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इसी प्रकार से ज्ञानमीमांसा की यदि बात करें तो, यह दर्शन का वह क्षेत्र है, जो ज्ञान के निर्माण से संबंधित है, तथा इस बात पर बल देता है, कि ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है? यह सत्य तक पहुंचने के सबसे वैध तरीकों की भी जांच करता है। ज्ञानमीमांसा, शोधकर्ता और वास्तविकता के बीच संबंध को निर्धारित करती है तथा यह सत्तामीमांसा की धारणाओं में समाहित है। इस प्रकार यह ज्ञान प्राप्त करने के सभी वैध पहलुओं, क्षेत्रों, और तरीकों से सम्बंधित है, जैसे कि, कैसे ज्ञान का अधिग्रहण या उत्पादन किया जा सकता है?, इसकी हस्तांतरणीयता की सीमा का आकलन कैसे किया जा सकता है? आदि। ज्ञानमीमांसा महत्वपूर्ण है, क्यों कि, यह इस बात को प्रभावित करती है कि, ज्ञान की खोज के अपने प्रयासों में शोधकर्ता अपने शोध का निर्माण कैसे कर रहे हैं? किसी विषय और वस्तु के बीच के संबंध को देखकर ज्ञानमीमांसा के विचार का अंवेषण किया जा सकता है। ज्ञानमीमांसा के वस्तुवादी विचार के अनुसार, ‘वास्तविकता’, मानव मस्तिष्क से बाहर या स्वतंत्र रूप से मौजूद है। ज्ञानमीमांसा की निर्माणवादी विचारधारा, इस विचार को नकारती है, कि वस्तुगत 'सत्य' अस्तित्व में है, और इसे खोजा जाना बाकी है। इसी प्रकार से, विषयवादी ज्ञानमीमांसा, इस विचार से संबंधित है, कि वास्तविकता को प्रतीक और भाषा प्रणालियों की एक श्रेणी में व्यक्त किया जा सकता है। पश्चिमी दर्शन में, ‘वास्तविकता’, दो अलग-अलग पहलुओं या पक्षों से सम्बंधित है, पहला पक्ष वास्तविकता की प्रकृति को संदर्भित करता है, तो दूसरा बुद्धि (साथ ही भाषा और संस्कृति) और वास्तविकता के बीच के सम्बंध को संदर्भित करता है।
वास्तविकता के संदर्भ में हिंदू दर्शन के प्रमुख विचारों की बात करें तो, इनमें ‘ब्रह्म’ को सर्वोच्च सार्वभौमिक सिद्धांत माना गया है। ब्रह्म ही ब्रह्मांड की मौलिक वास्तविकता है। हिंदू दर्शन के प्रमुख विचारों के अनुसार, ब्रह्मांड में जो कुछ भी मौजूद है, ब्रह्म ही उसका कारण है। यह वो व्यापक, अनंत, शाश्वत सत्य और आनंद है, जो कभी नहीं बदलता, लेकिन ब्रह्मांड में होने वाले सभी परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी है। एक आध्यात्मिक अवधारणा के रूप में ब्रह्म उस एकल ईकाई को संदर्भित करता है, जो ब्रह्मांड में मौजूद विभिन्न विविधताओं को एक साथ बांधता है। ब्रह्म वेदों में पाई जाने वाली एक प्रमुख अवधारणा है, और प्रारंभिक उपनिषदों में इसकी व्यापक रूप से चर्चा की गई है। वेद, ब्रह्म को लौकिक सिद्धांत के रूप में परिभाषित करते हैं। उपनिषदों में, ब्रह्म को सत्-चित्-आनंद के साथ-साथ एक रूप (साकार) और अपरिवर्तित, स्थायी, उच्चतम वास्तविकता के रूप में वर्णित किया गया है। हिंदू ग्रंथों में ब्रह्म को आत्मा की धारणा के साथ उल्लेखित किया गया है। हिंदू धर्म के द्वैतवादी विचारों के अनुसार ब्रह्म, आत्मा से अलग है, जबकि अद्वैत विचारों के अनुसार यह आत्मा के समान है, जो हर जगह और सभी प्राणियों में मौजूद है।