हिंदू कला में हिंदू धर्म से जुड़ी कलात्मक परंपराओं और शैलियों को शामिल किया गया है और इनका हिंदू धर्म ग्रंथों, अनुष्ठानों और पूजा के साथ धार्मिक जुड़ाव का एक लंबा इतिहास रहा है। भारत के वास्तुशिल्प, मूर्तिकला, कला और शिल्प की जड़ें भारतीय सभ्यता के इतिहास में बहुत गहरी प्रतीत होती हैं। यदि भारत में कला का विकास देखा जाये, तो सिन्धु घाटी की सभ्यता से ही प्रारम्भ हो चुका था, भारत की सिंधु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ों के बड़े-बड़े जल कुण्ड प्राचीन मूर्तिकला का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। परन्तु इसको कई साल लगे एक आयाम पकड़ने के लिए।
हिंदू देवी-देवताओं का प्रारंभिक चित्रण (तीसरी-दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व): माना जाता है कि पत्थर की मूर्तिकला को अपनाने से पहले भारतीय देवताओं की मूर्तियां मिट्टी या लकड़ी का उपयोग करके बनाई जाती थीं, जो नाजुक होती थी, इसी कारण आज इनके अवशेष नहीं देखे जाते। लेकिन एक अप्रत्यक्ष साक्ष्य मौर्य साम्राज्य के कुछ पंच-चिन्हित (Punch-Marked) सिक्कों में दिखाई देता है, बलराम (Balarama) की प्रतिमा का प्राचीनतम अंकन एक मौर्य काल के पंच-चिन्हित सिक्के से ही मिलता है। इसके अलावा इंडो-ग्रीक राजा अगथोकल्स (Indo-Greek King Agathocles) के सिक्के भी हैं, जिनमें भारतीय देवताओं की छवि देखने को मिलती है। इसलिये यह माना जाता है कि देवी-देवताओं की प्रारंभिक मूर्तिकला, सिक्कों से पहले से ही अस्तित्व में थी, जिन्होंने सिक्कों पर उत्कीर्णकों के लिए प्रतिरूप का कार्य किया।
शुरुआती चित्रण (पहली शताब्दी ईसा पूर्व): करीब 100 ईसापूर्व के समय में मथुरा मूर्ती विज्ञान की नयी परंपरा का प्रादुर्भाव हुआ और यह वही समय था जब अमरावती, साँची आदि का निर्माण होना शुरू हुआ था। मथुरा की कला (Art of Mathura) में मूर्ति शिल्पों ने अधिक जटिल दृश्यों का प्रतिनिधित्व करना शुरू कर दिया था। इस समय कुछ शिल्प जैसे कि "कतरा मेहराब की नक्काशी" (Katra architrave) संभवतः ब्राह्मणों और शिव लिंग के पंथ का प्रतिनिधित्व करते थे। हजारों वर्षों तक शिल्पियों ने मथुरा कला की साधना की जिसके कारण भारतीय मूर्ति शिल्प के इतिहास में मथुरा का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। कुषाण काल से मथुरा विद्यालय कला क्षेत्र के उच्चतम शिखर पर था।
कुषाण काल के अंतर्गत हिंदू कला (दूसरी-तीसरी शताब्दी ई.पू.): पहली से दूसरी शताब्दी ई.पू. तक हिंदू कला पूरी तरह से विकसित होने लगी थी। इस काल में हिंदू कला को मथुरा की बौद्ध कला में पहली प्रेरणा मिली। परन्तु कुषाण काल के समय में, हिंदू कला ने बौद्ध कला के सामान्य संतुलन और सादगी के विपरीत, हिंदू मूल की शैलीगत और प्रतीकात्मक तत्वों की गहराई को शामिल किया। इस कारण मूर्ति कला की एक नई शैली ने जन्म लिया। कालान्तर में भारतीय परम्परा में सबसे बड़ा बदलाव कुषाणों के काल में आया। यह वह दौर था जब भारतीय मूर्तिविज्ञान और मुद्राविज्ञान अपनी नयी ऊँचाई को छूने की ओर अग्रसर हुआ। मथुरा से प्राप्त विष्णु की प्रतिमा जो कि द्वितीय शताब्दी ईस्वी. की है, भारत के प्राचीनतम विष्णु प्रतिमाओं में से एक मानी जाती है। यहाँ से जो समय शुरू हुआ वह भारतीय मूर्ती विज्ञान में एक नया आयाम जोड़ता है।
गुप्त काल के अंतर्गत हिंदू कला (चौथी-छठी शताब्दी): भारतीय कला के इतिहास में गुप्त काल को इसलिए महान युग कहा जाता है- क्योंकि कलाकृतियों की संपूर्णता और परिपक्वता जैसी चीज़ें इससे पहले कभी नहीं रहीं। गुप्त कला अध्यात्मिक गुणों से युक्त थी और गुप्तकाल का प्रारंभिक दौर हिंदू कला पर ज़ोर देता है। गुप्त साम्राज्य को हिन्दू मूर्तियों का विकास करने वालों के रूप में जाना जाता है। अतः यदि गुप्तकाल को मूर्तिकला का उत्कृष्ट काल कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
गुप्त सम्राटों के संरक्षण में भागवत धर्म का पूर्ण विकास हुआ परंतु उनकी सहिष्णुता की नीति ने अन्य धर्मों एवं संप्रदायों को फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया। इस काल में विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, स्कंद, कुबेर, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, आदि विभिन्न हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। परंतु गुप्त शासक वैष्णव मत के उपासक थे। अतः उनके समय में भगवान विष्णु की बहुसंख्यक प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। इसके उदाहरण विष्णु की 5वीं शताब्दी पुरानी मूर्ति है जो कि चतुरानन शैली की है। इस प्रतिमा को तीन सिर वाले विष्णु को उकेरा गया है। इसमें विष्णु के विश्वरूप को मानव सिर के साथ दिखाया गया है और उनके अन्य स्वरूपों में से वराहावतार (Varaha) तथा नरसिंह (Narasimha) को दिखाया गया है। विष्णु की अन्य प्रतिमाएं जैसे विष्णु वैकुंठ चतुर्मूर्ति (Vaikuntha Chaturmurti) भी तीन-सिरों (पीठ की तरफ चौथे सिर के साथ) के रूप में दिखती हैं। चौथी शताब्दी से विष्णु की कई प्रतिमाएँ बननी शुरू हुई और ये विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी थी जैसे कि विष्णु चतुरानन, इसमें वासुदेव-कृष्ण की विशेषताओं को दर्शाया गया है और कंधों पर एक किरणों का पुंज भी लगाया गया है।
भगवान विष्णु, हिन्दू त्रिदेवों में से एक देव हैं, जिनकी महत्वता अत्यंत ही ऊंची है। गहरे समुद्र में रहने वाले विष्णु भगवान को तीनों लोकों के रक्षक के रूप में जाना जाता है। इन्हें अक्सर चार-सशस्त्र पुरुष के रूप में चित्रित किया जाता है, जिसमें इनकी चार भुजाएं उनके सर्व-शक्तिशाली और सर्व-व्यापी स्वभाव को दर्शाया गया है। सामने की दो भुजाओं के माध्यम से विष्णु का भौतिक अस्तित्व दर्शाया गया है जबकि पीछे की दो भुजाएँ आध्यात्मिक दुनिया में उनकी उपस्थिति का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनके चारों हाथ शंख (Conch (जो उत्पत्ति का प्रतीक है और इसका नाम पंच-जन्य (Pancha-janya) है, जिसमें से पाँच तत्वों के सिद्धांतों का विकास हुआ)), चक्र (Discus (जो जीवन का प्रतीक है जिसका केंद्र परिवर्तनहीन और गतिहीन वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करता है)), गदा (Mace (कौमुदीकी (Kaumudiki) जो मौलिक ज्ञान (आद्या-विद्या) का प्रतीक है, कौमुदीकी की तुलना काल की शक्ति काली से की जाती है)) और पद्म या कमल (Lotus) (जो विकसित ब्रह्मांड और सृष्टि के विस्तार का प्रतिनिधित्व करता है, कमल पवित्रता, आध्यात्मिक धन, प्रचुरता, वृद्धि और उर्वरता का प्रतीक है) से सुशोभित हैं। इनका गला चमकीला और शंख के आकार का है और माथे के बीच में तिलक लगा है, जो आकाश में अर्धचंद्र की तरह प्रकाशमान है।
वे सुनहरे रंग के रेशमी वस्त्र (पीताम्बर) से सुशोभित रहते हैं जोकि ब्रह्मांड में कृपा, सुंदरता और आनंद का प्रतीक हैं। इनकी त्वचा का रंग आकाश जैसा नीला है, जो सर्व-व्यापक प्रकृति को दर्शाता है। इनके सीने पर ऋषि भृगु (Bhrigu) के पैरों के निशान हैं। भगवान विष्णु के हृदय में स्थित महर्षि भृगु का ये पद-चिह्न उपासकों में सदा के लिये श्रद्धास्पद रहे हैं। इसके अलावा उनकी छाती पर श्रीवत्स (Srivatsa) का निशान है। इसे विष्णु की योगिक शक्तियों (योग शक्ति) का प्रतीक कहा जाता है। यह प्राकृतिक दुनिया के स्रोतों और मूल प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। विष्णु की छवि को कई बार धनुष शारंग (Saranga) तथा बाणों या तलवार नन्दक (Nandaka) से संपन्न दिखाया है। इनकी यह तलवार एक शक्तिशाली हथियार है, जो अज्ञानता को नष्ट करती है।
कहा जाता है कि जब भी पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, तब भगवान विष्णु एक विशेष रूप में बुराई को नष्ट करने के लिए जन्म लेते हैं। चाहे वह मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम हों या श्रीकृष्ण, वे हर युग में पृथ्वी पर रहे हैं। भगवान विष्णु को मुख्य रूप से 10 अवतारों में दिखाया जाता है जो की इस प्रकार से हैं-
सतयुग (Satya Yuga) में मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह (Matsya, Kurma, Varaha, Narasimha)
त्रेता युग (Treta Yuga) में वामन, परशुराम, राम (Vamana, Parashurama, Rama)
द्वापर युग (Dwapara Yuga) में गौतम बुद्ध और कृष्ण (Gautam Buddha, Krishna)
कलियुग (Kali Yuga) में कल्कि (Kalki)
इन सभी अवतारों की मूर्तियों आदि को पहचानने का अपना एक तरीका है, जो कि विभिन्न वास्तुकला और मूर्तिविज्ञान के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित हैं:
मत्स्यावतार में भगवान विष्णु ने मछली के रूप में अवतार लिया था, जो उनके दस अवतारों में से प्रथम है। इस रूप में इनका नीचे का आधा शरीर मछली का है। कूर्म अवतार में विष्णु को कछुए जैसा दिखाया गया है। कूर्म के अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्रमंथन के समय मंदार पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। वराह अवतार में विष्णु को जंगली सुअर के मुख और मनुष्य के धड़ के रूप में दिखाया गया है, जिसमें वे पृथ्वी को अपने दांत पर उठाकर खड़े होते हैं. जब राक्षस हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को चुरा कर, जल में छिपा दिया था तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर राक्षस को मार डाला और पृथ्वी को उसके स्थान पर पुनर्स्थापित किया। इनको अक्सर पृथ्वी को उठाए हुये दर्शाया जाता है। मूर्तिकला में आमतौर पर वराह पृथ्वी के पुनर्स्थापक के प्रतीकात्मक दृश्य दिखाई देते हैं। एक अन्य सिद्धांत में वराह को कृषि की भूमि के साथ जोड़ता है। इसके अलावा विभिन्न सिद्धांत में वराह को ओरियन तारामंडल (Orion Constellations) के साथ भी जोड़ा जाता है।
नरसिंह अवतार में विष्णु को आधे शेर और आधे मनुष्य के रूप में दिखाया जाता है, जिनका सिर एवं धड़ तो मानव का था लेकिन चेहरा एवं पंजे सिंह की तरह थे। ये भारत में वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा पूजे जाते हैं, जो विपत्ति के समय अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं। इनकी प्रतिमाओं में इनको अक्सर दुष्ट हिरण्यकश्यप (Hiranyakashyap) का वध करते हुए दर्शाया जाता है। कभी-कभी इनको एक स्तंभ से बाहर निकलते हुये भी दिखाया जाता है। नरसिंह की सबसे पहली ज्ञात प्रतिमा दूसरी और चौथी शताब्दी के मध्य की है, ये उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh), मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) और आंध्र प्रदेश (Andra Pradesh) में पायी गयी है। इनकी प्रतीमा के कुछ महत्वपूर्ण प्राचीन और मध्ययुगीन साक्ष्य कश्मीर (Kashmir) के वैकुंठ चतुर्मूर्ति और मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के खजुराहो (Khajuraho) के मंदिरों में मिलते हैं। विष्णु की कुछ प्रतीमाएं सबसे पुराने हिंदू मंदिरों में, जैसे कि तिगावा (Tigawa) और एरन (Eran) (मध्य प्रदेश) में पाई जाती हैं, जो 5वीं शताब्दी की शुरुआत की हैं, इसमें विष्णु के अन्य अवतार के साथ नरसिंह भी शामिल हैं। वामन विष्णु के पाँचवे तथा त्रेता युग के पहले अवतार थे। यह उनका पहला अवतार था जब वे मानव रूप में प्रकट हुए। वे बौने ब्राह्मण के रूप में अवतरित हुये थे। परशुराम (रामायण काल) एक ब्राह्मण ऋषि के यहां जन्मे थे। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। इनके हाथों में शिवजी द्वारा प्रदत्त एक परशु रहता है। भगवान विष्णु के सातंवे अवतार श्री राम थे, जिनको हमेशा धनुष बाण और पत्नी सीता (Sita) तथा भाई लक्ष्मण (Lakshmana) के साथ दर्शाया जाता है। भगवान गौतम बुद्ध बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति थे, इन्हें अक्सर एक साधारण साधु व तपस्वी के रूप में दर्शाया जाता है। कृष्ण अवतार को हमेशा मोर पंख और बांसुरी के साथ दर्शाया जाता है।
विश्वरूप अवतार में विष्णु को अपने सभी दसों अवतार के साथ दिखाया जाता है। यह भव्य चित्रण उनके सार का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड शामिल है, इनकी आरंभिक प्रतिमायें गुप्त काल (6वी शताब्दी ई.पू.) की मिलती हैं। विश्वरूप की पहली ज्ञात छवि (430-60 ईस्वी) मथुरा स्कूल की एक गुप्तकालीन प्रतिमा है, जो भानकरी (Bhankari), अंगार (Angarh) जिले से मिली थी। इनमें दर्शाए गए देवताओं में शिव, ब्रह्मा, गणेश, हनुमान, इंद्र, अग्नि देव, सूर्य देव, चंद्र देव, पवन देव, कुबेर, वरुण, यम और ब्रह्मा के तीन पुत्र शामिल हैं। इसके अलावा गुप्त काल से वैकुंठ चतुर्मूर्ति अवरतार की प्रतिमायें भी देखने को मिलती हैं। चार सिरों वाले विष्णु की अवधारणा सबसे पहले हिंदू महाकाव्य महाभारत (Mahabharata) में दिखाई दी, लेकिन पहली बार 5वीं शताब्दी के पंचरात्र (Pancharatra) पाठ में एक प्रतिमा मिली थी, जिसमें विष्णु के साथ उनके अवतार वराह और नरसिंह को भी दर्शाया गया था। 8-12वीं शताब्दी में कश्मीर में वैकुंठ चतुर्मूर्ति प्रतिमायें विकसित होना शुरू हुई, खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर में भी (10वीं शताब्दी) चंदेला (Chandela) साम्राज्य काल की वैकुंठ चतुर्मूर्ति प्रतिमायें देखी गयी हैं।