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ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की एक प्रणाली पंचायती राज अर्थात पांच अधिकारियों की परिषद, जिसमें ग्रामीण स्तर पर प्रत्येक
गांव अपनी गतिविधियों के लिए स्वयं उत्तरदाई होता है। भारत में पंचायती राज का इतिहास काफी पुराना है। सर्वप्रथम 2
अक्टूबर 1959 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राजस्थान के नागौर जिले के बग्धारी गांव में
पंचायती राज व्यवस्था लागू की थी। इस व्यवस्था में पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है। पंचायती राज संस्थाएं गांव के
आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय की मजबूती का कार्य करती है और इनको 11वीं अनुसूची में सूचीबद्ध 29 विषयों सहित केंद्र
और राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं के कार्यान्वयन का कार्य सौंपा गया है।
लाख से अधिक की जनसंख्या वाले राज्यों या
केंद्र शासित प्रदेशों में सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था को तीन स्तर में विभाजित किया है:
# ग्रामीण स्तर पर ग्राम पंचायतें
# ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति
# जिला स्तर पर जिला परिषद
हालाँकि पंचायती राज एक सुव्यवस्थित कानूनी ढांचा था फिर भी इसकी सफलता के मार्ग में कई चुनौतियाँ आई। सर्वप्रथम
चुनौती यह थी कि पंचायतों के पास वित्त का कोई मजबूत आधार नहीं है। दूसरी चुनौती यह है कि कई राज्यों में पंचायतों का
निर्वाचन निर्धारित समय में पूरा नहीं हो पाता है। कई पंचायतें जहाँ महिला प्रमुख कार्यरत हैं वे सिर्फ नाममात्र की प्रमुख होती हैं
और कार्य उनके पुरुष रिश्तेदारों के आदेश पर किया जाता है। कई क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन पंचायतों के मामलों में हस्तक्षेप
करते हैं जिससे पंचायतों की कार्यप्रणाली प्रभावित होती है। कई बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जब पंचायतों के निर्वाचित
सदस्य और राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में गांव का विकास
प्रभावित होता है।
इन समस्याओं से निपटने के लिए केंद्र सरकार ग्रामीण विकास के प्रबंधन का विकेंद्रीकरण करने का प्रयास कर रही है।
विकेंद्रीकरण से आशय आमतौर पर सत्ता का हस्तांतरण माना जाता है। केंद्र सरकार के नियंत्रण वाली कार्यकारी एजेंसियों को
राजनीतिक व्यवस्था में ग्रामीण स्तर पर ले जाकर केंद्र सरकार की पहुँच का विस्तार करने के लिए विकेंद्रीकरण किया जाता है।
केंद्र सरकार अपने कार्यालयों का स्थानांतरण करके अपने अधिकार क्षेत्र में विस्तार करती है। उदाहरण के लिए राज्यों में पासपोर्ट
अधिकारियों की नियुक्ति। ग्रामीण विकास के विकेंद्रीकरण से निचले स्तर पर सभी अधिकार और नियंत्रण राजनीतिक
अभिनेताओं को सौंप दिए जाते हैं। इसके अलावा निचले स्तर पर लोगों की आवश्यकताओं के प्रति सरकार की जवाबदारी होती
है। यह राष्ट्रीय एकता को भी मजबूत करने में सहायक होता है। विश्वभर में ऐसा देखा गया है कि केंद्र सरकार देश के अलग-अलग
क्षेत्रों में हो रहे अलगाववादी आंदोलनों और क्षेत्रीय स्वायत्तता की मांगों से निपटने के लिए विकेन्द्रीकरण को एक रणनीति के रूप
में देखती है।
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के उपकरण के रूप में ग्राम पंचायतों को भारतीय परंपरा, संस्कृति और परिवेश का महत्वपूर्ण हिस्सा
माना जाता है। महात्मा गांधी जी इसे “आत्मनिर्भर ग्राम गणराज्य” की उपमा देते थे। पंचायती राज व्यवस्था को संविधान के
73वें संशोधन द्वारा एक व्यवस्थित कानूनी ढांचा प्रदान किया गया है। जिसमें गांव और मध्यवर्ती स्तरों पर पंचायतों की स्थापना
के लिए संविधान के भाग IX को भी जोड़ा गया है। यह 73वां संशोधन तत्कालीन जम्मू और कश्मीर राज्य में लागू नहीं किया
गया था।
भारत में ग्रामीण विकेंद्रीकरण के पिछले प्रयास कुछ खास सफल नहीं रहे। जिसके कारण पंचायती राज संस्थाएं गैर-कार्यात्मक
रही। अपर्याप्त नीतिगत, विधायी और संस्थागत वातावरण के चलते विकेंद्रीकरण को असफलता का सामना करना पड़ा। वर्ष
1995 में राष्ट्रपति की सहमति पर 73वें संवैधानिक संशोधन और पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम
1996 ने स्थानीय लोगों के लिए विकेंद्रीकरण के लिए अनिवार्य प्रावधान स्थापित किए गए। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:
(i) जिला, ब्लॉक और ग्राम स्तरों पर एक त्रि-स्तरीय स्थानीय सरकारी संरचना का निर्माण;
(ii) राज्य चुनाव आयोगों और राज्य वित्त आयोगों का गठन;
(iii) अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए सीट आरक्षण के साथ नियमित पंचायती राज
चुनाव;
(iv) स्थानीय सरकार पर नियंत्रण करने के लिए ग्राम सभा की स्थापना, और
(v) स्थानीय सरकारों के खातों की आवधिक लेखा परीक्षा।
वर्तमान स्थिति यह है कि केंद्र द्वारा शुरू किया गया यह ग्रामीण विकेंद्रीकरण अब राज्य का मामला बन गया है। संशोधन में
वर्णित सभी व्यवहारिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राज्यों को विकेंद्रीकरण के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इसके
अलावा राज्य सरकारों को स्थानीय आकस्मिकताओं को ध्यान में रखते हुए संशोधन के उद्देश्यों को राज्य विधान में बदलने का
विवेक दिया गया है। राज्यों ने अधिनियम और सरकारी आदेशों के माध्यम से विकेंद्रीकरण के विचार को आगे बढ़ाया है। किंतु
इसमें अभी भी कुछ त्रुटियां शेष हैं। उदाहरण के लिए राज्य अधिनियमों के तहत पंचायती राज संस्थाओं की शक्ति की सीमा और
पंचायती राज संस्थाओं के विभिन्न स्तरों के उत्तरदायित्वों को स्पष्ट नहीं किया है और न ही पंचायती राज संस्थाओं और प्रशासन
के बीच क्षेत्राधिकार संबंधी मुद्दों को स्पष्ट किया है।
सरकार के इस विकेंद्रीकरण स्वरूप की कई खूबियाँ भी हैं। इसके कारण सभी राज्य, राजनीतिक परिपक्वता के समान स्तर पर
पहुँच रहे हैं। इसके अलावा इस राजनीतिक ढांचे में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी भी देखी जा सकती है। भिन्न-भिन्न राज्यों में
सापेक्ष आकार, भूमिका और ग्राम, ब्लॉक और जिला पंचायतों के महत्व में भिन्नता देखी गई है। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश ने
जिला स्तर को प्राथमिकता दी है वहीं दूसरी ओर राजस्थान ने ब्लॉक स्तर को अधिक महत्व दिया है। इसके अलावा अन्य कई
राज्यों ने ग्राम पंचायतों पर ध्यान केंद्रित किया है। राज्यों के बीच बुनियादी मॉडल में भी कार्यान्वयन में अंतर देखा गया है। केरल
राज्य ने वित्तीय संसाधन पंचायती राज संस्थाओं को संयुक्त अनुदान के रूप में हस्तांतरित किया है। महाराष्ट्र क्षेत्रीय कर्मचारियों
को पंचायती राज संस्थाओं के नियंत्रण में लाने का प्रयास कर रहा है। भारत में विकेंद्रीकरण की स्थिति अन्य विकासशील देशों से
काफी मिलती-जुलती है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3PkJt6y
https://bit.ly/3QyzZW4
https://bit.ly/3Pj5x1k
चित्र संदर्भ
1. 1957 के दौरान बैठी एक पंचायत को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. मध्य प्रदेश के एक ग्रामीण गांव में एक ग्राम सभा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. पंचायत मीटिंग को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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