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पेड़ों को आकार देने की कला

रामपुर

 06-04-2021 10:01 AM
पेड़, झाड़ियाँ, बेल व लतायें


दुनिया भर में, सदियों से, व्यावहारिक और सौंदर्यवादी उद्देश्यों के लिए, लोगों ने पेड़ों को नया आकार देने और उन्हें मोड़ने की रणनीति विकसित की है। अधिकांश भागों में यह तकनीक अलगाव में विकसित हुईं किंतु बाद में पेड़ों को आकार देने की इस कला की तकनीकों या विधियों को एक दूसरे से सीखा जाने लगा। और अब इन कलाकारों द्वारा पेड़ों को अधिक महत्वाकांक्षी रूपों इमारतों से फर्नीचर (Furniture) तक, में विकसित करने का लक्ष्य रखा जाता है। पेड़ों को आकार देने की इस क्रिया को ट्री शेपिंग (Tree shaping) कहा जाता है। अप्राकृतिक आकृतियों को संग्रहित करने के लिए संशोधन, तोड़ना, बिनाई, छंटाई और बुनाई, जैसी तकनीकों को नियोजित किया जाता है। उत्तर-पूर्व भारत के वर्तमान मेघालय राज्य में चेरापूंजी (Cherrapunji), लिटकिनेस (Laitkynsew) और नोंगरीट (Nongriat) के सजीव मूल जड़ों का पुल, ट्री शेपिंग के अद्भुत उदाहरण हैं। ये पुल पूर्वोत्तर भारतीय राज्य मेघालय के दक्षिणी हिस्से में आम हैं। ये सेतु हस्तनिर्मित हैं, जिन्हें शिलांग पठार के दक्षिणी भाग के साथ पहाड़ी इलाके में खासी और जयंतिया लोगों द्वारा रबड़ अंजीर (Ficus Elastica) की वायवीय जड़ों से बनाया गया है। इन को पत्थर या लकड़ी के सहारे से तब तक आकार दिया जाता है जब तक उनकी जड़ें दूसरी ओर तक नहीं पहुँच जाते। इस प्रक्रिया को पूरा होने में पंद्रह साल लग जाते हैं। कई प्रतिरूप लगभग 100 फीट से अधिक तक फैलते है और लगभग 50 लोगों का वजन सहन कर सकता है।
पुलों का उपयोगी जीवनकाल, एक बार पूरा होने के बाद, लगभग 500-600 साल माना जाता है। अधिकांश सेतु समुद्र तल से 50 मीटर और 1150 मीटर के बीच उपोष्णकटिबंधीय नम चौड़ी जंगल की खड़ी ढलानों पर बढ़ते हैं। जिस पेड़ से सेतु या पुल बनता है, वो जब तक स्वस्थ रहता है तब तक सेतु की जड़ें स्वाभाविक रूप से मोटी और मजबूत रहती हैं। मध्य पूर्व में बगीचे के घर बनाने के लिए सजीव पेड़ों का उपयोग किया गया था, एक चलन जो बाद में यूरोप (Europe) में फैल गया। कोहम (Cobham), कैंट (Kent) में तीन मंजिला ऐसे घर हैं जिसमें लगभग 50 लोग रह सकते हैं। विभिन्न कलाकारों द्वारा अपने पेड़ों को आकार देने के लिए कुछ अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है, जिनमें प्लीचिंग (Pleaching), बोन्साई (Bonsai), वृक्षजाल और टॉपीएरी (Topiary) आदि शामिल हैं। प्लेचिंग (Pleaching) एक तकनीक है जिसका उपयोग बाड़ा बिछाने के बहुत पुराने बागवानी अभ्यास में किया जाता है। प्लेचिंग में पहले जीवित शाखाओं और टहनियों को बुनना और फिर उनकी आवक को वृद्धि देने के लिए एक साथ बुनाई की जाती है। मध्ययुगीन यूरोप में एक प्रारंभिक, श्रम-गहन, व्यावहारिक उपयोग करने के लिए, जमीन को समानांतर हेज्रो (Hedgerow) पंक्ति या पंचवृक्ष स्वरूप को जमीन में स्थापित किया गया था।
1900 के शुरुआती दिनों में, जॉन क्रैब्सैक (John Krubsack), जो कि विस्कॉन्सिन (Wisconsin) के एक साहूकार थे, ने अपने घर के पीछे वाले आँगन में 32 डिब्बे वाले ऐसे बड़े पेड़ लगाए, जो एक बढ़ई द्वारा बनाई जा सकने वाली किसी भी कुर्सी से अधिक मजबूत थे। इन पेड़ों को झुकाने, कलम बांधने, और पेड़ों को एक शानदार फर्नीचर के रूप में विकसित करने में उन्हें 11 साल लग गए। 1920 के दशक में, कैलिफ़ोर्निया (California) के एक किसान, एक्सल एर्लैंडसन (Axel Erlandson) ने पेड़ों को मेहराबों, ज्यामितीय आकृतियों में आकार देने का प्रयोग करना शुरू किया, ये ऐसे डिजाइन (Design) थे जिनकी कल्पना किसी ने पहले कभी नहीं की थी। इसी दौरान, एक जर्मन (German) अभियान्ता आर्थर वेइचुला (Arthur Wiechula) ने बढ़ते हुए पेड़ों से घरों के लिए काल्पनिक, विस्तृत विचारों की रूपरेखा तैयार की। संशोधन, मोड़ना और छंटाई से पेड़ों को सजावटी या उपयोगी आकार में उगाया जाता है। यह तकनीक एक वांछित आकार धारण करने के लिए पौधों या पेड़ों की एकजुट होने, संशोधन और एक नया आकार बनाए रखने की क्षमता पर निर्भर करती है। पेड़ के आकार को प्राप्त करने के मुख्यतः तीन तरीके हैं: पहला एरोपोनिक रूट कल्चर (Aeroponic root culture), इंस्टेंट ट्री शेपिंग (Instant tree shaping) और ग्रेजुएल ट्री शेपिंग (Gradual tree shaping)।
भारतीय बरगद, जिसे रबड़ के पेड़ के रूप में भी जाना जाता है, नदी के किनारों पर बहुतायत से उगता है, अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी की धाराओं तक जड़ें फैलाता है और खासी के लोग उस अवसर का उपयोग सरल अभियांत्रिकी तकनीक के साथ करते हैं ताकि उन्हें मजबूत पुलों में बनाया जा सके, इस तकनीक से प्रकृति को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचता है। ऐसे ही खासी के लोगों द्वारा भी प्रकृति का उपयोग करके प्राकृतिक समस्याओं से लड़ना सीख लिया गया है। जहां मेघालय क्षेत्र में हर साल 12,000 मिमी वर्षा होती है, और ऐसे घने, डरावने जंगलों में आधुनिक सभ्यताओं की सुविधा में रहने वाले लोग प्रवेश करने की हिम्मत नहीं कर सकते हैं। वहाँ के जंगलों में तेज गति से बहने वाली नदियाँ मौजूद हैं, जो मानसून के पानी को काफी तेज बहाव से ले जाती है।
इन नदियों का जल इतनी प्रचुर मात्रा में होता है कि गंभीर तबाही मचा सकता है, लेकिन स्वदेशी लोगों ने इसका उपयोग अपने लाभ के लिए करना सीख लिया है। इस क्षेत्र के लोगों के जीवन-यापन का महत्वपूर्ण तरीका जंगल के सभी उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करना है। उन्होंने नदियों के संजाल को पार करते हुए बांस के पुल बनाने की कला में महारत हासिल की, लेकिन हर साल मानसून की बारिश टूटी और सड़ी हुई बांस की संरचनाओं को अपने साथ बहा ले जाती। आज पुलों के निर्माण के लिए निर्माता द्वारा स्टील (Steel) और रस्सी की संरचनाओं का उपयोग करना शुरू कर दिया गया है, इसलिए तकनीक चरणबद्ध होने लगी है। ये कृत्रिम संरचनाएं प्राचीन जड़ों के पुल की तकनीकों की तुलना में कुछ भी नहीं हैं, लेकिन पुराने समय की ये तकनीक समय के साथ विलुप्त होती जा रही है। वर्षों पहले बनाई गई ये सुंदर संरचनाएं आज भी हमारे समक्ष मौजूद हैं और इन पुलों का लोगों द्वारा आज तक उपयोग किया जा रहा है।

संदर्भ :-
https://bit.ly/3uby5j7
https://bit.ly/2Pei8Kl
https://bit.ly/3m9f51N

चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र में बगीचे की कुर्सी में पीट को बैठे दिखाया गया है। (विकिमेडिया)
दूसरे चित्र में ट्री शेपिंग को दिखाया गया है। (विकिमेडिया)
तीसरा चित्र एक्सल एरलैंडन द्वारा उगाए गए सुई और धागे के पेड़ को दर्शाता है। (विकिमेडिया)


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