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नए साल के रोमांच और नई शुरुआत के साथ, जनवरी का महीना शुरू होते ही देश में लोकपर्वों और त्यौहारों की रौनक अपने चरम पर होती है। मकर संक्रांति साल का पहला सबसे बड़ा त्यौहार होता है, इसलिए पूरे देश में इस रोमांचकारी पर्व की रौनक देखते ही बनती है। हालांकि मकर संक्रांति से संबंधित ढेरों अनुष्ठान और परंपराएं भारत में काफी लोकप्रिय हैं, किंतु यह त्यौहार अपनी पतंगबाज़ी की परंपरा के कारण खासतौर पर अद्वितीय होता है।
मकर संक्रांति का पर्व हो, या उत्तरायण अथवा भारतीय स्वतंत्रता का उत्सव, सभी अवसर पतंगबाजी के पर्याय माने जाते हैं। हालांकि इन त्यौहारों या अवसरों के साथ पतंग के संबंध का कोई ऐतिहासिक प्रमाण या लिखित विवरण नहीं मिलता है, लेकिन यह एक बहुत प्राचीन परंपरा मानी जाती है।
वसंत ऋतु में, भारत का आसमान अलग-अलग आकारों की रंगीन पतंगों से भरा होता है। हालांकि खेलों के तकनीकीकरण के कारण कई वर्षों से, इस लोकप्रिय शगल और खेल ने बड़े पैमाने पर अपनी लोकप्रियता खो दी है, लेकिन मकर संक्रांति, बैसाखी और स्वतंत्रता दिवस जैसे अवसरों पर, बच्चे और यहां तक कि वयस्क भी इसे पूरे उत्साह और जुनून के साथ खेलते हैं।
पतंग के खेल की उत्पत्ति विवादित अर्थात अस्पष्ट मानी जाती है। कुछ ऐतिहासिक स्रोतों से पता चलता है कि पतंगों की उत्पत्ति संभवतः मेलनेशिया (Melanesia), माइक्रोनेशिया (Micronesia) और पोलिनेशिया (Polynesia) में हो सकती है, लेकिन व्यापक रूप से यह माना जाता है कि इसका आविष्कार चीन में हुआ था। 206 ईसा पूर्व से पतंग उड़ाने के सबसे पुराने लिखित विवरण में यह उल्लेखित किया गया है कि ह्वेन त्सांग (Hiuen Tsang) ने लियू पांग (Liu Pang) की सेना को डराने के लिए पतंग को उड़ाया था। विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि 169 ईसा पूर्व तक, हान राजवंश (Han dynasty) के चीनी जनरल हान सीन (Han Hsien) ने अपनी सेना को एक शहर की दीवार से नीचे पहुंचने के लिए सुरंग बनाने के लिए दूरी की गणना करने के लिए, शहर के ऊपर एक पतंग उड़ाई थी। और गुजरते समय के साथ बढ़ते वैश्वीकरण के बीच पतंग भारतीय उपमहाद्वीप में पहुंच गई।
ऐसा माना जाता है कि पतंगें, रेशम मार्ग ( Silk Route), जो कि दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 15वीं शताब्दी के मध्य तक सक्रिय यूरेशियन व्यापार मार्गों का एक नेटवर्क था, के माध्यम से पूर्व से बौद्ध मिशनरियों के द्वारा भारत में लाई गई, जिसके बाद उनका विस्तार अरब और यूरोप जैसे दूर देशों में भी होने लगा।
प्राचीन भारतीय साहित्य में पतंग के बारे में सबसे पहले लिखे गए लेख तेरहवीं शताब्दी के मराठी संत और कवि ‘नामदेव’ की कविताओं में पाए जा सकते हैं। अपनी कविताओं या गाथाओं में, उन्होंने इसे गुड़ी कहा और उल्लेख किया कि पतंगें ‘कागड़’ (कागज) से बनाई गई थी। सोलहवीं शताब्दी के मराठी कवियों जैसे ‘दासोपंत’ और ‘एकनाथ’ के गीतों और कविताओं में भी पतंगों के लिखित विवरण मौजूद हैं, दोनों ने इसे ‘वावदी’ कहा हैं। पश्चिमी भारत के कवियों के साथ-साथ, हिंदी कवि ‘बिहारी’ की रचना ‘सतसई’ में भी अवध क्षेत्र की पतंगों का लिखित वर्णन मिलता है।
सत्रहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि तुलसीदास ने भी अपनी महाकाव्य कविता ‘रामचरितमानस’ में पतंगों का उल्लेख किया और एक किस्सा बताया कि कैसे हनुमान ने प्रभु श्री राम की उस पतंग को पुनः खोज लिया जो इंद्रलोक में उड़ गई थी।
मुगल दौर आते-आते, पतंगबाजी को बच्चों और बड़ों, मुख्य रूप से कुलीन व्यक्तियों के बीच एक खेल में बदल दिया गया था। उस समय के मुगल चित्रों और लघुचित्रों में पुरुषों और महिलाओं दोनों को पतंग उड़ाते हुए दिखाया गया है। मौलाना अबुल हलीम शरर ने अपनी कृति लखनऊ: द लास्ट फेज ऑफ एन ओरिएंटल कल्चर (Lucknow: The Last Phase of an Oriental Culture) में लिखा है कि अठारहवीं शताब्दी में राजा शाह आलम प्रथम के शासनकाल के दौरान पतंगों में रुचि बढ़ी।
मुगल साम्राज्य के पतन के बाद भी पतंगबाजी की परंपरा जारी रही। यह एक मौसमी गतिविधि बनकर उभरी जो उत्तरायण या मकर संक्रांति जैसे त्यौहारों के दौरान और पंजाब क्षेत्र में बसंत पंचमी और बैसाखी पर की जाती थी।
आधुनिक समय की पतंग तब अस्तित्व में आई जब भारत औपनिवेशिक शासन के अधीन था। जानकार मानते हैं कि जब साइमन कमीशन (Simon Commission) लागू किया गया था, तो भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों ने 'साइमन वापस जाओ' शब्दों के साथ सैकड़ों पतंग उड़ाकर इसका विरोध किया था। शायद पतंगबाजी के साथ आजादी के जुड़ाव ने ही स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर पतंगबाजी की परंपरा की शुरुआत की थी।
गुजरात लंबे समय से पतंगबाजी से जुड़ा हुआ है और यहां एक पतंग संग्रहालय भी है, जिसकी परिकल्पना भानु शाह ने की थी और यह ऐतिहासिक पतंगों का खजाना माना जाता है। संग्रहालय में विभिन्न पतंगों और चित्रों के साथ 33 पैनल हैं जिन्हें उन्होंने लंदन में विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय (Victoria and Albert Museum) जैसे स्थानों से एकत्र किया था। यह दुनिया में अपनी तरह के कुछ संग्रहालयों में से एक है। हालांकि मकर संक्रांति के अवसर पर पूरे देश का आसमान रंग बिरंगी पतंगों से ढक जाता है लेकिन इस अवसर पर गुजरात का आकाश अद्वितीय रूप से सुदंर हो जाता है। उपाख्यानात्मक दावों से पता चलता है कि गुजरातियों में यह मान्यता है कि उत्तरायण (मकर संक्रांति) के त्यौहार के दौरान, देवता अपनी छह महीने की लंबी नींद से जागते हैं, इसलिए सौभाग्य तथा समृद्धि लाने के लिए हस्तनिर्मित पतंगों को कृतज्ञता के रूप में उड़ाया जाता है। लोग इस त्यौहार को सूर्य देव को भी समर्पित करते हैं, और उनसे विटामिन डी (Vitamin D) रूपी 'आशीर्वाद' पाने के लिए भी छतों पर जाते हैं। गुजरात में मकर संक्रांति एक ऐसा अवसर होता है जब प्रत्येक घर की छत पर गुजराती दोस्त "काय पो छे" ( मैंने काट दिया है) की प्रत्याशित गूँज के साथ पतंगबाज़ी के मजे लूट रहे होते हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/3CEjNhH
https://bit.ly/3QzUROg
चित्र संदर्भ
1. पतंगबाज़ी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. पतंगों से भरे आसमान को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. चीन में पतंगबाज़ी के इतिहास दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. पतंग उड़ाते बच्चे को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. पतंग संग्रहालय को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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