हिन्दुस्तान सा-ए-गुल पा-ए-तख्त था, जहाँ-ओ-जलाल-ए-अहद-ए-विश्वाल-ए-बुतन ना पूछ,, यह गालिब की 149 वीं बरसी है गालिब की कवितायें इतिहास के राजाओं के खंजरों की (जो की संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहें हैं) तरह उनकी कवितायें आज भी युवाओं से लेकर बुजुर्गों के शरीर में रक्त संचार की गति को तीव्र करने का कार्य करती हैं। गालिब 19वीं शताब्दी के मात्र एक शायर ही नहीं थे अपितु वे समाज के एक अमूल्य अंग थे जिसका प्रमाण उनकी शायरियों से मिल जाता है- पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है। कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या।। मीर तकी मीर का एक शेर– अश्क आँखों में कब नहीं आता। लहू आता हैं जब नहीं आता।। गालिब ने इसे और अधिक शानदार और यादगार बना दिया: 'रागोना में दौड़ते फ़िरने के हम नहीं कायल। जब आंख से ही नहीं टपका तो फिर लहू कया है।। यह उर्दू कविता की परंपरा के अनुरूप था, जहां आप एक पुराने उस्ताद द्वारा एक रेखा या शेर ले गए और नए मतलब को प्रदान करने के लिए इसे बदल दिये। इस परंपरा ने कई लोगों को आकर्षित किया। उर्दू गज़लों में एक अलग सी कशिश होती है जिसमें एक क़र्ज़ के प्रेरित अंदाज़ का एक नमूना है जिसे हम-रदीफ़ ग़ज़ल कहते है। इसमें एक ही 'रदीफ़' या शेर शब्द के दोहराने वाला तरीका शामिल है। लखनऊ के कवि अमीर मीनाई के गज़ल एक प्रसिद्ध उदाहरण है, जो ग़ालिब के समकालीन थे, जिन्होंने लिखा है: 'उसकी हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकू। ढूँढने उसको चला हूँ जिसे पा भी न सकू।। ये ऐसा हैं अगर मीनाई का जवाब जो ग़ालिब ने लिखा, 'मेहरबान होके बुला लो मुझ चाहे जिस वक़्त। मै गया हुआ वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकू'।। ग़ालिब के शेर मात्र मुहब्बत को ही नही दिखाते बल्की ये हिंदू-मुस्लिम एकता को भी प्रदर्शित करते हैं, यही सुन्दरता ग़ालिब के शायरियों को एक अलग अंदाज से नवाजती है।
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