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दास्तानगोई शब्द दो फारसी शब्दों “दास्तान” और “गोई” से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है, दास्तां या दास्तान बयां करना। इस प्रकार यह शब्द कहानी कहने की कला को संदर्भित करता है। यह उर्दू मौखिक कहानी कला का रूप है, जिसकी उत्पत्ति 13वीं सदी में हुई तथा इसकी फारसी शैली 16वीं शताब्दी में विकसित हुई। रामपुर में लगभग 150 साल पहले “जश्न-ए-बेनज़ीर उत्सव” (कोठी बेनज़ीर में) मनाया जाता था,तथा इसके विवरण को एक दास्तानगोई द्वारा प्रस्तुत किया गया।“जश्न-ए-बेनज़ीर उत्सव”का विवरणमीर यार अली "जान साहिब"(1818-1886) जो कि लखनऊ के एक उर्दू कवि थे, ने 1867-1868 में लिखित रूप में किया था तथा यह विवरण आज रज़ा पुस्तकालय में संग्रहीत है। जान साहिब 1857 की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद साहित्यिक संरक्षण के लिए रामपुर आ गए थे। उनके द्वारा लिखी इस उत्कृष्ट कृति में उन्होंने “जश्न-ए-बेनजीर” का व्यापक वर्णन किया है। इस सार्वजनिक त्योहार की स्थापना 1866 में नवाब कल्ब-ए-अली खान (1832-87) ने अपनी रियासत रामपुर में की थी। यह वार्षिक उत्सव स्थानीय व्यापार और सांस्कृतिक प्रचार के लिए मार्च में आठ दिनों तक चलता था,जिससे कारीगरों और कलाकारों के कई समूह आकर्षित होते थे। तो आइए इस वीडियो के जरिए रामपुर के अतीत की इस कहानी को सुनें तथा फौजिया दास्तानगो और सानेया द्वारा प्रस्तुत रेख़्तिगोई प्रदर्शन पर एक नजर डालें।यह अंतिम महत्वपूर्ण उर्दू रेख्ती ग्रंथों में से एक मुसद्दस तहनीयत-ए-जश्न-ए-बेनज़ीर(Musaddas tahniyat-e-jashn-e-Benazir) पर आधारित है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3C6bdrY
https://bit.ly/3C64Yo5
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