रामपुर का रजा पुस्तकालय भारत के सबसे प्रमुख पुस्तकालयों में से एक है, यह पुस्तकालय आज भारत में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान बनाये हुए हैं। यह पुस्तकालय मात्र पुस्तकों से ही नहीं बल्कि अपने वास्तु के लिए भी जानी जाती है जो की अत्यंत ही महत्वपूर्ण इंडो-सारसैनिक (Indo-Saracenic) कला को प्रस्तुत करता है। इस पुस्तकालय में गणित के कई प्राचीन अरबी भाषा की कृतियाँ है जिसमें की पाण्डुलिपि, शिलालेख आदि का एक अत्यंत ही विशाल संग्रह है। आज भी यहाँ पर रखी किताबें हमें प्राचीन गणित के विषय में जानकारी प्राप्त करने का एक अत्यंत ही सुगम साधन प्रदान करती है। भारत देश ने गणित के विकास में एक अहम् योगदान का निर्वहन किया है और हम यह भी कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृतियों के विकास में गणित का एक अत्यंत ही अहम् योगदान था। भारतीय उपमहाद्वीप में उपजे गणितीय सिद्धांतों ने एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण योगदान को विश्वस्तर पर निभाया है, उदाहरण के लिए हम शून्य की खोज को ही देख सकते हैं। यह वर्ष एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण समय है। भारतीय गणितीय परंपरा के विषय में बात करने का कारण की भारत इस वर्ष गणित से सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन की मेजबानी करेगा। यह एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण समय है इस विषय पर बात करने का कि भारत ने आजतक गणित के क्षेत्र में क्या उपलब्धियां प्राप्त की और उन उपलब्धियों ने किस प्रकार से सम्पूर्ण विश्व में एक गहरी छाप छोड़ी।
भारत की बात की जाए तो यहाँ पर गणित का इतिहास करीब 3000 वर्ष पुराना है, भारत ने शून्य के अलावा त्रिकोणमिति, बीजगणित, अंकगणित, और ऋणात्मक संख्याओं आदि के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह भारतीय गणित परंपरा थी जिसने दशमलव के विषय में जानकारी दी जिसने आज पूरी की पूरी संख्या व्यवस्था को अत्यंत ही महत्वपूर्ण मजबूती प्रदान की है। भारत में संख्या प्रणाली की जानकारी हमें वेदों से मिलती हैं जिनमें विभिन्न संख्याओं का विवरण देखने को मिलता है, यह हमें करीब 1200 ईसापूर्व तक ले जाता है। भारत में तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण लिपि का जन्म हुआ जिसे की हम ब्राह्मी के नाम से जानते हैं। इस लिपि में भी संख्याओं का वर्णं हमें दिखाई देता है। भारत में ही लिखित भक्षाली पांडुलिपि से शून्य की अवधारणा का सूत्रपात होता है, यह गणित पर लिखी प्राचीनतम पुस्तकों में से एक है। शून्य की अवधारणा हमें ग्वालियर किले के चतुर्भुज मंदिर के अन्दर मिले अभिलेख से भी मिलता है जिसमे शून्य शब्द लिखित अवस्था में मौजूद है। शून्य की खोज ने गणित के लिए नए आयामों को खोल दिया।
गणित में व्याप्त द्विघात की अवधारणा का भी सुत्रपात भारत से ही हुआ और यहीं के सातवीं शताब्दी के ब्रह्मसुदा सिद्धांत में देखने को मिलता है इसका प्रतिपादन खगोलशास्त्री ब्रह्मगुप्त ने किया था। ब्रह्मगुप्त ने ही नकारात्मक संख्या के नियमों का भी प्रतिपादन किया था जो कि सकारात्मक संख्याओं को ऋण में दिखाने में सक्षम था। इसी सिद्धांत के साथ भाग के भी सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ। गणना या कैलकुलस (Calculus) के विषय में नकारात्मक और अन्य गणनाओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया, वर्तमान समय में लिबनिज (Leibniz) ने जिस सिद्धांतों को बताया उसे 500 वर्ष पहले ही भारतीय गणितज्ञ भास्कर ने दे दिया था। 1300 सन के करीब केरल में माधव ने कई कार्य कैलकुलस के क्षेत्र में किये।
भारतीय गणित को विभिन्न कालों में बात गया है-
प्राचीन गणित (3000-600 ईसा पूर्व)
जैन गणित (600 ईसा पूर्व से 500 ईस्वी)
ब्राह्मी संख्या और शून्य
भारतीय गणित का स्वर्णिम युग (500 ईस्वी से 1200 ईस्वी)
आधुनिक युग
उपरोक्त लिखित बिन्दुओं से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत में गणित एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण और विकसित विषय था और गणित के क्षेत्र में भारत द्वारा दिया गया योगदान आज भुलाया नहीं जा सकता है।
चित्र सन्दर्भ:
1. मुख्य चित्र में प्राचीन भारत का शून्य के रूप में गणित में योगदान दिखाया गया है। (Prarang)
2. दूसरे चित्र में भारत द्वारा महान गणितज्ञ रामानुजन के सम्मान में जारी डाक टिकट दिखाया गया है। (Wikimedia)
3. अंतिम चित्र में वैदिक गणित का कलात्मक अभिप्राय है। (Prarang)
सन्दर्भ :
1. https://theconversation.com/five-ways-ancient-india-changed-the-world-with-maths-84332
2. https://www.esamskriti.com/e/Spirituality/Education/A-brief-history-of-Indian-Mathematics-1.aspx
© - , graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.