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अष्टावक्र गीता एक प्राचीन हिंदू ग्रंथ है जिसमें "ऋषि अष्टावक्र" और मिथिला के राजा "जनक" के बीच हुए संवाद को उल्लेखित किया गया है। यह पाठ अद्वैत वेदांत दर्शन पर केंद्रित है, जो कहता है कि "ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है और संसार में शेष सब कुछ एक भ्रम है।" अष्टावक्र गीता, को अष्टावक्र नामक ऋषि द्वारा रचा गया है। अष्टावक्र नाम का शाब्दिक अर्थ "जिसका शरीर आठ जगह से टेढ़ा " होता है। अष्टावक्र ऋषि, शारीरिक रूप से आठ जगहों से टेढ़े थे, लेकिन वह बचपन से ही बहुत बुद्धिमान भी थे। अष्टावक्र गीता की रचना का कालनिर्धारण (रचना का समय) अनिश्चित है। हालांकि कुछ विद्वानों का मानना है कि इसे 5वीं-4 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में लिखा गया था, लेकिन कई विद्वान यह भी मानते हैं कि इसे बहुत बाद में, लगभग 8वीं या 14 वीं शताब्दी ई. में लिखा गया था।
यद्यपि अष्टावक्र गीता एक जटिल पाठ माना जाता है, किंतु इसका केंद्रीय संदेश अत्यंत सरल है, जो कहता है कि: “ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है, और बाकी सब कुछ एक भ्रम है।” अष्टावक्र गीता के सभी पाठों में इसी एक संदेश को सिखाने के लिए विभिन्न कहानियों और रूपकों का उपयोग किया गया है! अष्टावक्र गीता की प्रमुख शिक्षाओं में से एक यह भी है कि "अहंकार हमारे सभी दुखों की जड़ होता है।" अहंकार हमारे मन में यह भ्रम पैदा करता है कि, हम ब्रह्म से अलग हैं। अष्टावक्र गीता के एक भाग में, ऋषि अष्टावक्र, राजा जनक को समझाते हैं कि उनके शरीर का रूप उनके वास्तविक स्वरूप से बिल्कुल अलग है। जिस प्रकार किसी मंदिर की महिमा उसके आकार से प्रभावित नहीं होती, उसी प्रकार हमारी आत्मा भी शरीर के आकार से अप्रभावित रहती है। अष्टावक्र कहते हैं कि बुद्धिमान व्यक्ति दृश्यों और आकृतियों से परे देख सकता है।
अष्टावक्र, राजा जनक को आत्मा की प्रकृति के बारे में शिक्षा देते हुए कहते हैं कि, “आत्मा शाश्वत, अपरिवर्तनीय और निराकार है।” यह अनासक्त और सभी सीमाओं से भी मुक्त है। अष्टावक्र यह कहते हैं कि “जनक तुम्हारे पास त्यागने के लिए कुछ भी नहीं है, क्योंकि तुम पहले से ही शुद्ध और परिपूर्ण हो।”
अष्टावक्र गीता हमें बताती है कि हम पहले से ही शुद्ध और परिपूर्ण हैं, और हमें खुद को बदलने के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। हमें बस यह समझने की जरूरत है कि हम वास्तव में कौन हैं? हमारे चारों ओर की दुनिया एक भ्रम है और हमें इस भ्रम का साक्षी होना चाहिए। हम दुनिया से अलग नहीं हैं, लेकिन हम दुनिया भी नहीं हैं। परम चेतना में बने रहने के लिए, हमें बस अपने शरीर और दिमाग से ऊपर उठकर, पूरी जागरूकता के साथ, ब्रह्माण की वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित करना होगा । ऐसा करने पर हमें खुशी, शांति और स्वतंत्रता का अनुभव होता है।
अष्टावक्र गीता के कुछ प्रमुख बिंदुओं की विस्तृत व्याख्या निम्नवत दी गई है:
१. आप अपना शरीर या मन नहीं हैं।
२. आप शुद्ध चेतना हैं और सभी चीजों के साक्षी हैं।
३. संसार एक भ्रम है।
४. आप पहले से ही शुद्ध और परिपूर्ण हैं! आपको खुद को बदलने के लिए कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है।
५. शुद्ध चेतना में रहने के लिए, बस अपने शरीर और मन से ऊपर उठकर, और अपनी जागरूकता के साथ ध्यान अभ्यास करें और यह जीवन जीएं ।
६. हम सभी एक आत्मा हैं, जो शुद्ध जागरूकता है। यह आत्मा भी ईश्वर ही है।
७. हमारा अपना अस्तित्व, संसार और ब्रह्माण्ड आदि सभी हमारे मन की रचनाएँ हैं। वे वास्तविक नही है।
८. हमारे सभी दुखों की जड़, हमारी अपनी पहचान है। हम सोचते हैं कि हम स्वयं से, ईश्वर से और एक दूसरे से अलग हैं। इससे हमारे भीतर संघर्ष, प्रतिस्पर्धा और दुख पैदा होता है।
९. अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव करना ही मुक्ति का मार्ग है।
१०. अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव करने के लिए, हमें अपनी सभी आसक्तियों और पहचानों का त्याग करना चाहिए।
१२. हमें खुद को दूसरों के साथ आंकना बंद करना चाहिए। हमें दुनिया को खुद से अलग देखना बंद करना होगा।
१३. जब हमें अपने वास्तविक स्वरूप की सच्चाई का अनुभव हो जाता है, तो हम स्वतंत्र हो जाते हैं। हम पीड़ा, संघर्ष और सीमाओं से मुक्त हैं। हम वह बनने के लिए स्वतंत्र हैं जो हम वास्तव में हैं।
अष्टावक्र गीता और श्रीमद्भगवद्गीता दोनों ही आध्यात्मिक ग्रंथ हैं, और दोनों ही आत्म-बोध (आत्मज्ञान) पर केंद्रित हैं। अष्टावक्र गीता अष्टावक्र नामक ऋषि और जनक नामक राजा के बीच हुए संवाद का लिखित रूप है, जहाँ अष्टावक्र राजा जनक को सिखाते हैं कि वह वास्तव में कौन हैं, क्या हैं, उनका उद्देश्य क्या है और वह कहाँ जा रहे है?
वहीँ श्रीमद्भगवद्गीता भी श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच एक संवाद का लिखित स्वरूप है। श्री कृष्ण भी अर्जुन को आत्म-ज्ञान और सार्थक जीवन जीने के बारे में ज्ञान देते हैं। अष्टावक्र गीता और भगवद गीता दोनों हमें सिखाते हैं कि जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात खुद को जानना है। जब आप स्वयं को जानते हैं, तो आप दुखों से मुक्त हो जाते हैं और खुशी और संतुष्टि का जीवन जी सकते हैं। प्रसिद्धि और ज्ञानोदय के बीच बड़ा अंतर होता है। प्रसिद्धि तब होती है जब दुनिया आपको जानती है, लेकिन आत्मज्ञान तब होता है जब आप स्वयं को जानते हैं। "प्रसिद्ध होने से अधिक महत्वपूर्ण है स्वयं को जानना।" कुल मिलाकर श्री कृष्ण एवं अष्टावक्र दोनों ही आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चलने और आत्मज्ञान प्राप्त करने का संदेश देते हैं।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/3htua9h3
https://tinyurl.com/292wd2uk
https://tinyurl.com/uuaezdn9
चित्र संदर्भ
1.अष्टावक्र गीता को दर्शाता एक चित्रण (Wikimedia, flickr)
2.अष्टावक्र को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. एक योगी को दर्शाता एक चित्रण (PickPik)
4. श्रीमद्भगवद्गीता को दर्शाता एक चित्रण (Wikimedia)
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