रामपुर शहर एक अत्यंत ही प्राचीन और महत्वपूर्ण शहर है, यहाँ पर दुनिया भर से अनेको लोग ऐतिहासिक रूप से आते रहे हैं। यह शहर व्यापार का भी केंद्र रह चुका है तथा यहाँ से भारत के अन्य शहरों में भी व्यापार होता था। रामपुर शहर में इत्र का भी व्यापार भारत के विभिन्न हिस्सों से होता था, जिसका विवरण रामपुर की राजकुमारी मेहरुन्निसा खान ने अपनी जीवनी में किया है। रामपुर के नवाबों को इत्र और सुगंध से ख़ासा प्रेम था और इसका उदाहरण हमें यहाँ के विभिन्न स्थानों जैसे कोठी ख़ास बाग़ और रजा पुस्तकालय के सामने स्थित बगीचों को देख कर मिल जाता है। इसके अलावा और भी कई स्थान थे जहाँ पर यहाँ के नवाबों ने उद्यानों का निर्माण किया था। भारत में प्रमुख इत्र बनाने वाले शहर कन्नौज, जौनपुर, गाजीपुर व लखनऊ आदि थे जहाँ से रामपुर में इत्र मंगाया जाता था। इत्र को दूसरे शब्द में ‘अतर’ के नाम से भी जाना जाता है, यह मुख्य रूप से वनस्पति स्त्रोतों से प्राप्त अयस्क है। इत्र को पुष्पों आदि के तेलों से बनाया जाता है, जिसको भाप के माध्यम से निकाला जाता है।

इत्र बनाने के तेल को सबसे पहले ऐतिहासिक रूप से इब्न सीना नामक फ़ारसी चिकित्सक ने बनाया था, जिन्होंने फूलो पर आसवन विधि का प्रयोग किया था। इत्र को वर्तमान समय में रासायनिक विधियों से बनाया जाता है परन्तु प्राकृतिक इत्र अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करते हैं तथा वे बहुत ही महंगे भी होते हैं। इत्रों में एक अन्य पदार्थ भी है, जिसे इत्र के आधार के रूप में प्रयोग किया जाता है और वह है कस्तूरी महक, यह मूल रूप से कस्तूरी मृग से प्राप्त होती है, इसके अलावा कुछ पौधों से और रासायनिक क्रिया से भी इस महक की प्राप्ति की जा सकती है। कस्तूरी मूल रूप से कस्तूरी नामक हिरन के नाभी में स्थित एक ग्रंथि होती है, यह दुनिया के सबसे महंगे पशु सम्बंधित पदार्थों में से एक है।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक पशु द्वारा प्राप्त कस्तूरी का इस्तेमाल इत्र बनाने के लिए किया जाता था, कस्तूरी के इस विशेष सुगंध का कारण है उसमे पाया जाने वाला कार्बनिक यौगिक ‘मस्कान’। भारत की बात की जाए तो यह अत्यंत ही प्राचीन काल से प्रयोग में लाया जाता जा रहा है तथा इसका इतिहास करीब 60 हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों में इसका विवरण हमें देखने को मिलता है, 18 पुराणों में से एक ‘अग्नि पुराण’ में 150 से अधिक किस्मों के सुगंध का विवरण हमें प्राप्त होता है। प्राचीन भारत में जो महिलायें इत्र का निर्माण किया करती थी उनको ‘गंध्कारिका’ या ‘गंधिका’ के नाम से जाना जाता था। भारत में इत्र बनाने का सबसे प्राचीनतम उदाहरण हमें वृहत संहिता में देखने को मिलता है।

प्राचीन मिश्र (Egypt) वासी इत्र बनाने के लिए प्रसिद्ध थे, वे पौधों और पुष्पों से इत्र का निर्माण किया करते थे। भारत में मुग़ल शासकों ने बहुत ही बड़े पैमाने पर इत्र का प्रयोग किया था, यही कारण था कि भारत में मुग़ल काल के दौरान इत्र में कई विकास हमें देखने को मिले। अबुल फजल अपनी पुस्तक ‘आईने अकबरी’ में इत्र और अगरबत्ती के प्रयोग के विषय में विस्तार से बताते हैं। मुग़ल सम्राट अकबर के पास इत्र के लिए एक पूरा विभाग कार्यरत था। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि गुलाब से इत्र बनाने की परंपरा की खोज मुग़ल रानी नूरजहाँ ने की थी हांलाकि इस विषय पर मतभेद है और कुछ इतिहासकार यह भी कहते हैं की वास्तव में इसकी खोज उनकी माता अस्मत बेगम ने की थी, जो की फारस (Persia) की रहने वाली थी। अवध क्षेत्र में वहां के शासक गाजी उद दीन हैदर शाह भी इत्र के शौक़ीन थे तथा उन्होंने अपने शयन कक्ष में इत्र के फव्वारे भी लगवाए थे। इत्र का सांस्कृतिक रूप से भी बड़ा महत्व है और पूर्वी देशों में इत्र को मेहमानों को जाते वक्त दिया जाता था। सूफी संतों के सम्मेलनों के दौरान भी इत्र का प्रयोग किया जाता था। भारत में किसी के मृत्यु होने के बाद उसके शव के ऊपर भी इत्र छिड़का जाता है। इत्र को विभिन्न प्रकार से लगाया भी जाता है, इसको कलाई के नीचे लगाया जाता है तथा उसी को कलाई के सहारे ही कान के पीछे भी लगा लिया जाता है। इत्र का प्रयोग हमारे संस्कृति का आज हिस्सा बन चुका है तथा रामपुर से इसका इतिहास अतीव प्रचलित है।