प्राचीन नाट्यशास्त्र के दो प्रमुख अंग: रस तथा भाव

ध्वनि I - कंपन से संगीत तक
06-05-2021 09:28 AM
प्राचीन नाट्यशास्त्र के दो प्रमुख अंग: रस तथा भाव

हमारा देश भारत सांस्कृतिक और रचनात्मक कलाओं को सदियों से सँजोए हुए है, फिर चाहे वह संगीत हो, नृत्य-नाटिका हो, पाक-कला हो, या शिल्पकला। हर क्षेत्र अपनी प्राचीन और पारंपरिक छवी को प्रदर्शित करता है।भारत में रंगमंच का आरम्भ नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति के साथ हुआ। जिसका इतिहास आज से कई सौ साल पुराना है, संभवत: दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व का । भरत मुनी द्वारा लिखित नाट्यशास्त्र ग्रंथ में रस और भाव का समावेश मिलता हैं। जहाँ एक ओर रस, व्यक्ति की मानसिक स्थिति को दर्शाता है वहीं दूसरी ओर भाव, मन की स्थिति, भावना या मनोदशा को संदर्भित करता है। दोनों अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हैं। सरल शब्दों में, कला के रस को नर्तक के चहरे के भावों के माध्यम से दर्शकों तक पहुँचाया जाता है।श्रव्य काव्य को पढ़ने अथवा सुनने और दृश्य काव्य को देखने तथा सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, वह रस कहलाता है। रस, छंद और अलंकार किसी काव्य रचना के आवश्यक तत्व माने जाते हैं।

नाट्यशास्त्र में भरत मुनि द्वारा आठ रस और अड़तालीस भावों का वर्णन किया गया है।आठ स्थायी भाव, आठ संगत रसों को जन्म देते हैं।उन्होंने काव्य में मुख्यत: आठ रसों का वर्णन किया है परंतु कतिपय पंक्तियों के आधार पर विद्वानों का मानना है कि उन्होंने शांत नामक नवें रस को भी स्वीकृति दी है।

इन्हीं नौ रसों को नवरस की संज्ञा दी गई है।
1. रति (प्रेम का आवेश) का स्थायी भाव श्रृंगार (कामुक) रस को जन्म देता है।
2. हास (आनंद) का स्थायी भाव हास्य (हँसी) रस को जन्म देता है।
3. शोक (दुख) का स्थायी भाव करुण रस को जन्म देता है।
4. रौद्र (क्रोध) का स्थायी भाव रौद्र (रोष) रस को जन्म देता है।
5. उत्साह (वीरता) का स्थायी भाव वीर रस को जन्म देता है।
6. भय का स्थायी भाव भयानक(भय)रस को जन्म देता है।
7. जुगुप्सा (घृणा) का स्थायी भाव विभत्स(विद्रोह) रस को जन्म देता है।
8. विस्मया (विस्मय) का स्थायी भाव अद्भुत(आश्चर्य) रस को जन्म देता है।
9. निर्वेद का स्थायी भाव शांत रस को जन्म देता है।

भरत मुनी के अनुसार एक प्रकार के रस में अलग-अलग भाव अंतर्निहित हो सकते हैं।इसलिए बिना भाव के कोई रस नहीं हो सकता और बिना रस का कोई भाव नहीं हो सकता।वे कहते हैं कि अभिनेता-नर्तक को स्थायी भाव के माध्यम से दर्शकों को रस का अनुभव कराने में सक्षम होना चाहिए।हालाँकि, हर कोई इसे अनुभव नहीं कर सकता है। रस या "सार"को पहचानने या प्राप्त करने में सक्षम होने के लिए, दर्शक एक संवेदनशील और संस्कारी व्यक्ति होना चाहिए, जिसे शास्त्रीय भाषा में एक रसिका कहा जाता है।
रस के चार अंग होते हैं:- स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव।
स्थायी भाव मानव के मन-मस्तिष्क में सदैव विद्यमान रहने वाले भाव होते हैं। यह 11 प्रकार के होते हैं - रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद, वात्सलता और ईश्वर विषयक प्रेम। विभाव का अर्थ होता है कारण। ये स्थायी भावों का विभावन/उद्बोधन करते हैंऔरउन्हें आस्वाद योग्य बनाते हैं।विभाव के दो भेद होते हैं: आलंबन विभाव और उद्दीपन विभाव।
अनुभाव अन्य भावों का अनुगमन करते हैं। अनुभाव के दो भेद होते हैं: इच्छित और अनिच्छित।
संचारी या व्यभिचारी भाव वे होते हैं जो कुछ समय के लिए स्थायी भाव को पुष्ट करने के सहायक रूप में आते हैं और शीघ्र ही लुप्त हो जाते हैं।संचारी या व्यभिचारी भावों की संख्या 33 मानी गयी है: निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, चिंता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीड़ा, चापल्य, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार (मिर्गी), स्वप्न, प्रबोध, अमर्ष (असहनशीलता), अवहित्था (भाव का छिपाना), उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क। नाट्यशास्त्र के 36 अध्याय रंगमंच और नृत्य के लगभग सभी पहलुओं का निर्देशन करते हैं। उदाहरण के लिए रंगमच भवन, मंच, कविता का सिद्धांत, आवाज का उपयोग, श्रृंगार, पोशाक, अभिनय शैली, नृत्य तकनीक और यहाँ तक कि रंगमंचवाद का समावेश भी इस शास्त्र में मिलता है।
नाट्यशास्त्र में वर्णित शास्त्रीय भारतीय नृत्य तकनीक दुनिया में सबसे विस्तृत और जटिल है। इसमें 108 करण या बुनियादी नृत्य इकाइयां, खड़े होने के चार तरीके, पैरों और कूल्हों की 32 हरकतें, गर्दन की नौ हरकतें, भौंहों के लिए सात हरकतें, 36 प्रकार की टकटकी, और एक हाथ के लिए 24 और दोनों हाथों के लिए 13 प्रतीकात्मक इशारे शामिल हैं। इसके अतिरिक्त नर्तक-अभिनेता को पैरों के तलवों से लेकर पलकों और उंगलियों तक, शरीर के सभी अंगों की अभिव्यक्ति के लिए वर्षों तक प्रशिक्षित किया जाता है।भगवान ब्रह्मा को नाट्य कला का निर्माता माना जाता है।ब्रह्मा के चार प्रमुख वेदों के अलावा उन्होंने अन्य देवताओं की सहायता से पाँचवें वेद नाट्य वेद की रचना की। जिसे समझना सबके लिए सरल था।तत्पश्चात इस वेद का ज्ञान भगवान ब्रह्मा ने पौराणिक ऋषि भरत को दिया जिसे उन्होने अपने नाट्यशास्त्र में वर्णित किया है।इस प्रकार कला की विभिन्न तकनीकों,बारीकियों और शैलियों के समावेश से नाट्यशास्त्र के सिद्धांत भारतीय प्रदर्शनकारी कला का आधार बन गए। जो भरतनाट्यम जैसी अनेकों नृत्यनाटिकाओं में आज भी देखी जा सकती हैं।

संदर्भ:

https://bit।ly/3nBUnsc
https://bit।ly/3nzSkVI
https://bit।ly/3vsSAby
https://bit।ly/3nAVV5I


चित्र संदर्भ :-

1. नृत्य का एक चित्रण (Unsplash)
2. नृत्यांगना का एक चित्रण (Unplash)
3 . नृत्यांगना का एक चित्रण (pexels)