तीव्रता से विलुप्‍त होती भारतीय स्‍थानीय भाषाएं व् उस क्षेत्र से संबंधित ज्ञान का भण्‍डार

रामपुर

 17-05-2022 02:11 AM
ध्वनि 2- भाषायें

1971 की जनगणना के बाद, भारत सरकार ने निर्णय लिया कि कोई भी स्वदेशी भाषा, जो 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाती है, अब भारत की आधिकारिक भाषाओं की सूची में नहीं मानी जाएगी। जिसके बाद देश में कई भाषाएं और बोलियां विलुप्‍त हो गयी या फिर उन्‍हें अपूरणीय क्षति हुयी। और भाषाओं की हानि हमेशा न केवल किसी देश की विरासत के लिए बल्कि पूरे मानव इतिहास के लिए एक सांस्कृतिक क्षति होती है।
गुजरात के तेजगढ़ में भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर, वडोदरा (Bhasa Research and Publication Centre, Vadodara) और आदिवासी अकादमी के संस्थापक-निदेशक देवी के अनुसार, 1961 से अब तक भारत से 220 भाषाएं विलुप्‍त हो गयी हैं और अगले 50 वर्षों में 150 अन्य भाषाओं के समाप्‍त होने की संभावना है। 2018 में यूनेस्को (UNESCO) की एक रिपोर्ट (report) में कहा गया था कि भारत में 42 भाषाएं विलुप्ति की ओर बढ़ रही हैं। और ये 10,000 से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती थी। भारत में अंडमान और निकोबार द्वीप समूह से 11, मणिपुर से सात, हिमांचल प्रदेश से 4 बोलिया लुप्‍तप्राय हैं। ओडिशा से आदिवासी संस्कृति और विरासत में समृद्ध राज्य को भी भाषा विलुप्त होने के गंभीर खतरे का सामना करना पड़ रहा है।
यह राज्‍य लगभग 60 जनजातियों, 21 आदिवासी भाषाओं और 74 बोलियों का घर है, जो कि भाषाई विविधता में अत्यधिक योगदान करते हैं और यह केवल यहां बोली जाती हैं। इन भाषाओं के विलुप्त होने के खतरे के कारण, ओडिशा सरकार ने आदिवासी बच्चों द्वारा सामना की जाने वाली भाषा बाधाओं की समस्‍याओं को हल करने हेतु 2006 में शुरू किए गए बहुभाषी शिक्षा (एमएलई) (MLE) कार्यक्रम के लिए 3,385 आदिवासी भाषा शिक्षकों की नियुक्ति की।देवी के अनुसार, पिछले 60 वर्षों में, अंडमान में बो भाषा और सिक्किम में मांझी भाषा सहित लगभग 250 भाषाएं देश से गायब हो गईं। उनका कहना है कि एक समय में अधुनी, दीची, घल्लू, हेल्गो, कटगी नामक भाषाएं हुआ करती थीं। विशेषज्ञों का मानना ​​है कि जब कोई भाषा मर जाती है, तो उस क्षेत्र से संबंधित ज्ञान का भण्‍डार भी समाप्‍त हो जाता है या विलुप्‍त हो जाता है। इस प्रकार विश्‍व के इतिहास को पलटने का एक अनोखा तरीका भी खो जाता है। भाषा के विलुप्‍त हो जाने के साथ, वक्ता विभिन्न भाषाओं और क्षेत्रों में पलायन करना शुरू कर देते हैं। 1951 की जनगणना रिपोर्ट में कुल मिलाकर 784 भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया था। 14 संवैधानिक भाषाओं के अलावा, इसने 23 जनजातीय भाषाओं (या बोलियों) को एक लाख या उससे अधिक बोलने वालों के साथ, 24 अन्य भारतीय भाषाओं (या बोलियों) को 1लाख और उससे अधिक बोलने वालों के साथ, और 720 भाषाओं या बोलियों को कम वक्ताओं के साथ सूचीबद्ध किया गया था। प्रत्येक 1 लाख से अधिक - कुल मिलाकर 28.6 लाख लोगों द्वारा बोली जाती है, जिनमें से अधिकांश पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में (15.43 लाख) हैं। मध्य भारत में अन्य 6.16 लाख, उत्तर पश्चिमी भारत में 3 लाख, दक्षिणी भारत में 2.1 लाख, पश्चिमी भारत में 81,172, उत्तरी भारत में 94,491 और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में 12,828 वक्ता हैं।
1961 की जनगणना में 1,652 भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया था, हालांकि बाद में कुछ बोलियों को भाषाओं के तहत गिने जाने पर आंकड़ों को 1,100 पर युक्तिसंगत बनाया गया था।असम के उत्तरी गुवाहाटी के एक शोधकर्ता और भाषाविद् पलाश कुमार नाथ कहते हैं"जब कोई भाषा मरती है, तो उससे जुड़ी कहानियां, गीत, परंपराएं और ज्ञान भी मर जाते हैं। जब आप किसी भाषा को जीवित रखते हैं, तो आप लोगों के समूह की पहचान, संस्कृति और परंपरा को जीवित रखते हैं”। लुप्तप्राय के रूप में पहचानी जाने वाली अधिकांश भारतीय भाषाएँ तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार से संबंधित हैं। 2001 की जनगणना में जिन 122 भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया उनमें तिब्बती-बर्मी परिवार की 66 भाषाएँ शामिल थीं, जिनमें कुल मिलाकर 1 करोड़ से अधिक वक्ता थे। इनमें से केवल दो भाषाओं, मणिपुरी और बोडो को अनुसूचित भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है। लेकिन कई और भी हैं जो असूचीबद्ध हैं। उत्तरी पश्चिम बंगाल में भी उनमें से कई हैं।
भारत, भाषाई विविधता में दुनिया का सबसे समृद्ध देश है किंतु इसके साथ ही, छोटी भाषा बोलने वालों के प्रति सरकार की उदासीनता का गवाह भी है। भले ही भारत में पांच अलग-अलग परिवारों - इंडो-आर्यन (Indo-Aryan), द्रविड़ियन (Dravidian), तिब्बती-बर्मन (Tibeto-Burman), ऑस्ट्रो- एशियाटिक (Austro-Asiatic) और अंडमानी (Andamanese)की भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि ज्यादातर इंडो-आर्यन ने उच्च विकास दर दिखाई है, जबकि अधिकांश लुप्तप्राय भाषाएं चार अन्य भाषा परिवारों से संबंधित हैं, विशेष रूप से तिब्बती- बर्मन, ऑस्ट्रो-एशियाई और अंडमानी। आनंदोराम बोरूआ इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट एंड कल्चर (Anundoram Borooah Institute of Art and Culture) के सहायक प्रोफेसर नाथ, ताई भाषा परिवार से संबंधित कुछ स्वदेशी भाषाओं के पुनरुद्धार और पूर्वोत्तर भारत में बोली जाने वाली ताई-खमयांग और ताई फाके के रूप में सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं। वह सिंगफो भाषा के पुनरुद्धार की दिशा में भी काम कर रहे हैं जो तिब्बती- बर्मन भाषा परिवार से संबंधित है।2006 में, नाथ ने सिंगफो, तांगसा और तुरुंग और ताई फेके समुदायों के साथ एक शोध परियोजना पर शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम के साथ काम किया ताकि उनकी भाषाओं का दस्तावेजीकरण किया जा सके। 2014 में, उन्होंने ताई खमयांग भाषा के दस्तावेजीकरण का काम संभाला।
इन्‍होंने इतिहास, परंपरा, लोक कथाओं, गीतों, पांडुलिपियों, अनुष्ठानों आदि से संबंधित मौखिक और लिखित सामग्री का दस्तावेजीकरण करना शुरू किया। समुदाय के सदस्यों की मदद से, बच्चों के लिए सिंगफो और ताई-खमायंग भाषा सीखने में मदद करने के लिए उन्होंने कहानी की किताबें तैयार कीं। 2009 में, समुदाय से एकत्रित सामग्री का उपयोग करते हुए, नाथ और उनके समुदाय के सदस्यों की टीम ने तिनसुकिया जिले के केटेटोंग गांव में सिंगफो मदर टंग स्कूल (Singpho Mother Tongue School) शुरू किया।

संदर्भ:

https://bit.ly/37Dabr4
https://bit.ly/3wq8sOe
https://bit.ly/3l5KVwJ

चित्र संदर्भ

1  विभिन्न भाषाओँ को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. भारत में भौगोलिक क्षेत्रों के आधार पर भाषाओँ को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. विश्व में भारतीय भाषाओं के मूल वक्ताओं की संख्या को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)



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