विश्व में इत्र या इतर का प्रयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है। पहले के समय में किसी न किसी
प्रयोजन के लिए एक सुगंधित द्रव्य का हमेशा इस्तेमाल किया जाता था, जिसे सम्भवतः विभिन्न प्रकार
के फूलों के रस और चंदन से बनाया जाता था। मिस्र (Egypt), ग्रीस (Greece) तथा अन्य कई देशों ने
भारत से चन्दन की लकड़ियों का व्यापार किया, ताकि उनकी मदद से इत्र का निर्माण किया जा सके।
इस्लाम धर्म में इत्र को पवित्रता का सूचक माना गया है, जो आनन्द, भोग, सुख व आमोद से भी
सम्बंधित है। इत्र एक प्रकार का तेल है, जिसे मुख्य रूप से वनस्पति स्रोतों से प्राप्त किया जाता है।
आमतौर पर इन तेलों को हाइड्रो या स्टीम डिस्टिलेशन के माध्यम से निकाला जाता है। यूं, तो
इत्र को
रासायनिक तरीकों से भी निर्मित किया जा सकता है, लेकिन प्राकृतिक सुगंधक जिन्हें प्राकृतिक इत्र कहा
जाता है,उन्हें प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त कर आसवित किया जाता है। आसवन के लिए विभिन्न प्रकार की
लकड़ियों जैसे चंदन को आधार के रूप में प्रयोग किया जाता है।इस प्रकार से बने इत्र का उपयोग एक से
लेकर दस वर्षों तक किया जा सकता है।विश्व स्तर पर इत्र बनाने की शुरूआत और इसके विकास को
देंखे, तो प्राचीन समय में मिस्रवासियों की इसमें अहम भूमिका रही और इसके लिए उन्होंने विभिन्न
प्रकार के फूलों का उपयोग किया।
इत्र बनाने की विधि या तरीके को प्रसिद्ध चिकित्सक अल-शेख अल-
रईस (Al-Shaykh al-Rais) द्वारा परिष्कृत और विकसित किया गया, जिन्हें अबी अली अल सीना
(Abi Ali al Sina) के नाम से भी जाना जाता था। गुलाब और अन्य पौधों की सुगंध को प्राप्त करने के
लिए उन्होंने आसवन तकनीक का उपयोग किया।यूं तो पहले भी तेल और पीसी हुई जड़ी-बूटियों के
मिश्रण से सुगंधित तरल पदार्थ तैयार किए जाते थे,लेकिन वे ऐसे पहले व्यक्ति बने, जिन्होंने सुगंधित
तरल पदार्थ को बनाने के लिए गुलाब का उपयोग करना शुरू किया। रानी अरवा अल-सुलेही (Arwa al-
Sulayhi), जो यमन (Yemen) की रानी थी, ने एक विशेष प्रकार के इत्र की पेशकश की, जिसे अरब
(Arab) के राजाओं को उपहार में दिया जाता था। यूनानी चिकित्सा में भी इत्र का विशेष महत्व था, क्यों
कि कई स्वास्थ्य विकारों को सही करने में यह सहायक था। भारत में इत्र के इतिहास की बात करें, तो
यहां इसका इतिहास 60,000 वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाता है। कालीदास की रचनाओं में विभिन्न
प्रकार के फूलों के रस तथा चंदन के मिश्रण से बनाए जाने वाले द्रव्य का उल्लेख मिलता है।'अग्नि
पुराण' के अनुसार, 150 से अधिक सुगंधित द्रव्य का उपयोग राजाओं द्वारा स्नान के लिए किया जाता
था। भारत में इत्र बनाने का सबसे पहला रिकॉर्ड खगोलशास्त्री, गणितज्ञ और ज्योतिषी, वराहमिहिर द्वारा
लिखित ‘बृहत् संहिता’ (Bri- hat Samhita) में पाया जाता है। भारत में मुगल काल के दौरान कई
शासकों ने इत्र और सुगंधित द्रव्यों का उपयोग एक अच्छे या आनंदित जीवन के हिस्से के रूप में
किया।ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है, कि मुगल सम्राट और उनकी रानियां इत्र की सुगंध के
अत्यधिक शौकीन थे। इतिहासकार, अबू-फ़ज़ल इब्न मुबारक (Abu’l-Fazl ibn Mubarak) ने अपनी
पुस्तक ‘आई-ने-अकबरी’ (Ain-e-Akbari) में भी इत्र का वर्णन किया है। मुगल सम्राट अकबर, द्वारा
नियमित रूप से इत्र का उपयोग कैसे किया जाता था, इसका वर्णन भी उनकी पुस्तक में मिलता है।
मुगल सम्राट जहाँगीर (Jahangir) की पत्नी, नूरजहाँ (Noorjahan), इत्र की विशेषज्ञ थी और गुलाब की
पंखुड़ियों से सुगंधित पानी में स्नान किया करती थी। इससे प्रेरित होकर लोगों ने प्राकृतिक सुगंधों के
साथ प्रयोग करना शुरू किया। अवध क्षेत्र में शासक गाजी उद दीन हैदर शाह (Ghazi-ud-Din Haidar
Shah) भी इत्र के अत्यधिक शौक़ीन थे और उन्होंने अपने शयन कक्ष में इत्र के फव्वारे भी लगवाए थे।
रामपुर शहर भी इत्र व्यापार से जुड़ा हुआ था, तथा यह व्यापार यहां भारत के विभिन्न हिस्सों से होता
था। इसका विवरण रामपुर की राजकुमारी मेहरुन्निसा खान (Mehrunnisa Khan) ने अपनी जीवनी में
भी किया है।
रामपुर के कोठी खास बाग व अन्य स्थानों पर ऐसे कई बगीचों का निर्माण किया गया जो
सुगंध से सम्बन्धित हैं।इत्र को आम तौर पर शरीर पर उनके प्रभाव के आधार पर वर्गीकृत किया गया है।
कस्तूरी, एम्बर और केसर जैसे 'गर्म' इत्र का उपयोग सर्दियों में किया जाता है, क्योंकि वे शरीर के
तापमान को बढ़ाते हैं। इसी तरह से, गुलाब, चमेली, केवड़ा और मोगरा जैसे 'ठंडे' इत्र अपने शीतल प्रभाव
के कारण गर्मियों में उपयोग किए जाते हैं। हालांकि, इत्र का उपयोग विशेष तौर पर सुगंध के लिए किया
जाता है, किंतु औषधीय और कामोत्तेजक उद्देश्यों के लिए भी इनका उपयोग लाभकारी है।
इत्र या परफ्यूम की सुगंध लंबे समय तक बनी रहे, इसलिए उसमें बेस नोट्स का उपयोग किया जाता
है।कस्तूरी या मस्क (Musk) और एम्बरग्रीस (Ambergris) या ग्रे एंबर दो ऐसे पदार्थ हैं, जिनका उपयोग
इत्र बनाने में बेस नोट्स के तौर पर किया जाता है। कस्तूरी के अंतर्गत कस्तूरी मृग की ग्रंथियों का स्राव,
समान सुगंध उत्पन्न करने वाले पौधे, और समान गंध वाले कृत्रिम पदार्थ शामिल हैं। कस्तूरी नाम मुख्य
रूप से कस्तूरी मृग की ग्रंथि से स्रावित होने वाले पदार्थ को दिया गया है, जिसकी गंध बहुत तीव्र होती
है। इसी प्रकार से एम्बरग्रीस एक ठोस, मोमी और ज्वलनशील पदार्थ है, जो भूरे या काले रंग का होता
है। यह व्हेल मछली (Whale) का अपशिष्ट पदार्थ है,जिसे तैरते हुए सोने के रूप में भी वर्णित किया
जाता है। यह पदार्थ उष्णकटिबंधीय समुद्रों में पाया जाता है तथा इसका इस्तेमाल इत्र बनाने के लिए एक
स्थिरकारी पदार्थ के रूप में किया जाता है,क्यों कि इसका वाष्पीकरण सबसे धीमा होता है।इस पदार्थ को
ढूंढना काफी मुश्किल होता है, लेकिन खाड़ी क्षेत्र में आम तौर पर इसका निर्यात अत्यधिक किया जाता है,
क्योंकि वहां इसे बहुत अधिक कीमत पर खरीदा जाता है। इसकी थोड़ी सी मात्रा की कीमत करोड़ों में
होती है, जिस कारण इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है।जब स्पर्म व्हेल (Sperm whale) किसी
चोंच वाले जीव को खा जाती है, तो आंत को चोंच के नुकसान से बचाने के लिए पित्त नली के स्राव से
यह पदार्थ बनता है, ताकि कठोर और नुकीली वस्तुओं का पाचन आसानी से हो सके। जब व्हेल इस
पदार्थ को नहीं पचा पाती तब, वह अपशिष्ट के रूप में इसे त्याग देती है, जो अनेकों वर्षों बाद समुद्र के
तट पर आ जाता है। चूंकि, इसे प्राप्त करने में अनेकों वर्ष लगते हैं, इसलिए व्हेल को अवैध रूप से
मारकर इस पदार्थ को प्राप्त किया जा रहा है, ताकि इत्र और अन्य विभिन्न प्रयोजनों के लिए इसे भारी
कीमत पर बेचा जा सके।
संदर्भ:
https://bit.ly/3oKSlGZ
https://bit.ly/3ucEavm
https://bit.ly/3hP5CwH
https://bit.ly/3yvnO4p
https://bit.ly/3oNqdmu
https://bit.ly/3wu0i5U
चित्र संदर्भ
1. 1761पूर्व का ब्रिटिश रोकोको इत्र फूलदान तथा परफ्यूम बर्नर की ब्रिटिश नियोक्लासिकल जोड़ी का एक चित्रण (wikimedia)
2. फ्रैगनार्ड में एक पुराना इत्र अभी भी प्रदर्शित है जिसका एक चित्रण (wikimedia)
3. सड़क पर इत्र (हर्बल परफ्यूम) विक्रेता का एक चित्रण (wikimedia)