प्राचीन भारत की तस्वीर आज से बिल्कुल अलग थी। उस समय न ही पक्की सड़कें हुआ करती थीं और न ही उन सड़कों पर चलने वाले वाहन थे, न संचार के माध्यम उपलब्ध थे और न ही उच्च कोटी की शिक्षा पद्धति थी। घरेलू व्यवसाय और पारंपरिक उद्योगों से चलने वाली अर्थव्यवस्था सामान्य किंतु समृद्ध थी। देश सोने की चिड़िया कहलाता था। प्राकृतिक संसाधनों और प्राचीन परंपरागत शैली का प्रयोग कर कृषि, घरेलू उद्योग, हस्तशिल्प और कारीगरी ही जीवनयापन के प्रमुख माध्यम हुआ करते थे। ऐसी साधारण किंतु सफल अर्थव्यवस्था का कारण था उस समय के लोगों में एक-दूसरे के प्रति विश्वास, प्रेम और भाईचारे की भावना। जिसने कभी देश के आंतरिक ढाँचे को टूटने नहीं दिया। परंतु वर्ष 1600 में ब्रिटिश (British) ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के भारत में आने के उपरांत देश पूरी तरह से बदल गया। ब्रिटिश भारत में आए तो व्यापार के सिलसिले में थे किंतु यहाँ की समृद्धि देखने के बाद लालच में आकर देश पर अपना आधिपत्य जमा लिए। यहाँ से कच्चा माल सस्ते दामों पर विदेश ले जाना और वहाँ का तैयार माल यहाँ के बाज़ारों में महँगे दामों पर बेचना उनकी योजना का प्रथम चरण था। धीरे-धीरे उन्होंने भारत की सारे धन-सम्पदा लूट ली। इसके बाद 200 वर्षों तक सोने की चिड़िया एक गुलाम देश बनकर रह गया। इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने अपनी आवश्यकतानुसार भारत में ऐसे परिवर्तन किए जिसने न केवल देश की अर्थव्यवस्था को बल्कि भारतवासियों के जीवन को ही बदल कर रख दिया और आज स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी हम काफी हद तक उन विदेशी नीतियों को अपनाए हुए हैं। ब्रिटिश सरकार ने अपनी नीतियों के तहत भारत के पारंपरिक घरेलू उद्योगों को समाप्त कर आधुनिक विदेशी शैली के माध्यम से अपने औद्योगिक लाभ को पूरा किया। जिससे भारत एक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था बनकर रह गया जो मात्र ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था की आवश्यकता को पूरा करता था।
ब्रिटिश राज से भारत में सर्वप्रथम हस्तशिल्प उद्योग और कारीगर बर्बादी की कगार पर पहुँचे। अंग्रे़जी मशीनों के चलन में आने से भारतीय हस्तशिल्प लुप्त होता चला गया। मशीनें बडे़ पैमाने पर उत्पादन करती थीं जिससे सस्ते उत्पादों खासकर सूती वस्त्र बाज़ारों में कम दामों पर मिलने लगे। वे गुणवत्ता और मात्रा में भारतीय सामानों से बेहतर थे। इस कारण भारतीय हस्तशिल्प को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। इसके अलावा, ब्रिटिश सरकार ने भारत में रेलगाड़ी की सुविधा आरम्भ कर दी जिससे मशीनी सामान दूर गाँवों तक पहुंचने लगा और वहाँ से कच्चा माल भी आसानी से इन तक पहुँचने लगा।
ईस्ट इंडिया कंपनी की मुक्त व्यापार की नीति के अंतर्गत वे स्वयं ही व्यापार की शर्तों को निर्धारित करते थे। उन्होंने अपनी सेवाओं को प्रचलित मजदूरी के नीचे रख दिया। इस कारण भारतीय कारीगरों को बाजार मूल्य से नीचे अपना माल बेचने पर मजबूर होना पड़ा। कई कारीगर अपने पैतृक व्यापार को छोड़ने पर विवश हो गए। तत्पश्चात, ब्रिटिश सरकार ने इस नीति के तहत भारतीय वस्तुओं पर उच्च कर लगा दिए और वहीं ब्रिटिश सामानों को भारतीय बाजारों में कर मुक्त कर दिया गया। जिससे भारतीय वस्तुओं की कीमतें बढ़ गईं और उनकी बिक्री कम होती चली गई। ब्रिटिश शासन से पहले भारत कपास और कपड़ा उत्पादन में आत्मनिर्भर था परंतु बाद में यह उद्योग समाप्त होते चले गए। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय वस्तुओं के प्रशुल्क संरक्षण को समाप्त कर दिया। जैसे-जैसे ब्रिटिश सरकार ने भारत के राज्यों को अपने अधीन किया वैसे-वैसे भारतीय शासक भी अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गए। ब्रिटिश शासनकाल के विभिन्न वर्षों में भारतीय उद्योगों से वसूल किया गया कर कुछ इस प्रकार था: 1859 = 361 मिलियन रुपये (आज का मूल्य $ 5,415,000,000 (अमेरिकी डॉलर)) =1890 = 851 मिलियन रुपये (आज का मूल्य $ 12,765,000,000 (अमेरिकी डॉलर))।
वर्ष 1833 और 1835 के बीच भारत के गवर्नर-जनरल (Governor-General of India) सर विलियम बेंटिक (Sir William Bentinck) द्वारा भारत में विऔद्योगीकरण (Deindustrialization) का विचार प्रस्तुत किया गया। भारत ब्रिटेन का औपनिवेशिक राष्ट्र बन गया था और ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के बाद भारत जैसे पूर्व के औपनिवेशिक और अर्ध-औपनिवेशिक क्षेत्रों में कारीगरों और विनिर्माण गतिविधियाँ बहुत निम्न स्तर तक पहुँच गई थी।
रामपुर जिला जो कई दशकों से कपड़ा उद्योग के लिए जाना जाता था। ब्रिटिश शासनकाल में भी इसकी यह पहचान लुप्त नहीं हुई थी। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व रामपुर की रज़ा टेक्सटाइल या कपड़ा मिल (Raza Textile Mill) वहाँ की प्रमुख मिलों में सबसे आगे थी। धीरे-धीरे देश के औद्योगिक विकास के साथ कपड़ा उद्योग और इससे जुड़े रोजगार में तेजी से गिरावट आई। आज के समय में भी मशीनों द्वारा अधिक मात्रा और गुणवत्ता वाला कपड़ा बाज़ार में अधिक बिकता है। पारंपरिक उद्योग धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। इससे पता चलता है कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हमारे देश में ब्रिटिश शैली का प्रभाव बना हुआ है। हालाँकि भारतीय संस्कृति पूर्ण रूप से लुप्त नहीं हुई है परंतु हमारे तौर-तरीके, शिक्षा, स्वास्थ्य, भाषा-वस्त्र इत्यादि में अंग्रेजी संस्कृति की झलक दिखाई देती है। एक समय में लगभग 70 प्रतिशत औपचारिक रोजगार साधन उपलब्ध कराने वाला रामपुर देश के ऐसे स्थानों में से एक बन कर रह गया जो वहाँ के नवाब, ब्रिटिश सरकार और निजी कंपनियों के लिए अन्य विकास के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मात्र संसाधनों की आपूर्ति करते हैं, किंतु इन क्षेत्रों का विकास सभी के लिए एक बहस का मुद्दा बना हुआ है जिस पर कभी कोई ख़ास कदम नहीं उठाया जाता है।
संदर्भ:
https://bit.ly/30vt8os
https://bit.ly/3qzexCU
https://bit.ly/3t5b9kX
https://bit.ly/3t5bap1
चित्र संदर्भ:
मुख्य तस्वीर में रामपुर के कार्यकर्ताओं को कढाई काम करते दिखाया गया है। (प्रारंग)
दूसरी तस्वीर में एक आदमी को बर्तन बनते दिखाया गया है। (प्रारंग)
तीसरी तस्वीर में कढाई का काम दिखाया गया है। (प्रारंग)