मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव ने प्रकृति में पायी जाने वाली कई धातुओं का उपयोग करना शुरू किया। सबसे पहले उन्होंने वस्तुओं के निर्माण के लिए पत्थरों का उपयोग किया, किंतु जैसे-जैसे उन्हें प्रकृति में मौजूद अन्य धातुओं का पता चला वैसे-वैसे इन धातुओं के विकास की ओर बढ़ते चले गये तथा इनके उपयोग से विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करने लगे। इस क्रम में पाषाण युग और कांस्य युग के बाद, लौह युग आया जब मानव ने लोहे की खोज करके विभिन्न वस्तुओं का निर्माण किया। वर्तमान उत्तर भारत की प्रमुख लौह युग की पुरातात्विक संस्कृतियाँ चित्रित ग्रे वेयर संस्कृति (Painted Grey Ware culture - 1300 से 300 ईसा पूर्व) और उत्तरी ब्लेक पॉलिश वेयर (Northern Black Polished Ware - 700 से 200 ईसा पूर्व) हैं। पुरातत्वविदों के एक समूह ने 2015 में तेलंगाना में छोटे चाकू सहित कई लोहे की कलाकृतियों की खोज की, जो 1,800 ईसा पूर्व से 2,400 ईसा पूर्व की थी। लोहे का उपयोग और लोहे का काम मध्य गंगा मैदान और पूर्वी विंध्य में प्रारंभिक दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से प्रचलित था। दक्षिण भारत में सबसे पहले लौह युग की साइटें (Sites) हैलूर, कर्नाटक और आदिचनल्लूर, तमिलनाडु हैं, जो लगभग 1000 ईसा पूर्व की हैं।
लौह जहां विभिन्न वस्तुओं के निर्माण के लिए आवश्यक हो गया है वहीं यह हमारे अस्तित्व के लिए भी महत्वपूर्ण है। लौह शरीर के हीमोग्लोबिन (Hemoglobin) का एक महत्वपूर्ण घटक है जो रक्त को लाल रंग प्रदान करता है। यह न केवल मानव के लिए बल्कि वनस्पतियों के लिए भी आवश्यक है। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में फ्रांसिसी रसायनज्ञ और चिकित्सक निकोलस लेमरी (Nicholas Lemery) ने जली हुई घास की राख में लोहे की खोज की। जिसके बाद यह ज्ञात हुआ कि लौह पौधों की संरचना का महत्वपूर्ण घटक है। पौधों में यह क्लोरोफिल (Chlorophyll) निर्माण तथा श्वसन एंज़ाइमों (Enzymes) के लिए आवश्यक है।
प्राचीन काल में सोने से अधिक लोहे का भण्डारण किया जाता था। यहां तक कि उस समय केवल सबसे कुलीन वर्ग ही लोहे से बनी चीज़ें पहन सकता था। समय के साथ, धातु विज्ञान के विकसित हो जाने से लौह और भी अधिक सस्ता तथा आसानी से उपलब्ध होने लगा। माना जाता है कि लौह के रूप में मनुष्य ने जिस धातु का सबसे पहले उपयोग किया, वो पृथ्वी से उत्पन्न नहीं हुआ था, दरअसल वो पृथ्वी से टकराने वाले उल्कापिंडों से प्राप्त हुआ लोहा था। उल्कापिंड संबंधी लोहे से काम करना तुलनात्मक रूप से आसान था, और लोगों ने इससे आदिम उपकरण बनाना सीखा। पहले हज़ारों टन लौह से युक्त उल्का पदार्थ हर साल पृथ्वी की सतह से टकराते थे। एक समय पर अमेरिकियों ने भी उल्कापिंड में बहुत अधिक रुचि दिखाई, क्योंकि उन्हें लगा था कि उल्का पिंडों में प्लैटिनम (Platinum) भी पाया जाता है। उस समय उल्का के औद्योगिक दोहन के लिए एक शेयरधारक कंपनी भी स्थापित की गई, किंतु इसके नमूनों में प्लैटिनम नहीं पाया जा सका। समय के साथ लोहे की मांग बढ़ने लगी और इसलिए लोहे को अयस्कों से निकालने का प्रयास किया गया और कांस्य युग के बाद लौह युग का जन्म हुआ। पृथ्वी की भू-पर्पटी में लगभग 5% या 755,000,000,000,000,000 टन लौह पाया जाता है।
लौह के मुख्य अयस्क खनिज मैग्नेटाइट (Magnetite), लौह स्टोन (Iron stone), भूरा हेमाटाइट (Brown Hematite) और सिडेराईट (Siderite) हैं। मैग्नेटाइट और लाल हेमाटाइट में क्रमशः 72% और 70% लोहा होता है। शुरूआत में अयस्क से लौह निकालने की तकनीक ज्यादा विकसित नहीं थी परंतु वक्त के साथ इसमें कई सुधार होते गये। धीरे-धीरे लोहे की मांग अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में भी बढ़ने लगी और उस समय यूराल (Ural) का लोहा बहुत मूल्यवान था। लोहे की मांग को पूरा करने के लिये कई अयस्क भंडारों की खोज की गई। प्रौद्योगिकी में लोहे का उपयोग सबसे अधिक 19वीं शताब्दी के अंत में देखा गया। 1778 में पहला लोहे का पुल बनाया गया, इसके बाद 1788 में लोहे से बनी पहली पाइप लाइनें बिछाई गईं। 1818 में पहली बार लोहे से बना जहाज़ लॉन्च (Launch) किया गया। समय के साथ धीरे-धीरे अनेकानेक कई लौह उपकरण तैयार किये गये।
लोहे में एक कमी है कि यह जंग की वजह से खराब हो जाता है। इस दौर में इससे बचने के लिए कई उपाय खोजे गये और इस बारे में भी जानने की कोशिश की गयी कि प्राचीन काल में इस समस्या को कैसे हल करते थे। इसका एक उपाय टिन की कोटिंग (Tin coating) है, जिसका उल्लेख यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस (Herodotus - 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व) के कार्यों में मिलता है। भारत में इस समस्या के निवारण के लिए 1600 वर्षों से कई उपाय अपनाये जाते आ रहे हैं। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण भारत की राजधानी में स्थित लौह स्तम्भ है, जिसे गुप्त वंश के राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा बनवाया गया था। यह स्तम्भ 1600 वर्ष से भी अधिक पुराना है, जिस पर आज तक जंग नहीं लगी है। भारत में लौह युग की शुरूआत अंतिम हड़प्पा संस्कृति काल से हुई थी। रेडियो कार्बन (Radio Carbon) तिथियों के आधार पर उत्तर भारत में लोहे का प्रारम्भ 1800 और 1000 ईसा पूर्व तथा दक्षिण भारत में 1000 ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है। लोहा जहां कई वस्तुओं के निर्माण के लिए ज़रूरी है वहीं एक स्वस्थ शरीर के लिए भी आवश्यक है।
संदर्भ:
1.https://archive.org/details/VenetskyTalesAboutMetals/page/n73/mode/2up
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Iron_Age_in_India
3.https://rampur.prarang.in/posts/2511/history-of-iron
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