रामायण और महाभारत न केवल भारत के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य के रूप में माने जाते हैं,
बल्कि देश के करोड़ों लोग इसके विभिन्न पात्रों को आदर्श के रूप में अनुसरित करते हैं।उदाहरण के
लिए जब भी किसी व्यक्ति को कर्त्तव्य मार्ग पर चलने की सलाह दी जाती है, तो उसे प्रभु श्री राम का
उदाहरण दिया जाता है। और जब बात धर्म और रिश्तों में से किसी एक का चुनाव करने की आती है,
तो वासुदेव श्री कृष्ण का भागवत गीता प्रसंग याद कराया जाता है। दो अलग-अलग कालखंडों, त्रेता
युग और द्वापरयुग में रचित इन महाकाव्यों के महानायक वासुदेव श्री-कृष्ण और प्रभु श्री राम के
जीवन से आज भी बहुत कुछ सीखा और अनुसरित किया जा सकता है। दोनों को धरती पर ईश्वर
का मानव अवतार माना जाता है, और समय-समय पर इनके गुणों की तुलना भी की जाती रही है।
राम और कृष्ण दो अलग-अलग व्यक्तित्व थे। उनका समय, उनके चरित्र, जीवन के प्रति उनका
दृष्टिकोण, उनकी परिस्थितियाँ सभी एक दूसरे से भिन्न थीं। इसलिए आम तौर पर उनकी तुलना
करना बहुत मुश्किल प्रतीत होता है। परंतु हिंदू समाज में चमत्कार, शक्ति प्रदर्शन, रूप और
व्यावहारिक तौर पर कई मायनों में उनकी तुलना की जाती रही है। श्री राम के जीवन का विवरण
महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण और श्री कृष्ण के जीवन का विवरण भागवत पुराण, पद्म
पुराण और महाभारत में देखने को मिलता है। दोनों दिव्य पुरुषों में समानताओं के आधारबिंदु
निम्नवत हैं
निःस्वार्थता :
सनातन धर्म में निःस्वार्थता अर्थात बिना किसी फल की उपेक्षा रखे कर्म करने को वरीयता दी गई
है। प्रभु श्री राम और कृष्ण, दोनों ने अपनी मानव जीवन की विभन्न लीलाओं में निस्वार्थ स्वभाव
को बार-बार साबित किया। अपने पिता के आदेश पर अयोध्या के सिंहासन को त्यागकर श्री-राम
चौदह वर्ष के लिए वनों में चले गए। इस बीच वह किष्किंधा और लंका को विजयी करने के पश्चात
वहां शासन भी कर सकते थे, परंतु वह उन सिंहासनों पर यथोचित राजाओं को रखते हैं, और आगे
बढ़ जाते हैं। उनके निःस्वार्थ स्वभाव का आंकलन इस प्रसंग से भी लगाया जा सकता है की, उन्होंने
चौदह वर्ष वनवास काटने के पश्चात अपने गृह राज्य अयोध्या लौटने से पूर्व वहां हनुमान को यह
जानने के लिए भेजते हैं, की कहीं यदि, भरत राम के लौटने से रत्ती भर भी असंतुष्ट प्रतीत होते, तो
वह अयोध्या वापस न आते। श्री राम की निस्वार्थता की पराकाष्ठा उनके द्वारा किया गया सर्वोच्च
बलिदान है, जिसमें वह अपने नागरिकों की खातिर अपनी प्यारी गर्भवती पत्नी माता सीता का
त्याग कर देते हैं।
प्रभु श्री राम की भांति श्री कृष्ण का जीवन भी निःस्वार्थता का पूरक माना जा सकता है। अपने ही
मामा कंस का वध करने के पश्चात वह उग्रसेन (कंस के पिता) को सिंहासन पर स्थापित कर देते हैं।
धर्म की स्थापना करते हुए वह अनेक अधर्मी राजाओं का वध करते हैं, परंतु उन्होंने हमेशा सिंहासन
पर पात्र और योग्य उत्तराधिकारी को ही स्थापित किया।
विचारों की समानता और संतुलन :
कितनी भी विषम परिस्थियाँ और कितने भी कठिन आदेश क्यों न हो प्रभु श्री राम ने उन्हें सदा
शीश झुकाकर सहर्ष स्वीकार किया। यहाँ तक की जब स्वयं उनके भ्राता लक्ष्मण और उनके पिता
दशरथ द्वारा जंगल में जाने के बजाय विद्रोह करने और सिंहासन लेने के लिए प्रेरित किया गया,
तो उन्होंने मना कर दिया। जब लक्षमण सेना के साथ राम को मनाने के लिए जंगल में उनके पीछे
आते हैं, तो लक्षमण को संदेह होता है और वे क्रोधित हो जाते हैं। इस पर श्री राम ही उनके क्रोध को
शांत करते हैं। जब रावण के भाई विभीषण समर्पण के लिए आते हैं, तो वह उन्हें मारने के बजाय
सहर्ष उसे एक मित्र के रूप में स्वीकार करते हैं। बेशक ऐसी घटनायें भी घटित हुई है, जब प्रभु श्री
राम को क्रोध आया हो और वे आशंकित भी हुए हों।
जैसे पक्षीराज जटायु के बारे में वह पहले ये मान
लेते है, की यह वही राक्षस है, जिसने माता सीता का अपहरण किया है। जबकि वास्तव में उसने
उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की थी। वे समुद्र पर भी क्रोधित हो जाते हैं, क्योंकि वह उन्हें लंका जाने
हेतु मार्ग प्रसस्थ नहीं कर रहा था। श्री राम ने कई बार सामान्य मानवीय विशेषताओं को व्यक्त
किया है, परंतु अपना संतुलन बनाए हुए, उन्होंने हर बार इन मानवीय कमजोरियों पर विजय प्राप्त
की है।
देवकी नंदन श्री कृष्ण भी हमेशा शांत रहने की प्रवृति के लिए विख्यात हैं, उदाहरण के लिए जब
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में शिशुपाल द्वारा उन्हें निरंतर अपशब्द कहे जाते हैं, तब भी वे यकायक
उत्तेजित नहीं होते। वह शिशुपाल की माँ को दिए गए वचन (शिशुपाल के 100 पापों को क्षमा करने
का) का शांति से मान रखते हैं, और उसके 100 अपराध पूरे होने के पश्चात् ही उसका वध करते हैं।
विनम्रता:
श्री राम के पास अपार शक्ति और अकूत संपदा थी, परन्तु इसके बावजूद उन्होंने कभी अहंकार
प्रकट नहीं किया। उन्होंने शबरी के जूठे बेरों को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने महाबली बाली के
वध का भी अहंकार न जताया। वे विनम्र है, फिर भी दृढ़ है।
कृष्ण की विनम्रता के भी कई प्रसंग लिखे गए हैं - चाहे वह पांडवों के वन निवास की यात्रा सीमित
संसाधन में जीवन यापन हो या दुर्योधन द्वारा दिए गए शाही आतिथ्य के बजाय विदुर के साथ
रहने की उनकी प्राथमिकता हो।
राम और कृष्ण दोनों ही बलवान किंतु विनम्र हैं। इस विशेषता के संबंध में, राम और कृष्ण दोनों
समान हैं।
मानवीय संबंध :
मानव अवतार में प्रभु श्री राम रिश्तों के दायित्व को बखूबी निभाते हैं। एक पुत्र के रूप में वे पिता के
आदेश पर 14 वर्षों का वनवास सहर्ष स्वीकार करते हैं। भाई के रूप में वह अपने भ्राताओं के सबसे
बड़े मार्गदर्शक हैं। एक पति के रूप में वह अपनी पत्नी को प्रेम करने वाला, वफादार और हर
परिस्थिति में उसके साथ खड़े रहने वाले हैं। वह मित्रता का भी पर्याय हैं, जैसा कि हनुमान, सुग्रीव,
विभीषण आदि के साथ उसकी मित्रता में देखा जाता है। एक दुश्मन के रूप में भी, वह परिपूर्ण है -
वह रावण को गलतियों को सुधारने के कई मौके देता है। परंतु सबसे जरूरी वह एक राजा के रूप में,
वह अपनी प्रजा को अपने बच्चों के रूप में मानते हैं, और उनका कल्याण सबसे महत्वपूर्ण चिंता का
विषय है।
दूसरी ओर श्री कृष्ण भी मानवीय रिश्तों में माहिर हैं।
राधा और गोपियों संग उनकी रासलीला
जगजाहिर है। मित्र के रूप में भी वह अर्जुन के लिए तारणहार साबित होते हैं।कौरवों के प्रति उनकी
सहिष्णुता, सभी मानवीय संबंधों के लिए उनकी गहरी समझ के उदाहरण हैं। शत्रु के रूप में कृष्ण
भी पूर्ण हैं। वह अपने दुश्मनों के लिए अपनी गलतियों को सुधारने के लिए हमेशा विकल्प खुले
रहते हैं।
भगवान राम और भगवान कृष्ण दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार हैं। फिर भी, वे अलग हैं और
दोनों के व्यक्तित्व में अद्वितीय गुण हैं। भगवान राम, एक आदर्श व्यक्ति (पुरुषोत्तम) की
विशेषताओं को संदर्भित करते हैं। वही वासुदेव कृष्ण ने पथ स्नान की भूमिका निभाई। वह चाहते
तो एक ही दिन में पूरा कुरुक्षेत्र युद्ध समाप्त कर सकते थे, परंतु इसके बजाय, उन्होंने पांडवों के
माध्यम से उन्हें और हमें निर्देशित किया, ताकि सभी जान सकें कि जीवन में किस प्रकार संघर्षों का
सामना करना है। रामायण में श्रीराम को उनके अपने परिवार ने चुनौतियां दी थी, जबकि
महाभारत में भगवान कृष्ण को समाज द्वारा दी गई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था, न कि
अपने परिवार के सदस्यों से। हालांकि दोनों ही स्थितियों में इन दोनों को अपनी-अपनी पत्नियों का
पूरा समर्थन मिला। भगवान राम जिन्हें एक पुरुष महिला के रूप में माना जाता है, ने अपने पूरे
जीवनकाल में केवल एक महिला देवी सीता से प्रेम किया जबकि, भगवान कृष्ण के मामले में,
उन्होंने राधा रानी से शादी नहीं की, इस तथ्य के बावजूद कि वह उनकी पत्नी थीं। इतना ही नहीं,
भगवान कृष्ण की आठ प्रमुख रानियां थीं। इसके अलावा, उन्हें एक ऐतिहासिक घटना में 16,100
महिलाओं से शादी करनी पड़ी।
संदर्भ
https://bit.ly/3xQ0Hjt
https://bit.ly/2VOzi4x
चित्र संदर्भ
1. अपनी माताओं के संग में बालरूपी कृष्णा और श्री राम एक चित्रण (Pixels,flickr)
2. लक्षमण, घायल जटायु और प्रभु श्री राम का एक चित्रण (flickr)
3. राधा-कृष्ण और गोपियाँ उत्सव मनाने के लिए एकत्रित होती हैं जिसका एक चित्रण (wikimedia)
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