अवधी भाषा की अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना जो की अवधी के गणमान्य महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा की गयी थी। मलिक मुहम्मद जायसी की यह रचना विश्वविख्यात है, यह रचना पद्मावत नाम से जानी जाती है। जैसा की इस महान काव्य की प्राथमिक कृतियाँ देवनागरी में उपलब्ध नहीं है। उनकी लिपि फारसी नस्तालीक कहलाती है। देवनागरी का रूप इसे बहुत बाद में दिया गया। इस महाकाव्य की भाषा शैली तथा रंगरूप उस कठिन अर्धमाघदी अर्थात् पूर्वी अर्ध माघदी अवधी में है कि प्रत्येक व्यक्ति की समझ में सरलता से नही आ सकती। इस पर विडम्बना यह कि इस में छन्द अलंकार, अप्राप्य हिन्दी उपमाओं व रसों का प्रयोग किया गया है। इस महासागर को पार करने के लिये असाधारण कलात्मक विद्वता तथा दक्षता की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि हिन्दी भाषा व साहित्य के इतिहास में पद्मावत एक कठिन पुस्तक समझी जाती रही है और इसको हिन्दी उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है। यह इतनी महत्वपूर्ण पुस्तक है कि इस पर हिन्दी तथा अंग्रेजी में भी अनेक पुस्तकें हैं परन्तु प्रसिद्ध फ्रान्सीसी उत्तरपूर्व महाविशारद गारसाँ दितासी के व्याख्यानों में रामपुर के दो प्रसिद्ध कवियों इबरत व इशरत का उल्लेख भी मिलता है। जिन्होंने पदमावत को वास्तविक अर्थों में उर्दू कविता का रूप पहली बार दिया है। गारसाँ के कथानुसार इशरत व इबरत में दो कवी हुए हैं जिन्होने हिंदुस्तानी अर्थात् (हिन्दी उर्दू मिश्रित भाषा) में इस राजपूत वीरांगना की गाथा को कविताबद्ध किया है। (खुत्बात 153) वास्तव में मीर जियाऊददीन इबरत् तथा मीर गुलाम अली इशरत दोनो रामपुर के प्रतिनिधि कवियों में थे। सर्वप्रथम इबरत ने नवाब गुलाम मुहम्मद खाँ (जन्म 1762 मृत्यु 1823 ई0) के सेनापति गुलाम मुस्तफा खाँ (प्रसिद्ध नज्जू खां) बहादुर के आग्रह पर इस कथा को कविता का रूप देना आरम्भ किया परन्तु नज्जू खाँ अंग्रेजो व देशद्रोहियों से लड़ते हुए दो जोड़ा के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। इस कारण यह कार्य अधूरा रह गया। इबरत की मृत्यु के 8 वर्ष के उपरान्त कुदर्तुल्ला शौक के आग्रह पर इशरत् ने इसे पूर्ण रूप दिया। इस प्रकार रामपुर (साहित्यिक स्कूल) ने इस काव्य का उर्दू रुपान्तरण करवाया। आज यह खण्ड रामपुर रज़ा पुस्तकालय में सुरक्षित है। 1. राजभाषा पत्रिका, पद्मावत हिंदी का उर्दू रुपांतर, अतीक जीलानी सालिक, रामपुर
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