रामपुर के नवाब मुहम्मद कल्ब-ए-अली खान (1865-1887) अपने खानदान में सबसे प्रबुद्ध माने जाते थे। अरबी साहित्य के पंडित होने के साथ-साथ वे फारसी और उर्दू में कविता भी लिखते थे। उन्होंने अपने राज्यकाल के समय बहुत से कलाओं को बढ़ावा दिया। पुरावस्तु, पुरानी क़िताबें एवं मुग़ल काल के दस्तावेज़ और चीजें पाने के लिए वे देश-विदेश की सैर करते थे। कहा जाता है की ऐसे ही एक सफ़र के वक़्त उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में पहली बार वहाँ का बना हलवा चखा। वह उनको इतना पसंद आया की वह हलवा बनाने की कृति जानने वाले एक इंसान को लेकर भारत में आये और आज यह हलवा रामपुर की ख़ासियत बन चुका है। हब्शी हलवा ये नाम इसके उद्गम स्थान के साथ-साथ इसके अनूठे रंग से प्रेरित है। हल्का काला-कत्थई रंग का ये हलवा सिर्फ रामपुर ही नहीं बल्कि दिल्ली और विदेश, खास कर सऊदी राष्ट्रों में काफ़ी चाव से खाया जाता है। माना जाता है की रामपुर में इस हलवे की पहली दुकान हकीम अब्दुल हकीम खान ने नसरुल्ला खां बाज़ार में करीब डेढ़ सौ साल पहले लगाई थी। इसे दूध, देसी घी, गेहूं से बना समक, सूजी और खूब सारा सुखा मेवा मिलाकर बनाया जाता है। इसका सही और पूर्ण व्यंजन बनाने का तरीका सिर्फ कुछ ही लोग जानते हैं। रामपुर किचन जो रामपुर के व्यंजनों के लिए प्रसिद्ध हैं वे दिल्ली के रेख़्ता महोत्सव में हर साल हब्शी हलवा रखते हैं। रामपुर का खाना खास करके हब्शी हलवा अगर उसे अच्छा बढ़ावा मिला तो पुरे देश में प्रसिद्ध हो देश की रूचि में वृद्धि करेगा। 1. रज़ा लाइब्ररी, रामपुर, राज भवन, लखनऊ, उत्तर प्रदेश और भगवन शंकर (आई.ए.एस.), डाइरेक्टर, नॉर्थ सेंट्रल ज़ोन कल्चरल सेंटर, इलाहाबाद 2. http://abyazk.blogspot.in/2009/05/blog-post_31.html
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