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किसी भी प्रकार के प्रतीक चिन्ह का उद्देश्य किसी वस्तु, स्थान या सत्व को एक विशेष पहचान या छवि प्रदान करना होता है। उदाहरण के लिए, ध्वज एक प्रतीक है जो विशिष्ट रूप से किसी देश की पहचान कराता है और उस देश से जुड़े कुछ विशेष आंतरिक मूल्य को दर्शाता है। कंपनियों (companies) के संदर्भ में उसके लोगो (logo) को उसका प्रतीक माना जाता है। विश्व में अनेक धर्म मौजूद हैं किंतु किसी एक धर्म विशेष के लिए एक अद्वितीय सार्वभौमिक प्रतीक ढूंढना थोड़ा मुश्किल हो जाता है, क्योंकि इसमें बहुत सी अवधारणाएं और मूल्य शामिल हैं जो एक छवि में प्रस्तुत करना आसान कार्य नहीं है और इसलिए इसका एकल निकाय नहीं है, जिसका एक धर्म द्वारा अनुसरण किया जाता हो। वास्तव में, एक धर्म में कई प्रतीक होते हैं जो विभिन्न मूल्यों और अवधारणाओं को प्रतीकात्मक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। एक धार्मिक प्रतीक के कई अर्थ होना संभव है या यह कई धर्मों में समान होते हैं। इसी तरह जैन धर्म में कई प्रतीक हैं जो विभिन्न आंतरिक मूल्यों को दर्शाते हैं। कई प्रतीकों के होने के बावजूद, सभी जैन संप्रदायों ने महावीर जन्मकल्याण के 2500 वें वर्ष के समारोह के अवसर पर एक ही सार्वभौमिक प्रतीक रखने का निर्णय लिया। कुछ महत्वपूर्ण जैन प्रतीक इस प्रकार हैं:
जैन ध्वज:
जैन ध्वज का उपयोग विभिन्न समारोह और जैन मंदिरों के शिखर पर किया जाता है। पांच रंगों (लाल, पीला, सफेद, हरा, नीला) के इस ध्वज के मध्य में स्वास्तिक का चित्र बना होता है जिसके ऊपर तीन बिंदु और एक चंद्र बिंदु बना है। पांच रंग सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का प्रतीक हैं। स्वास्तिक चिन्ह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, नर्क के जीव का प्रतिनिधित्व करता है। तीन बिंदु सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।
अष्ठमंगल:
अष्ठमंगल के इन चिन्हों को अनादि काल से शुभ माना जा रहा है जिसका उल्लेख कल्पसूत्र में भी किया गया है। शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक जैन को तीर्थंकर से पहले साबुत चावलों से इन प्रतीक चिन्हों को बनाना चाहिए। जैन धर्म के आठ प्रतीकों के विषय में विभिन्न परंपराओं में कुछ भिन्नता है।
दिगंबर परंपरा के आठ प्रतीक हैं:
(i) परसोल (v) आईना
(ii) ध्वज (vi) आसन
(iii) कलश (vii) हाथ का पंखा
(iv) चमार (viii) पात्र
श्वेतांबर परंपरा के आठ प्रतीक हैं:
(i) स्वास्तिक (v) भद्रासन (आसन)
(ii) श्रीवत्स (vi) मत्स्य युग्म
(iii) नंदावर्त (vii) कलश
(iv) वर्धमानक (भोजन पात्र) (viii) दर्पण
ओउम:
संस्कृत शब्द ओउम पांच स्वरों से मिलकर बना है जैन धर्म के इसका उपयोग श्रद्धेय व्यक्तियों को नमन करने के लिए किया जाता है।
सार्वभौमिक जैन प्रतीक चिन्ह:
इस प्रतीक चिह्न का रूप जैन शास्त्रों में वर्णित तीन लोक के आकार जैसा है। इसका निचला भाग अधोलोक, बीच का भाग- मध्य लोक एवं ऊपर का भाग- उर्ध्वलोक का प्रतीक है। इसके सबसे ऊपर भाग में चंद्राकार सिद्ध शिला है। अनन्तान्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान इस सिद्ध शिला पर अनन्त काल से अनन्त काल तक के लिए विराजमान हैं।
जैन मूर्तिकला में अधिकांशत: निवस्त्र ध्यान मुद्रा में बैठे ऋषि होते हैं। जैन कला में लोकप्रिय विषयों और प्रतीकों में तीर्थंकर (जैन उद्धारक, या मानव जिन्होंने परम आध्यात्मिक उद्धार प्राप्त किया और समाज के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में कार्य किया), यक्ष और यक्षिणी (अलौकिक पुरुष और महिला अभिभावक), और पवित्र प्रतीक जैसे कमल और स्वस्तिक, जो शांति और कल्याण का प्रतीक थे, को शामिल किया गया था। सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त विभिन्न मुहरों पर छपे आंकड़े जैन छवियों के समान हैं: नग्नावस्था एवं ध्यान मुद्रा। सबसे पुरानी ज्ञात जैन प्रतिमा पटना संग्रहालय में रखी गयी है, जो लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की है। श्री दिगंबर जैन बड़ा मंदिर (Shri Digamber Jain Bada Mandir) हस्तिनापुर का सबसे पुराना जैन मंदिर है। मुख्य मंदिर वर्ष 1801 में बनाया गया था। इसकी स्थापना के बाद से यह पूरे देश में जैनियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल रहा है। यह कई महत्वपूर्ण स्मारकों और मंदिरों से बना हुआ है जो जैन मूर्तिविज्ञान का समर्थन करते हैं।
अष्ठमंगल और श्रीवत्स जैसे प्रतीक चिन्ह जैन धर्म में ही नहीं वरन् हिन्दू और बौद्ध धर्म में भी विशेष स्थान रखते हैं। अष्टमांगलिक चिह्नों के समूह को अष्टमंगल कहा गया है। आठ प्रकार के मंगल द्रव्य और शुभकारक वस्तुओं को अष्टमंगल के रूप में जाना जाता है। अष्टमंगल हिंदू, जैन, और बौद्ध धर्म जैसे कई धर्मों के लिए आठ शुभ संकेत का एक पवित्र समूह है। यह "प्रतीकात्मक गुण" (चक्रसेन) यिदम (वज्रयान बौद्ध सम्प्रदाय के देवता) और शिक्षण उपकरण हैं। यह प्रतीक न केवल प्रबुद्ध बौद्धिक गुणों को इंगित करते हैं वरन् यह वे कारक हैं जो इन प्रबुद्ध "गुणों" को अलंकृत करते हैं। अष्टमंगल के कई सांस्कृतिक संस्मरण और रूपांतर हैं।
हिंदू परंपरा इन्हें इस प्रकार सूचीबद्ध किया गया है:
(i) सिंह (राजा) (v) वैजयंती माला
(ii) वृषभ (बैल) (vi) भेर (केतली)
(iii) नाग (vii) व्यजन (पंखा)
(iv) कलश (viii) दीपक
प्राचीन भारत में आठ शुभ प्रतीकों का उपयोग राजाओं के राज्याभिषेक जैसे समारोहों में किया जाता था। प्रारंभ में इन प्रतीकों में: सिंहासन, स्वास्तिक, हाथ की छाप, सिरा मुक्त बंधन, गहनों का फूलदान, जल-मदीरा की सुरही, मछलियों का जोड़ा, कलश शामिल थे। बौद्ध धर्म में, ईश्वर द्वारा सौभाग्य के ये आठ प्रतीक बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के तुरंत बाद प्रसाद स्वरूप दिए गए थे। हिंदू परंपरा में, अष्टमंगल का उपयोग कुछ विशेष अवसरों पूजा, विवाह (हिंदुओं का) आदि के दौरान भी किया जाता है।
श्रीवत्स एक प्राचीन प्रतीक है जिसे भारतीय धार्मिक परंपराओं में शुभ माना जाता है। श्रीवत्स का अर्थ "श्री की प्रिया" अर्थात देवी लक्ष्मी है। यह विष्णु की छाती पर एक निशान है जहां उनकी पत्नी लक्ष्मी निवास करती हैं ऐसा कहा जाता है कि विष्णु के दसवें अवतार, कल्कि में उनके सीने पर श्रीवत्स का निशान होगा। यह विष्णु सहस्रनाम में विष्णु के नामों में से एक है। श्रीवत्स आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और कर्नाटक में एक लोकप्रिय नाम है।
बौद्ध धर्म में, श्रीवत्स को अधिदेवता (यिदम) की विशेषता बताया गया है। तिब्बती बौद्ध धर्म में, श्रीवत्स को एक त्रिकोणीय भंवर या एक सिरा मुक्त बंधन के रूप में दर्शाया गया है। चीनी परंपरा में, बौद्ध प्रार्थना की माला के मोती अक्सर इस बंधन में बंधे होते हैं। 80 माध्यमिक विशेषताओं की कुछ सूचियों में, यह कहा जाता है कि बुद्ध का हृदय श्रीवत्स से सुशोभित है।
जैन मूर्तिकला विज्ञान में, श्रीवत्स अक्सर तीर्थंकरों की मूर्ति में उनके वक्ष पर चिह्नित किया जाता है। यह जैन धर्म में पाए जाने वाले अष्टमंगलों (आठ शुभ प्रतीकों) में से एक है। हेमचंद्र के त्रिगुणसूत्रपालपुरचरित (Trīṣaṣṭiśalākāpuruṣacaritra ) और महापुराण (Mahapurana ) जैसे विविध ग्रंथों में इसका उल्लेख किया गया है। आचार्य दिनकर अपने मध्ययुगीन ग्रन्थ में बताते हैं कि सर्वोच्च ज्ञान तीर्थंकरों के हृदय से श्रीवत्स के रूप में उभरा है, इसलिए उन्हें इस प्रकार चिह्नित किया गया है।
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