दिलरुबा का आविष्कार लगभग 300 साल पहले, सिखों के 10वें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह द्वारा, पुराने और भारी ताऊस वाद्ययंत्र के आधार पर किया था। हालांकि शोध समुदाय के कुछ लोगों जैसे कि भाई अवतार सिंह रागी जैसे कुछ पारंपरिक कीर्तन गायकों का कहना है कि दिलरुबा वास्तव में महाराजा भूपिंदर सिंह के संरक्षण में महंत गज्जा सिंह द्वारा बनाया गया था। दिलरुबा को ताऊस के ही अधिक आरामदायक और पोर्टेबल (portable) यानी परिवहनीय संस्करण के रूप में डिजाइन किया गया था, जिससे सिख सेना के लिए इसे घोड़े पर ले जाना और अधिक सुविधाजनक हो गया।
ताऊस, को मूल रूप से मयूरी वीणा के नाम से भी जाना जाता है। यह उत्तर भारत का एक झुकी हुई आकृति वाला वाद्य यंत्र है जिसमें मोर के आकार का अनुनादक होता है। इस वाद्ययंत्र की गर्दन पर धनुष (Bow) को सरका कर बजाया जाता है। चौथी और पांचवीं शताब्दी ईस्वी के बीच संस्कृत कवि कालिदास द्वारा लिखित मालविकाग्निमित्र में भी मयूरी वीणा का उल्लेख मिलता है। ताऊस नाम संस्कृत के "मोर" या मयूर शब्द का फ़ारसी अनुवाद है। ऐसा माना जाता है कि ताऊस को सिखों के छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद सिंह द्वारा भी बजाया गया था।
दिलरुबा को घुटनों के बल बैठकर या फर्श पर बैठकर बजाया जा सकता है। वाद्य यंत्र की गर्दन वादक के बाएं कंधे पर टिकी होती है। वादक अपने दाहिने हाथ में धनुष को पकड़ता है और अपने दूसरे हाथ को स्ट्रिंग (string) के ऊपर की डोरी के साथ घुमाता है।
दिलरुबा पर झल्लाहट की विशेषता ने इसे सीखने के लिहाज से बहुत आसान बना दिया। उच्च जाति के संगीतकारों को इससे विशेष जुड़ाव था और इसी जुड़ाव ने दिलरुबा को उच्च सामाजिक दर्जा दिला दिया।
“एसराज” भी दिलरुबा से मिलता जुलता वाद्य यंत्र होता है, जिसका इतिहास लगभग 300 वर्ष पुराना माना जाता है। यह पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में दो रूपों में पाया जाता है। हालांकि यह उत्तर भारत, विशेषकर पंजाब में अधिक आम है। इसका उपयोग सिख संगीत, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और पश्चिम बंगाल के लोक संगीत में किया जाता है। “एसराज को दिलरुबा का ही एक आधुनिक संस्करण माना जाता है।”
दिलरुबा और एसराज अभी भी देश के कई हिस्सों में बजाए जाते हैं, लेकिन वे अपेक्षाकृत दुर्लभ हो गए हैं। 1960 के दशक में, दिलरुबा भारत के बाहर अधिक प्रसिद्ध हो गया, क्योंकि इसका उपयोग इंग्लॅण्ड के मशहूर रॉक बैंड बीटल्स (Beatles) जैसे पश्चिमी संगीतकारों ने अपने साइकेडेलिक संगीत चरण (psychedelic music phase) के सबसे प्रसिद्ध गीत "विदिन यू विदाउट यू” {Within You Without You) में किया था। इसके अलावा पश्चिम बंगाल में, रबिन्द्रनाथ टैगोर ने भी विश्वभारती विश्वविद्यालय के संगीत भवन (संगीत अकादमी) में सभी छात्रों के लिए एसराज को एक अनिवार्य उपकरण बना दिया था। जिसके परिणामस्वरूप, एसराज को अब पारंपरिक रवींद्र संगीत के लिए मुख्य सहायक वाद्ययंत्र माना जाता है।
आइये अब एसराज और दिलरुबा के बीच समानताओं और अंतरों पर संक्षेप में नजर डाल देते हैं:
समानताएं
➲ दोनों वाद्ययंत्र सारंगी और सितार का मिश्रण हैं।
➲ दोनों में झल्लाहट के साथ एक लंबा फ़िंगरबोर्ड (Fingerboard), एक सूखी त्वचा वाला साउंडबॉक्स (soundbox) होता है, और दोनों को ही धनुष के साथ बजाया जाता है।
➲ दोनों वाद्ययंत्रों में धातु के तार होते हैं जिन्हें सितार की तरह बाएं हाथ की उंगलियों से बजाया जाता है।
➲ दोनों वाद्ययंत्रों का शरीर तुन या सागवान की लकड़ी से बना होता है।
➲ दोनों वाद्ययंत्रों का ब्रिज सारंगी की तरह पतला होता है।
➲ दोनों वाद्ययंत्रों में समान संख्या में फ्रेट (17-19) होते हैं।
➲ दोनों वाद्ययंत्रों को बजाने की तकनीक भी समान होती है।
➲ दोनों उपकरणों की पकड़ने की स्थिति भी समान होती है। दोनों वाद्ययंत्रों को या तो गोद में या संगीतकार के सामने रखा जाता है, जिसमें फिंगरबोर्ड बाएं कंधे पर टिका होता है।
अंतर्
➲ दिलरुबा में एक चौड़ा आयताकार साउंडबॉक्स होता है, जबकि एसराज में एक गोल, अंडाकार आकार का साउंडबॉक्स होता है, जिसे झुकने की सुविधा के लिए किनारों से काटा जाता है।
➲ अधिक सहानुभूतिपूर्ण तारों को समायोजित करने के लिए दिलरुबा का फिंगरबोर्ड एसराज की तुलना में चौड़ा होता है।
➲ अधिकांश दिलरुबा में चार मुख्य वादन तार होते हैं, लेकिन कुछ में छह भी होते हैं। एसराज में हमेशा चार मुख्य बजाने वाले तार होते हैं।
➲ दिलरुबा में 20-22 सहानुभूतिपूर्ण तार होते हैं, जबकि एसराज में 15 होते हैं। यह दिलरुबा को एसराज की तुलना में अधिक प्रतिध्वनि देता है।
➲ दिलरुबा पर सहानुभूतिपूर्ण तारों की व्यवस्था और ट्यूनिंग सारंगी की तरह होती है।
➲ एसराज के धनुष का आकार दिलरुबा से काफी अलग होता है।
➲ दिलरुबा पश्चिमी भारत में अधिक लोकप्रिय है, जबकि एसराज पूर्वी क्षेत्रों में लोकप्रिय है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/m9jx6xa4
https://tinyurl.com/3hwwdfac
https://tinyurl.com/3rpp9eaf
https://tinyurl.com/mvv8kkp2
चित्र संदर्भ
1. दिलरुबा को बजाते सरदार जी को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. दिलरुबा को बजाते एक सिख बच्चे जी को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
3. नजदीक से दिलरुबा को को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. दिलरुबा को बजाते एक बुजुर्ग व्यक्ति जी को दर्शाता एक चित्रण (pexels)
5. एसराज को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
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