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भारतीय संस्कृति प्राचीन काल से ही विभिन्न धर्मों को एकता के सूत्र में बांधती आई है। यहाँ एक ही क्षेत्र में अलग-अलग धर्मों को मानने वाले लोग निवास करते हैं। हिंदू धर्म के अतिरिक्त जैन और बौद्ध धर्म की उत्पत्ति भी भारत में हुई थी। इन दो धर्मों ने लोगों को हिंदू धर्म में प्रचलित ब्राह्मणवाद की गलत मान्यताओं और अंधविश्वास से मुक्त कर अपने समृद्ध सिद्धांतों, विचारों और दर्शन से प्राचीन हिंदू धर्म को समृद्ध बनाने में सहायता की। भारत में मध्यकालीन युग की शुरुआत में इस्लाम धर्म का उदय हुआ। हालाँकि इस्लाम धर्म हिंदू धर्म की भाँति विस्तृत संस्कार, अनुष्ठान, बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का समर्थन नहीं करता था किंतु इसमें भाईचारे की भावना निहित थी। भिन्न सिद्धांतों और विचारों के चलते हिंदू और इस्लाम धर्म के अनुयायियों में अक्सर मतभेद होता आ रहा है। उस समय भी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई थीं कि हिंदू और मुस्लिमों में द्वेष, शत्रुता और घृणा की भावना पनपने लगीं। फिर धार्मिक विचारकों के एक समूह जिसने अपने आंदोलन से लोगों को ईश्वर और धर्म के बारे में जागृत किया।
सूफी आंदोलन
भारत में मध्यकालीन समय महान सांस्कृतिक संश्लेषण का युग माना जाता है। इस दौरान देश में सांस्कृतिक विकास का एक नया चरण शुरू हुआ था। चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक चला सूफी आंदोलन एक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन था। इस आंदोलन को भारत के वेदांत दर्शन और बौद्ध धर्म का गहन अध्ययन करने वाले गैर-परंपरागत मुस्लिम संत ने प्रतिपादित किया था। विभिन्न धार्मिक पाठों और भारतीय धर्म को समझने के बाद उन्होने इस्लामिक दर्शन का विकास किया। जिसके फलस्वरूप अंतिम बार सूफी आंदोलन का जन्म हुआ। इस आंदोलन ने हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय के लोगों को एकजुटता का पाठ पढ़ाया। सूफी मुस्लिम अपने ईस्लाम के धर्मनिष्ठ अनुयायी थे किंतु वे रूढ़िवादी विचारधारा का समर्थन नहीं करते थे। सांसारिक मोह-माया से परे वे एकांत जीवन जीते थे। प्रेम और भक्ति के माध्यम से ईश्वर के साथ मानव आत्मा का मिलन सूफी संतों की शिक्षाओं का सार था।
भक्ति आंदोलन
मध्ययुगीन भारत में सांस्कृतिक विकास का एक नया दौर एक और आंदोलन के साथ शुरू हुआ जिसे भक्ति आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस पंथ के प्रमुख सिद्धांत थे प्रेम और भक्ति अर्थात वह भाव जिसके माध्यम से व्यक्ति ईश्वर के समीप पहुँचता है। इस आंदोलन के मुख्य प्रतिपादक रामानुज, निम्बार्क, रामानंद, वल्लभाचार्य, कबीर, नानक, मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास और श्री चैत्यन थे। भक्ति आंदोलन की मुख्य विशेषताओं में ईश्वर से एकता, प्रगाढ़ प्रेम और मोक्ष का एकमात्र तरीका, आत्म समर्पण, कर्मकाण्डों की निंदा, मूर्ति पूजा की अस्वीकृति, खुली मानसिकता, आदि प्रमुख थे। खुद को किसी विशेष धार्मिक पंथ से न जोड़कर सभी धर्मों की मौलिक एकता पर जोर देना और मनुष्यों में ऊँच -नीच की भावना न रखना भक्ति आंदोलन का उद्देश्य था। उस समय हिंदू समाज में कई कुप्रथाएँ फैली हुई थीं। जाति के आधार पर भेदभाव करना लोगों के स्वभाव का हिस्सा बन चुका था। जिसका उन्मूलन भक्ति आंदोलन के साथ हुआ।
भक्ति संतों ने संस्कृत, अरबी और फारसी भाषाओं के स्थान पर ऐसी स्थानीय भाषाओं के माध्यम से धर्म का प्रचार किया जिसे सभी लोग बहुत आसानी से समझ सकते थे। उदाहरण के लिए कबीर की भाषा आम भाषाओं का मिश्रण थी। सूरदास जी ‘बृज’ भाषा का प्रयोग करते थे। गोस्वामी तुलसीदास ने 'अवधी' में अपनी रचनाएँ लिखीं। साथ ही हिंदी, मराठी, गुजराती, बंगाली जैसी भाषाओं का प्रयोग आम जन के साथ-साथ संतों द्वारा भी किया जाने लगा। इस आंदोलन के फलस्वरूप भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों के बीच भक्ति के अनुष्ठानों का अभ्यास आरम्भ हुआ। भक्ति आंदोलन की लहर दक्षिण भारत से शुरू हुई थी। कुछ संतों ने तमिल में अपने देवताओं के भजन गाते हुए कई स्थानों की यात्रा की। बाद में, कई मंदिर बनाए गए जो तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से पवित्र स्थान बन गए जहाँ कवियों-संतों की रचनाएँ धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा बन गईं।
गुरू नानक देव जी जिन्होंने विश्व का भ्रमण करते हुए धर्म के नाम पर संसार में व्याप्त अंधविश्वास, कट्टरवाद, असत्य, पाखण्ड, घृणा की भावना को नज़दीक से देखा। इसी दौरान उन्होंने लोगों को ईश्वर के वास्तविक स्वरूप से अवगत कराया और सत्य का मार्ग दिखाया। इस प्रकार 15वीं शताब्दी में गुरू नानक जी ने सिख धर्म की स्थापना की। उन्होंने एक वर्ष तक अपने आस-पास ज्ञान और शांति का संदेश दिया और बाद में विश्व के विभिन्न हिस्सों (बांग्लादेश (Bangladesh), पाकिस्तान (Pakistan), तिब्बत (Tibet), नेपाल (Nepal), भूटान (Bhutan), दक्षिण पश्चिम चीन (Southwest China), अफगानिस्तान (Afghanistan), ईरान (Iran), इराक (Iraq), सऊदी अरब (Saudi Arabia), मिस्र (Egypt), इज़राइल (Israel), जॉर्डन (Jordan), सीरिया (Syria), कज़ाखस्तान (Kazakhstan), तुर्कमेनिस्तान (Turkmenistan), उज़बेकिस्तान (Uzbekistan), ताज़िकिस्तान (Tajikistan), और किर्गिस्तान (Kyrgyzstan) आदि) में भ्रमण करते हुए धर्म का उपदेश दिया। इनके द्वारा की गई यात्राओं को उदासियाँ (Udaasi) कहा गया है। गुरू नानक जी ने 31-37 वर्ष तक की अवस्था में अपनी पहली उदासी की। जो 1500-1506 ईस्वी के बीच लगभग साथ वर्षों तक की गई। उसके बाद 1506-1513 ईस्वी तक 37-44 वर्ष तक की अवस्था में दूसरी उदासी पूर्ण की। 45-49 वर्ष तक की अवस्था में (1514-1518 ईस्वी) पाँच वर्षों तक तीसरी उदासी जिसमें इन्होंने कश्मीर (Kashmir), सुमेर पर्वत (Sumer Mountains), नेपाल (Nepal), ताशकंद (Tashkent), सिक्किम (Sikkim), तिब्बत (Tibet) और रोहिलखण्ड (Rohilkhand) का भ्रमण किया। 50-52 की उम्र में 3 वर्षों (1519-1521 ईस्वी) तक अपनी चौथी उदासी (मक्का (Mecca) और अरब देशों (Arab Countries)) में की और पांचवी उदासी 54-56 वर्ष तक की अवस्था में दो वर्ष (1523-1524 ईस्वी) तक उन्होंने पंजाब (Punjab) के भीतर भ्रमण किया। यह क्षेत्र सिख धर्म के अनुयायियों के लिए तीर्थ स्थल बन गए। मध्यकालीन भारत के समाज में फैली कुरीतियों और धर्म की गलत परिभाषा से लोगों को मुक्त कर सत्य और ईश्वर का मार्ग दिखाने वाले सूफी और भक्ति संत सामाजिक और धार्मिक क्रांति ला सकते थे। लोगों को धर्म के नाम पर द्वेष और घृणा के स्थान पर भाईचारे, प्रेम और सभी धर्मों के प्रति सम्मान की भावना हर युग में आवश्यक है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3vu8u6E
https://bit.ly/38HrAfu
https://bit.ly/3eVNVdx
https://bit.ly/3qMsKNf
चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र भारत में सूफी और भक्ति आंदोलन को दर्शाता है। (clearias.com)
दूसरी तस्वीर में भारत में सूफी और भक्ति आंदोलन को दिखाया गया है। (SoloTutes)
तीसरी तस्वीर में भारत में सूफी और भक्ति आंदोलन को दिखाया गया है। (Brainly.in)
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