भारत में देशव्यापी तालाबंदी के दौरान ऐसी कई तस्वीरें या वीडियो (Video) हमारे सामने आयीं, जिसमें सैकड़ों प्रवासी मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल चलते हुए दिखायी दिये। इन तस्वीरों या वीडियो ने हम सभी की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया, या यूं कहें कि, इन्हें देखने से हम सभी का हृदय द्रवित हो उठा। आजीविका, आश्रय और भोजन की अनुपलब्धता के चलते ये मजदूर अपने गृह राज्यों में वापस जाने के लिए मजबूर हुए। यह दृश्य भारत में बड़े पैमाने पर मौजूद असंगठित कृषि कार्यबल की अतिसंवेदनशीलता को उजागर करता है। क्या आप जानते हैं, कि इस देश में ऐसे कितने लोग हैं, जिनके पास खेती करने के लिए अपनी भूमि है? 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के अनुसार, भारत की 51% ग्रामीण आबादी भूमिहीन है। इसका मतलब है कि, केवल 49% आबादी के पास ही खेती के लिए भूमि मौजूद है। यह आंकड़ा प्रदर्शित करता है, कि ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकांश आबादी अपनी आजीविका के लिए दूसरों पर निर्भर है, तथा यदि उन्हें उपयुक्त आय या रोजगार उपलब्ध नहीं होता है, तो वे अनेकों कठिनाईयों या गरीबी का सामना करते हैं। इस प्रकार भूमि स्वामित्व ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी के एक संकेतक के रूप में कार्य करता है।
2001 में देश में भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की संख्या 10.67 करोड़ थी तथा 2011 में यह बढ़कर 14.43 करोड़ हो गई। देश में भूमि स्वामित्व के विभिन्न प्रकार भी भ्रम की स्थिति उत्पन्न करते हैं, क्यों कि, मालिक और किरायेदार के रूप में इस तरह के शब्द का अर्थ विभिन्न राज्यों और यहां तक कि एक ही राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न है। समाज के सबसे कमजोर वर्गों में खेतिहर मजदूर भी शामिल हैं, जो ज्यादातर भूमिहीन हैं और ग्रामीण समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यह वर्ग अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से कृषि मजदूरी पर निर्भर है। खेतिहर मजदूरों की प्रमुख समस्या यह है, कि इन्हें न तो अच्छी तरह से संगठित किया जाता है और न ही इनके काम के लिए पर्याप्त भुगतान किया जाता है। उनकी आय हमेशा अल्प रही है, जिसके परिणामस्वरूप इन्हें भारी ऋणग्रस्तता का सामना भी करना पड़ता है। स्वतंत्रता के पहले से ही उनकी स्थिति दासों या गुलामों के समान थी, जिन्हें सुबह से लेकर शाम तक लगभग हर तरह का काम करना पड़ता था। इसके अलावा वे सामाजिक भेदभाव और आर्थिक शोषण का भी शिकार थे। हालांकि, सरकार द्वारा खेतिहर मजदूरों का जीवन सुधारने के लिए कई प्रयास किये गये हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी वे उस वर्ग में शामिल हैं, जो गरीब है तथा संसाधनों तक उनकी पहुंच अत्यधिक सीमित है। उनकी आय का स्तर उनकी जरुरतों को पूरा करने के लिए भी पर्याप्त नहीं है। भारत में कृषि श्रमिकों की कृषि मजदूरी और पारिवारिक आय बहुत कम है। कृषि श्रम जांच रिपोर्ट (Report) के अनुसार, 1950-51 के दौरान इनकी घरेलू औसत वार्षिक आय रुपये 477 थी, जो कि, 1955-56 में घटकर 437 रुपये हुई। 1964-65 और 1970-71 के बीच वास्तविक मजदूरी दरों में वृद्धि हुई थी, किंतु ज्यादातर राज्यों में प्रति व्यक्ति आय में गिरावट आयी। इस प्रकार खेतिहर मजदूर निरंतर बेरोजगारी और अल्प-रोजगारी का सामना करते हैं। एक ऐसे समय, जब कृषि उत्पादन कम होता है, के दौरान श्रम की मांग बहुत कम होती है, और परिणामस्वरूप कृषि रोजगार के लिए उपलब्ध दिनों की संख्या में गिरावट आ जाती है। देश में आज भी लाखों की संख्या में बंधुआ मजदूर मौजूद हैं, तथा उनके लिए कार्य की समय सीमा का भी कोई प्रावधान तय नहीं किया गया है। उनके लिए किसी प्रकार की छुट्टी का प्रावधान भी नहीं है, क्यों कि वे दैनिक आधार पर कार्य करते हैं। उनका रोजगार नियोक्ता पर निर्भर करता है, तथा नियोक्ता द्वारा अक्सर उनका शोषण किया जाता है। कई राज्यों में कर्ज माफी के लिए किसानों द्वारा याचनाएं या आंदोलन किये जाते हैं, जो संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र और देश भर में किसानों के सामने आ रहे आर्थिक संकट की ओर ध्यान आकर्षित करता है। लेकिन इन याचनाओं या आंदोलनों के बीच एक ऐसा समूह भी है, जो चुपचाप इस संघर्ष का सामना करता है, और वो है, भूमिहीन मजदूर जो अक्सर उत्पीड़ित रहते हैं। भूमिहीन श्रमिकों की उत्पादकता और कमाई आर्थिक समृद्धि के स्तर का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है। किसानों की तरह, वे भी विशेष रूप से जमींदारों या अन्य गैर-संस्थागत स्रोतों के ऋणी हैं। समाज में खेतीहर मजदूरों की स्थिति को सुधारने के लिए सरकार द्वारा समय-समय पर प्रयास किये जाते रहे हैं, इन प्रयासों में न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण, बंधुआ मजदूरी का उन्मूलन, भूमिहीन मजदूरों को भूमि उपलब्ध कराना आदि शामिल है। इसके अलावा छोटे और कुटीर उद्योगों, गांवों के हस्तशिल्प और औद्योगिक संपदाओं के विकास को बढ़ावा दिया गया है, जिसने कृषि श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसर पैदा किए हैं।
कोरोना महामारी संकट ने भूमिहीन कृषि मजदूरों के लिए और भी विकट स्थिति उत्पन्न की है। महामारी संकट के बावजूद भी उन्हें अपनी सुरक्षा का ध्यान न रखते हुए कार्य करना पड़ रहा है। जो लोग खेतों में काम के लिए मजदूर रखा करते थे, वे अब मजदूरों को काम पर रखने के बजाय खुद काम कर रहे हैं। इस प्रकार महामारी ने उन्हें उनकी आजीविका से वंचित कर दिया है। सरकार द्वारा जो राहत योजनाएं दी गयीं, वे भी मुख्य रूप से ऐसे किसानों के लिए थीं, जिनके पास अपनी भूमि थी। भले ही कोरोना महामारी सभी के लिए एक बहुत बड़ा संकट बनी है, लेकिन इसने समाज को कई महत्वपूर्ण सबक भी दिए हैं। जो समस्या भूमिहीन मजदूरों को कोरोना महामारी के दौरान झेलनी पड़ी है, उसे देखते हुए भारत के कृषि नीति उद्देश्यों को फिर से निर्धारित करने की आवश्यकता है। भले ही तालाबंदी में सरकार ने कमजोर वर्ग के लोगों की सुरक्षा के लिए कल्याणकारी उपायों की घोषणा की, लेकिन महामारी के सन्दर्भ में, उन्हें सुलभ और सस्ता भोजन उपलब्ध कराने के लिए सरकार को अपनी योजनाओं को और भी अधिक विस्तारित करने की आवश्यकता है। कोरोना महामारी ने राज्यों को यह अवसर प्रदान किया है, कि वे असतत जल और श्रम-गहन फसल पैटर्न (Patterns) पर निर्भर न रहें। इसके अलावा महामारी, ने दुनिया को विषाणु से लड़ने तथा प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करने हेतु खाद्य आहार में पौष्टिक भोजन को शामिल करने का महत्वपूर्ण सबक भी सिखाया है।
संदर्भ:
https://go.nature.com/3wqhxpE
https://bit.ly/3rCcj6A
https://bit.ly/3ubws4U
https://bit.ly/3g6Y8BN
https://bit.ly/39vkPOh
https://bit.ly/2PIpEwL
https://bit.ly/39vkR8R
चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र एक किसान को दर्शाता है। (प्रारंग)
दूसरे चित्र में प्रवासी मजदूरों को अपने घर वापस जाते दिखाया गया है। (पिक्साबे)
तीसरा चित्र भूमिहीन आदमी को खेती करते दिखाया गया है। (फ़्लिकर)