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भाषा एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति, समूह या संस्कृति अपने भावों और विचारों को व्यक्त कर पाती है। किंतु यदि, इन भावों या विचारों को हस्तांतरित करना हो तो, इसके लिए सदैव एक लिपि की भी आवश्यकता होती है। लिपि किसी भी भाषा का लिखित स्वरूप है तथा पूरे विश्व भर में इसका इतिहास उतना ही पुराना है, जितना कि मानव सभ्यता का। भारत में भी लिपि का इतिहास बहुत प्राचीन है, जो अनेकों लिपियों के विकास को संदर्भित करता है। यहां सबसे प्राचीन लिपि के साक्ष्य सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त हुए हैं, जिसे ‘सिंधु लिपि’ का नाम दिया गया है। कुछ विद्वानों का मानना है कि, सिंधु प्रणाली, ब्राह्मी लिपि से सम्बंधित है, जबकि कुछ मानते हैं कि, यह द्रविड़ भाषा से संबंधित थी। भारत की दूसरी प्राचीन लिपि, ‘ब्राह्मी लिपि’ है, जिसे वर्तमान भारतीय लिपियों (देवनागरी, बंगाली, तमिल, मलयालम आदि) का प्रवर्तक भी माना जाता है। इस लिपि के प्राचीन उदाहरण उत्तर-मध्य भारत में अशोक के रॉक-कट (Rock cut) अध्यादेश हैं, जो 250-232 ईसा पूर्व के हैं। कई विद्वान मानते हैं कि, ब्राह्मी संभवतः एरामैक (Aramaic) प्रभाव से उत्पन्न हुई है, जबकि कुछ का मानना है कि, यह सिंधु लिपि से प्रभावित है। इसका उपयोग प्राकृत भाषा को लिखने के लिए किया गया था। बाद में संस्कृत लिखने के लिए भी यह लिपि उपयोग में लायी गयी। उत्तरी और दक्षिणी भारत में ब्राह्मी, दो व्यापक प्रकारों में विकसित हुयी। उत्तरी भारत में इसका अधिक कोणीय रूप देखने को मिला, जबकि, दक्षिणी भारत में यह अधिक गोलाकार रूप में दिखायी दी। इस लिपि को सबसे पहले जेम्स प्रिंसेप (James Prinsep) ने 1838 में समझा था। लिपियों के दो प्रमुख परिवार हैं, पहला ‘देवनागरी’, जो उत्तरी और पश्चिमी भारतीय भाषाओं (हिंदी, गुजराती, बंगाली, मराठी, डोगरी, पंजाबी, आदि) का आधार है, और दूसरा ‘द्रविड़यन’ जो ग्रन्थ और वट्टेलुतु (Vatteluttu) के स्वरूपों को दर्शाता है। ब्राह्मी लिपि की समकालीन लिपि, ‘खरोष्ठी’ है, जिसका उपयोग भारत की गांधार संस्कृति में किया गया था। इस कारण इसे गांधारी लिपि भी कहा गया। भारत की अन्य प्राचीन लिपि ‘गुप्त लिपि’ है, जिसका उपयोग गुप्त काल में संस्कृत लिखने के लिए किया गया। गुप्त लिपि ने ‘नागरी लिपि’ को जन्म दिया, जो कि, इसका पूर्वी संस्करण मानी जाती है।
नागरी, देवनागरी लिपि का प्रारंभिक रूप है, जिसका उपयोग प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं को लिखने के लिए किया गया। यह वर्तमान में मानक हिंदी और नेपाली लिखने के लिए मुख्य लिपि है तथा दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली लेखन प्रणाली में से एक है। 8 वीं शताब्दी के आसपास गुप्त लिपि से ‘सारदा लिपि’ का भी विकास हुआ, जिसका उपयोग संस्कृत और कश्मीरी लिखने के लिए किया गया। इसके अलावा ‘सिद्धमत्रिका लिपि’ (कुटिला) का विकास भी गुप्त लिपि से ही माना जाता है। सिद्धमत्रिका लिपि 6 वीं शताब्दी ईस्वी में पूर्वी भारत में प्रमुख थी और इसने ‘गौड़ी लिपि’ के विकास का भी नेतृत्व किया। 10 वीं शताब्दी के दौरान पश्चिमी भारत में ‘लंडा लिपि’ का विकास हुआ, जिसने ‘गुरमुखी लिपि’ को भी जन्म दिया। लंडा, सारदा लिपि से विकसित हुई जबकि, गुरमुखी को सिख धर्म के गुरु अंगद द्वारा 16 वीं शताब्दी के दौरान मानकीकृत किया गया। इसी प्रकार से दक्कन (Deccan) में मोदी लिपि और गुजराती लिपि तथा दक्षिण भारत में ग्रंथ लिपि, वट्टेलुतु लिपि, कदंब लिपि, तमिल लिपि, कन्नड़ लिपि, तेलुगु लिपि, मलयालम लिपि आदि विकसित हुई। मध्यकालीन और आधुनिक लिपियों में उर्दू लिपि और संताली लिपि शामिल हैं। भारत में इतनी बड़ी संख्या में लिपियों के प्रचलन के विभिन्न कारण हो सकते हैं। जैसे स्मारकीय शिलालेखों के लिए किये जाने वाले तीव्र दैनिक लेखन में वृद्धि ने कर्सिव (Cursive) शैलियों को जन्म दिया, जो भारत की आधुनिक लिपियों में विकसित हो गया। इसी प्रकार से लेखन के लिए प्रयुक्त सामग्री भी एक अन्य कारण हो सकती है। उदाहरण के लिए दक्षिण भारत में, लिपियाँ पत्तों पर लिखी गयी और परिणामस्वरूप, अधिक गोलाकार दिखायी दीं, जबकि उत्तर भारत में, कपड़े और बिर्च (Birch - सनौबर) की छाल पर लिखने से लिपि का कोणीय रूप अस्तित्व में आया। इसके अलावा क्षेत्रीय भाषाई अंतर भी विभिन्न लिपियों के विकास का कारण बने।इस प्रकार भारत की अद्भुत भाषाई विविधता भले ही खुद को कई रूपों में दर्शाती हो, लेकिन भाषाई पहचान को स्पष्ट रूप से लिपियों के द्वारा ही उजागर किया जा सकता है। भारत में 20 वीं शताब्दी के आरंभ में, भाषाई राष्ट्रवाद के विस्तार के साथ इन भाषाओं की विशिष्टता को चिह्नित करने के लिए अद्वितीय लिपियाँ आईं, जिसने इस अवधारणा को इंगित किया कि, प्रत्येक भाषा को स्वतंत्र होने के लिए एक अद्वितीय लिपि की आवश्यकता होती है। यह अवधारणा अभी भी कायम है, हालांकि, विविधता अपने साथ चुनौतियों लेकर भी आती है। यूरोपीय शैली के राष्ट्रवाद ने, पारंपरिक रूप से भाषाओं और लिपियों के बीच एकता की आवश्यकता पर जोर दिया है, क्यों कि, एक सामान्य लिपि एक निश्चित सांस्कृतिक सामंजस्य प्रदान करती है। लेकिन वास्तविक दुनिया में, ऐसा करना शक्तिशाली सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों की अनदेखी करना होगा, जो संभवतः नहीं किया जा सकता। सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों के संतुलन को नुकसान पहुंचाए बिना, भारत की भाषाओं के बीच चित्रमय खाई को कम करने के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-मद्रास के एक समूह ने एक एकीकृत इंडिक (Indic) लिपि ‘भारती’, का निर्माण किया है, जिसे भाषाओं के बीच एक मध्यस्थ लिपि के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, उसी तरह जैसे लैटिन (Latin) लिपि का उपयोग अधिकांश यूरोपीय (European) भाषाओं द्वारा किया जाता है।
भारती, नौ भारतीय लिपियों (कम से कम 12 भाषाओं में शामिल) में लिखे गए शब्दों को प्रस्तुत करने में सक्षम है, जिनमें देवनागरी, पूर्वी नागरी (असमिया + बंगाली), गुजराती, गुरमुखी, कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगु आदि शामिल हैं। इस प्रकार यह लिपि, भाषाओं के बीच अंतर को कम करने में मददगार सिद्ध होगी।