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भारत में मुगल सत्ता कमज़ोर होने के पश्चात क्षेत्रीय शासकों ने क्षेत्र विशेष पर कब्ज़ा कर शासन करना शुरू कर दिया, तत्पश्चात इन शासकों को हराकर अंग्रेज़ों ने 100 वर्षो तक भारत पर शासन किया। समाज के अन्य सभी पहलुओं की तरह ही भारत के उपनिवेशण (colonization) का वास्तुकला (architecture) पर भी बहुत प्रभाव पड़ा। अंग्रेज़ों ने भारत को अपने घर जैसा माहौल देने के लिए, अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता के प्रदर्शन तथा भारतीय लोगों से दूरी बनाए रखने हेतु यूरोपीय शैली को अपनाया। इस प्रकार भारत पर यूरोपीय शक्तियों के आधिपत्य के साथ ही स्थापत्य में भी यूरोपीय प्रभाव पड़ना शुरू हो गया और उपनिवेशीकरण ने भारतीय वास्तुकला में एक नया अध्याय को जोड़ा। हालांकि अंग्रेज़ों के अलावा डच (Dutch), पुर्तगाली (Portuguese) और फ्रांसीसी (French) लोगों ने अपनी इमारतों के माध्यम से अपनी उपस्थिति भारत में दर्ज की थी परंतु इनका भारत की वास्तुकला प्रभाव स्थायी नहीं रहा जैसा कि अंग्रेजी वास्तुकला का रहा। भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न परिक्षेत्रों में फ्रांसीसी व्यवसाय का आगमन "फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी" (‘French East India Company) के आगमन के साथ हुआ, जिसे 1664 में एक वाणिज्यिक उद्यम (commercial enterprise) के रूप में स्थापित किया गया था और 1719 तक इसकी सफल स्थापना हुई। इसी दौरान भारत में फ्रांसीसी वास्तुकला का प्रभाव पड़ा। इसी प्रकार पुर्तगाली 1498 में भारत में आये और अंततः गोवा पर नियंत्रण प्राप्त किया जहां उन्होंने चार शताब्दियों तक शासन किया। 1961 में भारतीय सशस्त्र बलों ने गोवा में लगभग 450 वर्षों के पुर्तगाली शासन को समाप्त कर दिया और इसके परिणामस्वरूप गोवा, दमन और दीव का भारतीय संघ में विलय हो गया। परंतु इन संस्कृतियो की वास्तुकला का प्रभाव सीमित और अस्थायी रहा।
भारतीय स्थापत्यकला पर सर्वाधिक स्थायी प्रभाव ब्रिटिश स्थापत्य का पड़ा। उनकी विरासत कोलकाता, चेन्नई, दिल्ली इत्यादि नगरों में निर्मित इमारतों तथा संरचनाओं में वर्तमान समय में भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। ब्रिटिश शासन की शुरुआत में शास्त्रीय प्रतिकृति (classical prototype) के माध्यम से प्राधिकरण बनाने के प्रयास किए गए थे। इसके बाद के चरण में अंग्रेज़ों ने ‘इंडो-सारासेनिक’ (Indo-Saracenic) जैसी यूरोपीय शैलियों की इमारतें बनवाई। इंडो-सारासेनिक वास्तुकला ने हिंदू, इस्लामी और पश्चिमी तत्वों की विशेषताओं को जोड़ा। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन के उत्तरवर्ती चरण के दौरान औपनिवेशिक स्थापत्य कला पर इंडो-सारासेनिक शैली का प्रभाव परिलक्षित था। यह पुनरुद्धार शैली थी जिसमें मुख्यतः मुगल स्थापत्य कला के साथ यूरोपीय स्थापत्य शैली और हिन्दू शैली के तत्वों को मिश्रित किया गया। यह सार्वजनिक और सरकारी इमारतों जैसे डाकघरों, रेलवे स्टेशनों, विश्राम गृह और सरकारी भवनों आदि तथा देशी रियासतों के शासकों के महलों इत्यादि में प्रतिबिंबित हुई। इस प्रकार पूरे साम्राज्य पर बड़ी संख्या में ऐसी इमारतें बननी शुरू हुईं जिसने न केवल भारत में औपनिवेशिक वास्तुकला का विकास किया, बल्कि भारत में मौजूदा वास्तुकला से प्रेरणा भी ली। इसकी कुछ विशेषताओं में कंदाकार गुम्बद, नुकीले मेहराब, गुंबददार तथा घुमावदार छतें, झरोखा, बुर्ज, छोटी मीनारें, लाल और सफेद रंग, इत्यादि सम्मिलित हैं।
इस शैली के प्रभाव से अपना रामपुर भी अछूता नहीं रहा, यद्यपि इस शैली की वास्तुकला उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विकसित और अपनाई गई थी, लेकिन यह रामपुर में महल सराय पैलेस (Mahal Sarai Palace) और खुसरो बाग महल (Khusro bagh palace) में भी देखी जा सकती है, जिनका निर्माण 1774 से 1800 के बीच हुआ था। बाद में लगभग 1905 ई.पू. में डब्ल्यू. सी. राईट (W. C. Wright), जिसे एक प्रमुख अभियंता के रूप में जाना जाता है, ने महल सराय पैलेस को फिर से बनाया, इसलिए आज यह वास्तुकला की इंडो-सारासेनिक और एंग्लो-इंडियन (anglo-indian) शैलियों के मिश्रण को दर्शता है। महल सराय पैलेस का एक फोटो (Photo) लार्ड कर्ज़न (Lord Curzon) की रामपुर एल्बम (Rampur Album) में देखने को मिलता है जोकि एक अज्ञात फोटोग्राफर (photographer) द्वारा 1905 में लिया गया था। जब 1905 ईस्वी में लार्ड कर्ज़न (Lord Curzon) रामपुर की यात्रा करने आए थे, तो उन्होंने नवाब हामिद अली खान (Hamid Ali Khan) के लिये पैलेस परिसर को फिर से बनाया। राइट की इस वास्तुकला को 'इंडो-सारासेनिक' कहा जा सकता है, क्योंकि यह इस्लामी, हिंदू और गोथिक पुनर्जागरण (Gothic revival) के तत्वों को संश्लेषित करती है, जो 19 वीं शताब्दी के अंत और 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में भारत में कई सार्वजनिक इमारतों में इस्तेमाल की जाने वाली शैली थी। 8 जून 1905 को रामपुर के नवाब द्वारा लार्ड कर्ज़न कों इमारतों की तस्वीरों वाली किताब भेंट स्वरूप दी गई, जिसमें महल सराय पैलेस की भी एक तस्वीर शामिल थी। जो उनकी रामपुर शहर यात्रा की कहानी को प्रदर्शित करती है और उस समय की वास्तुकला के महत्व को दर्शाती है। यह कर्जन की यात्रा का ऐतिहासिक रिकॉर्ड नहीं बल्कि रामपुर के प्रमुख दृश्य हैं।
अन्य प्रमुख इंडो-सारासेनिक वास्तुकला शैली, जिसे एंग्लो-इंडियन के रूप में भी जाना जाता है, उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से यह एंग्लो-इंडियन (Anglo-Indian) कला बिल्डरों (builders) के लिए इंग्लैंड में गोथिक कला के कई संयोजनों के पुनरुत्थान द्वारा निर्धारित मॉडल का पालन करने के लिए एक आदर्श बन गया। यह शैली, नियो (Neo) गोथिक शैली से व्युत्पन्न हुई है, जो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ब्रिटेन में आधुनिक राष्ट्रीय शैली के रूप में अपनाया गयी थी। भारतीय परंपराओं को प्रतिबिंबित करने वाली इस औपनिवेशिक वास्तुकला ने शांति का नेतृत्व किया, जो राजनीतिक अशांति के खिलाफ सुरक्षा संबंधी चिंताओं का अपेक्षाकृत सीधा समाधान प्रदान कराती है। जिसे उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ब्रिटेन में आधुनिक राष्ट्रीय शैली के रूप में अपनाया गया था। जिसमें गॉथिक शैली की सजावटी विशेषताओं पर जोर दिया गया और भारतीय परंपराओं को समायोजित किया। सर बार्टले फ्रेरे (Sir Bartle Frere) जो 1862 से 1867 तक, बॉम्बे (Bombay) के गवर्नर (Governor) रहे, तथा गिल्बर्ट स्कॉट (Gilbert Scott) जो ब्रिटेन के गोथिक पुनरुद्धार के प्रमुख वास्तुकारों में से एक थे, ने भारत में इंडो-गोथिक शैली को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इंडो-गोथिक शैली का उपयोग बड़े पैमाने पर बॉम्बे प्रेसीडेंसी (Presidency) तक ही सीमित रहा। इनके द्वारा किये गये आधुनिकरण के कारण शहर को महानगर के रूप में दर्जा प्राप्त हुआ। विक्टोरिया टर्मिनस (Victoria Terminus) यानी की छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस (Terminus) शहर के सबसे बडे इंडो-गोथिक इमारतों में से एक माना जाता है जो विक्टोरियन गोथिक पुनर्जागरण और पारंपरिक भारतीय वास्तुकला का अनूठा मेल है। विक्टोरिया टर्मिनस का निर्माण एंग्लो-इंडियन वास्तुकला पर आधारित है। इनमें 16 नक्काशीदार भारतीय सिरे शामिल हैं जो शहर की विविध आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं और बाएं खंड को केंद्रीय खंड से जोड़ते हैं। इसके अलावा टर्मिनस का मुख्य भाग, 10 टेराकोटा (Terracotta) चित्र से सजाया गया है। इस शैली ने विनीशियन गोथिक (Venetian Gothic) परंपरा का भी अनुसरण किया। उदाहरण के लिए खुले बरामदे, जो भारी मानसूनी बारिश से सुरक्षा प्रदान करते हैं तथा कार्यालयों को सूरज की तपन से भी बचाते हैं। इस प्रकार इस शैली ने शहर के निर्माण कार्यक्रम के संयुक्त नेतृत्व को प्रतिबिंबित किया। इटालियन गॉथिक (Italian Gothic) को भी भारत में परिस्थितियों के अनुकूल माना गया जो की इंडो-सारासेनिक वास्तुकला का एक रूप थी। बॉम्बे विश्वविद्यालय (Bombay University) के लिए सर गिलबर्ट स्कॉट द्वारा दी गई अनुशंसित वास्तुकला शैली ने औपनिवेशिक वास्तुकला को 'भारतीय' बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शायद यह वास्तव में शाही शैली की शुरुआत थी जो नई दिल्ली में अपने शीर्ष पर पहुंच गई।
अंग्रेजों ने आगरा, बांकीपुर, भोपाल, मुम्बई, कलकत्ता, दिल्ली, हैदराबाद, कराची, मद्रास और नागपुर जैसे शहरों में अपनी गहरी छाप छोड़ी। इस दौर में ब्रिटिश वास्तुकला के साथ एक नई स्थापत्य शैली का विकास देखा गया जिसे इंडो-सारासेनिक कहा गया, इसे इंडो-गोथिक (Indo-Gothic), नव-मुगल (Neo-Mughal), मुगल-गोथिक (Mughal-Gothic) और हिंदू-गोथिक (Hindu-Gothic) के नाम से भी जाता गया। चेन्नई (भूतपूर्व मद्रास) में स्थित चेपॉक पैलेस (Chepauk Palace) पहली इंडो-सारासेनिक इमारत थी। चेन्नई की कई अन्य इमारतों में इस वास्तुकला को दर्शाया गया है जिसे अब हेरिटेज इमारतों (Heritage buildings) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जिनमें 'मद्रास उच्च न्यायालय' Madras High Court(), 'चेन्नई सेंट्रल स्टेशन' (Chennai Central Station) और 'विक्टोरिया पब्लिक हॉल' (Victoria Public Hall) शामिल हैं। इस अनूठी शैली को प्रदर्शित करने वाली भारत की अन्य प्रमुख इमारतों और संरचनाओं में मुंबई में 'ताज महल पैलेस होटल' (Taj Mahal Palace Hotel), 'मैसूर पैलेस' (Mysore Palace), कलकत्ता में 'विक्टोरिया मेमोरियल' (Victoria Memorial - रानी विक्टोरिया की स्मृति को समर्पित यह स्मारक सफेद संगमरमर की सुंदरता और भव्यता से बना है तथा विलियम इमर्सन (William Emerson) द्वारा डिजाइन किया गया था), और अमृतसर में 'खालसा कॉलेज' (Khalsa College) शामिल हैं।
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