मनुष्य आदिकाल से ही स्वास्थ्य, बीमारी और मृत्यु के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए पशुओं का उपयोग करता रहा है।प्राचीन समय से ही मानव अस्तित्व के लिए संक्रामक रोगों के कारण होने वाली महामारियों के उपचार के लिए जानवरों पर किए गए शोध आवश्यक हुआ करते थे।उदाहरण के लिए, चेचक के टीके के विकास और उत्पादन के दौरान पशुओं पर किए गए अनुसंधान ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसके कारण अंततः 1980 में इसका उन्मूलन संभव हुआ, हालांकि सबसे दुखद बात यह है कि 12,000 साल तक बिना किसी उपचार की वजह से चेचक से लगभग 300-500 मिलियन लोगों की मृत्यु हुई। इसी तरह,लगभग चालीस वर्षों के बंदरों और चूहों पर किए गए शोध ने 1950 के दशक में पोलियो (Polio) के प्रभावी टीके को विकसित किया, जिसकी वजह से लाखों लोगों की जान बचाई गई और अधिकांश महाद्वीपों से इस बीमारी का उन्मूलन किया गया।यद्यपि प्राचीन भारत और चीन में संक्रामक रोग से लड़ने के लिए विविधता की प्रक्रिया का उपयोग किया गया था, पहला वास्तविक चेचक का टीका 1796 में एक अंग्रेजी चिकित्सक एडवर्ड जेनर (Edward Jenner) द्वारा विकसित किया गया था।वहीं 1879 में, लुई पाश्चर (Louis Pasteur) ने चिकन हैजा के लिए पहली प्रयोगशाला टीके को विकसित किया।
एक जीवित क्षीणन टीके का उपयोग करके पाश्चर ने एंथ्रेक्स (Anthrax) के लिए एक टीका विकसित करने में मदद की जिसका भेड़, बकरियों और गायों में सफलतापूर्वक उपयोग किया गया था। 1885 में, पाश्चर ने खरगोशों में पाए जाने वाले विषाणु को क्षीण करके, रेबीज (Rabies) के लिए अपना पहला मानव टीका विकसित किया।पाश्चर के जीवित-क्षीण रेबीज के टीके के बाद के वर्षों में, वैज्ञानिकों ने डिफ्टेरिया (Diphtheria), प्लेग (Plague), तपेदिक, पीलिया, खसरा, कण्ठमाला, खसरा, छोटी चेचक और रोटावायरस (Rotavirus) के खिलाफ जीवित-क्षीण टीके विकसित किए। जबकि पहला रेबीज टीका जीवित-क्षीण प्रकार था, इसे 1967 में एक निष्क्रिय रेबीज विषाणु का उपयोग करके एक बेहतर संस्करण द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था। निष्क्रिय विषाणु का उपयोग करने वाले अन्य टीकों में पोलियो, फ्लू (Flu) और हेपेटाइटिस ए (Hepatitis A) के टीके शामिल हैं। हालांकि अब हमें एक नई महामारी, कोविड-19 का सामना करना पड़ रहा है,पहली बार दिसंबर 2019 में चीन में पहचाना गया, कोविड -19 ने अपने पहले 4 महीनों में ही विश्व स्तर पर 200,000 से अधिक मौतों का कारण बना और हमारे जीवन में अभूतपूर्व व्यवधान को उत्पन्न किया।
इस महामारी पर काबू पाने के लिए वैश्विक वैज्ञानिक और चिकित्सा समुदायों के एक अद्वितीय सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। वहीं पहले से मेडिकल रिसर्च काउंसिल (Medical Research Council) द्वारा वित्त पोषित पशु अनुसंधान इस महामारी पर काबू पाने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है और यूनाइटेड किंगडम (United Kingdom) के वैज्ञानिकों को कोविड -19 के खिलाफ टीके और उपचार विकसित करने में मदद कर रहा है।
पशु भी कोविड-19 सहित किसी भी नए उपचार की सुरक्षात्मक प्रभावकारिता और सुरक्षा के मूल्यांकन के लिए महत्वपूर्ण हैं। कोविड -19 के अध्ययन के लिए चूहों की एक विशेष नस्ल का उपयोग इंपीरियल कॉलेज लंदन (Imperial College London) में प्रोफेसर शाओ-निंगशु (Xiao-Ning Xu) द्वारा किया जा रहा है, जिनके पास एक मोनोक्लोनल (Monoclonal)प्रतिरक्षी उपचार का परीक्षण करने के लिए मेडिकल रिसर्च काउंसिल द्वारा वित्त पोषित है जो SARS-CoV-2 सहित विभिन्न प्रकार के कोरोनावायरस (Coronavirus) के खिलाफ प्रभावी हो सकता है।
हालांकि कई वर्षों से यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America),जर्मनी(Germany) और नीदरलैंड्स (Netherlands) में जानवरों पर किए जाने वाले शोध पर उपयोग होने वाले बंदरों को भारत से निर्यात किया जाता है।
उत्तर प्रदेश के 10 से अधिक जिलों में आमतौर पर पाया जाने वाला बंदर जिसे रीसस मकाक (Rhesus Macaque) कहते हैं,पोलियो के टीके के लिए आवश्यक प्रजाति है और भारत द्वारा सालाना 20,000 बंदरों का निर्यात किया जाता है। यह एक प्रतिबंधित व्यापार है, क्योंकि निर्यात की जा सकने वाली अधिकतम संख्या भारतीय वन्य जीवन बोर्ड द्वारा तय की जाती है।कुछ समय पहले सरकार ने अचानक बंदरों के निर्यात को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था। संयुक्त राज्य अमेरिका जो कि बंदरों का सबसे बड़ा खरीददार देश था, उसे निर्देश दिए कि बंदरों पर प्रयोग कम करें; इस निर्णय के कई तरह के असर हुए। विदेशी मुद्रा के साथ-साथ बंदरों के निर्यातकों के कामकाज पर भी काफी असर पड़ा। इस प्रतिबंध की वजह इंटरनेशनल प्राइमेट प्रोटेक्शन लीग ((International Primate Protection League)) की शिकायत थी कि चिकित्सा संबंधी शोध के लिए अमेरिका द्वारा मंगाए गए बंदरों का इस्तेमाल उस काम के बजाय परमाणु बम संबंधी परीक्षणों के लिए सुरक्षा शोध प्रयोगशालाओं में किया जाना था। 1950 में इसी तरह की एक रिपोर्ट के कारण बंदर के निर्यात पर रोक लगाई गई थी, जो 5 वर्ष बाद अमेरिकी सर्जन जनरल द्वारा यह आश्वासन देने पर हटाई गई कि आयात किए जा रहे बंदरों का इस्तेमाल पोलियो टीके के शोध पर ही होगा।
इनकी जनसंख्या अच्छी खासी होती है तथा यह किसी भी स्थान पर रह लेते हैं। दक्षिणी, मध्य और दक्षिण पूर्व एशिया (Asia) में काफी संख्या में मिलते हैं। यह भूरे या सलेटी रंग के होते हैं और इनका चेहरा गुलाबी होता है।इनके 32 दांत होते हैं और औसतन इनकी पुंछ 20.7- 22.9 सेंटीमीटर (Centimeter) लंबी होती है। वयस्क नर बंदर 53 सेंटीमीटर लंबा और 7.7 किलोग्राम वजन का होता है। इनके मुकाबले मादा बंदर छोटी, औसतन 45 सेंटीमीटर लंबी और 5.3 किलोग्राम वजन की होती हैं।कुछ परीक्षणों में जब इन्हें आईना दिखाया गया तो इन्होंने उनमें देखा और अपने आप को शीशे में देखकर संवारा। इससे पता चलता है कि यह बंदर अपने बारे में पूरी तरह सचेत होते हैं। इसी तरह की एक रिपोर्ट (Report) सितंबर 2010 में प्रकाशित हुई थी,जिसमें यह बताया गया कि ये बंदर स्वयं को शीशे में देखकर पहचान लेते हैं, हालांकि इसके लिए इन्हें कुछ प्रशिक्षण (आईना क्या होता है और इसमें खुद को कैसे देखते हैं?) देने की आवश्यकता होती है। जिसके बाद बंदरों ने जब स्वयं को आईने में देखा तो कई आश्चर्यचकित प्रतिक्रिया दिखाई।
संदर्भ :-
https://bit.ly/3q4Es7b
https://bit.ly/3q7aJKK
https://bit.ly/3q8gIir
https://bit.ly/35y8h6x
https://bit.ly/3gLE4WC
https://bit.ly/2S5Uhh8
https://bit.ly/3vBMvJQ
चित्र संदर्भ:
1. बंदरों में टीके का परीक्षण(wikimedia)
2. एक शहरी बगीचे में एक बंदर(wikimedia)