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किसी एक स्थान से दूसरे स्थान अथवा गंतव्य तक की दूरी तय करने को यात्रा अथवा सफर कहा
जाता है। यदि एक आम इंसान सफर करेगा तो वह अपने खुद के अनुभवों में इजाफा करेगा, यह भी
संभव है की जीवन को देखने के प्रति उसका नजरिया ही बदल जाए। इस्लामिक मान्यता के
अनुसार आज से हजारों साल पहले पैगंबर मुहम्मद ने भी बेहद लंबा सफर तय किया था। इस
चमत्कारी सफर को इसरा और मेराज (Isra and Miraj ) के प्रसंग से संदर्भित किया जाता है।
इसरा और मिराज एक महत्वपूर्ण सफ़र है, जो पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने
जीवन के एक बहुत ही महत्वपूर्ण चरण में तय किया था। इसरा और मिराज (अरबी: لإسراء والمعرا)
पैगंबर मुहम्मद द्वारा रात में तय किये गए सफर के दो हिस्से हैं। इस्लाम के अनुसार पैगंबर
मुहम्मद (570-632) ने मस्जिदे हराम से अल्लाह तक का सफर एक ही रात में तय कर दिया था।
इस्लाम के भीतर इस यात्रा को शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों माना जाता है। इस सफर का
संक्षिप्त वर्णन कुरान सूरह अल-इसरा (Qur'an Surah al-Isra) में मिलता है। माना जाता है
यात्रा के पहले चरण में नबी ने मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़सा (बैतुल मक़्दिस) तक की यात्रा
की। मस्जिदे हराम मक्का और मस्जिदे अक़सा फलस्तिन में स्थित है। दोनों के बीच की दूरी का
समय चालीस दिन का माना जाता है, लेकिन अल्लाह के चमत्कार से यह सफर केवल एक रात के
थोड़े से हिस्से में तय हो गया। पैग़म्बर मुहम्मद के सफर के पहले चरण को इस्रा कहा जाता है,
यात्रा के दूसरे चरण में नबी (सल्ललाहो अलैहि वसल्लम) को मस्जिदे अक़सा से स्वर्ग में अल्लाह
के पास ले जाया गया। इस दूसरे चरण को मिराज कहा जाता है, इसरा का शाब्दिक अर्थ रात का
सफर होता है। और अल-इसरा का मतलब एक विशेष रात के सफर से है। वही मेराज का मतलब
होता है, ऊपर उठना या आरोहण।
मुहम्मद का यह अलौकिक सफर तब शुरू हुआ, जब उनके जीवन के दो महत्वपूर्ण लोग और उस
समय उनके सबसे बड़े समर्थक उनकी पत्नी ख़दीजा, और दूसरे थे उनके चाचा अबू तालिब इस
दुनिया से छोड़कर जा चुके थे।
मुहम्मद साहब के जीवन के इस दौर में उन्होंने कई समस्याओं भी झेला, जब उनके अपने कुरैश
समाज के लोगों ने उनका पूर्ण बहिष्कार कर दिया, और उन्हें समुदाय से निष्कासित कर दिया।
चूँकि मक्का, सऊदी अरब में रेगिस्तान के बीचों-बीच बसा है, इसलिए उस ज़माने में अगर समुदाय
द्वारा किसी व्यक्ति को निष्कासित किया जाता तो, उस व्यक्ति को अपना जीवन मरुस्थलीय
भूमि पर बिताना पड़ता था। जिस कारण वह व्यक्ति रेगिस्तान के कठिन वातावरण में स्वंय ही
अपने प्राण त्याग देता था। लेकिन जीवन के इतने कठिन समय में भी मुहम्मद का अल्लाह से
विश्वास कभी नहीं हटा। अपनी स्वर्ग यात्रा दौरान पैगंबर को कई निर्देश प्राप्त हुए, जिनमें दिन में
पांच बार नमाज़ अनिवार्य करना भी शामिल था। इसके बाद, पैगंबर स्वर्ग से यरूशलेम लौट आए
और वहां से मक्का में पवित्र मस्जिद में वापस लौट आये। इस विषय पर कई रिपोर्टों से पता चलता
है कि, पैगंबर को इस अवसर पर स्वर्ग और नर्क का निरीक्षण करने के लिए भी सक्षम किया गया
था।
माना जाता है की जब पैगंबर ने इस असाधारण यात्रा की घटनाओं को अगले दिन मक्का में लोगों
को सुनाया, तो अविश्वासियों ने पूरी कहानी को पूरी तरह मनोरंजक बता दिया। हालाँकि कुरान
स्पष्ट शब्दों में बताता है कि पैगंबर, मक्का से यरुशलम गए और फिर रात के दौरान अल्लाह की
शक्ति के कारण (बिना किसी विमान के उपयोग के) मक्का लौट आए।
प्रश्न यह भी उठता है की क्या यह यात्रा रात के समय में आध्यात्मिक अवस्था में की गई थी जबकि
पैगम्बर सो रहे थे, अथवा उन्होंने भौतिक अवस्था में अपने शरीर के साथ यह यात्रा की? इन प्रश्नों
का समाधान भी कुरान के पाठ द्वारा ही किया गया है। उद्घाटन वक्तव्य: "पवित्र वह है जो रात में
अपने सेवक को पवित्र मस्जिद से दूर मस्जिद तक ले गया ..." (श्लोक 1) स्वयं इंगित करता है कि
यह एक असाधारण घटना थी जो ईश्वर की अनंत शक्ति के कारण हुई थी।
हदीस के कुछ विद्वानों के अनुसार यह यात्रा रजब की 27 तारीख को पैगंबर मुहम्मद के मक्का से
मदीना प्रवास से ठीक एक साल पहले हुई थी। जो इस्लामी कैलेंडर के अनुसार रजब के माह (सातवाँ
महीना) में 27वीं तिथि को मनाया जाता है। इसे आरोहण की रात्रि के रूप में मनाया जाता है, और
मान्यताओं के अनुसार इसी रात, मुहम्मद ने एक दैवीय जानवर बुर्राक़ पर बैठ कर सातों स्वर्गों
(आसमानों) के भ्रमण किये थे।
जब कि इस त्यौहार मनाने का कोई जवाज़ नहीं है। लेकिन मुहम्मद के इस आसमानी सफ़र को
लेकर महत्वता देते हुवे इस रात को हर साल त्यौहार के रूप में मनाते हैं। आज दुनियाभर के
मुसलमान इस रात को वैकल्पिक नमाज़ अदा करके मनाते हैं, और कई मुस्लिम देशों में, बिजली
की रोशनी और मोमबत्तियों के साथ शहरों को रोशन करके इसे एक त्यौहार के रूप में मनाया जाता
है। इस्लाम में कई संप्रदाय पैग़म्बर मुहम्मद के जन्मदिन को भी बड़ी ही धूमधाम से मानते हैं।
उनके जन्म के अवसर को मावलिद, मावलिद ए-नबी ऐश-शरीफ या ईद मिलाद उन नबी के नाम
मनाया जाता है। यह इस्लामी कैलेंडर में तीसरे महीने में 12वीं रबी अल-अव्वल को मनाया जाता
है।
दुनिया के अन्य देशों की भांति हमारे भारत के मुस्लिम समुदाय में भी यह जश्न के तौर पर मनाया
जाता है। विशेष तौर पर हमारे रामपुर शहर में इसकी रौनक देखते ही बनती है, जहां मुहम्मद को
सम्मानित करने के लिए रचित कविता और गीतों का पाठ किया जाता है, और पूरे शहर में जुलूस
का माहौल होता है। सऊदी अरब और कतर को छोड़कर दुनिया के अधिकांश मुस्लिम-बहुल देशों में
मौलिद को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मान्यता प्राप्त है। भारत और इथियोपिया (Ethopia) जैसे
बड़ी मुस्लिम आबादी वाले कुछ गैर-मुस्लिम बहुसंख्यक देशों में भी इसे सार्वजनिक अवकाश के
रूप में मान्यता प्राप्त हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/3j1BvBJ
https://bit.ly/3n2PWHg
https://www.britannica.com/event/Miraj-Islam
https://en.wikipedia.org/wiki/Mawlid
https://www.youtube.com/watch?v=d8W_P7o01cY
ts
चित्र संदर्भ
1. पैगंबर मुहम्मद के स्वर्ग यात्रा के दृश्यों को संदर्भित करता एक चित्रण (youtube)
2. मस्जिदे हराम का एक चित्रण (flickr)
3. अल-अक्सा मस्जिद का एक चित्रण (wikimedia)
4. वर्णनात्मक इसरा और मेराज का एक चित्रण (wikimedia)
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