समय - सीमा 267
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1. बाहुदंड – पहले जमीन पर घुटने टेककर बैठे। पैरों के पंजे जुटे हुए हों। घुटनों से एक हाथ, एक बीत्ता और चार अंगुल आगे दोनों हाथों के पंजे जमीन पर टिकाएं। दोनों हातहों के तलवों में एक फूट का अंतर रहे, कमर ऊपर नीचे ना हो और सारा शरीर आड़े डंडे के समान एक रेखा में सरल और सीधा रहे। इसी हालत में सारे शरीर को खूब धीरे धीरे हाथों पर ऊपर नीचे करें। सावकाशता और सरलता ही इस दंड का मुख्या रहस्य है। शरीर को नीचे ले जाते हुए छाती नीचे ना ले जायें और ऊपर उठते हुए भी छाती को पहले ऊपर ना करें। इस बाहुदंड से भुजाओं के स्नायु (Muscle) अत्यंत बलवान, पुष्ट, निर्दोष और घुमावदार बनते हैं।
2. भुजंगदंड – इस दंड में टिकाये हुए घुटनों से एक हाथ, एक बित्ता ही आगे दोनों हाथों के पंजे को जमीन पर टिकाएं। हाथों में अंतर पूर्ववत ही हो। पर पों के तलवे जमीन पर पूरे टिके हुए हों। इस दंड में कमर आप ही पहाड़ की चोटी की तरह ऊँची हो जाती है। फिर नीचे जाते हुए पहले छाती नीचे ले जाएँ और ऊपर उठते हुए सांप की तरह छाती ऊपर करके उठें और जहां तक हो सके, सीधे आकाश की ओर ताके।
3. कंधे उठाव – दोनों हाथ पीछे की ओर कमर पर बंधे रखकर, सामने से कमर से थोडा झुकें; अनंतर दोनों हाथों को (हाथों की पकड़ बिना छोड़े) एक साथ नेताम्ब के नीचे सीधे ले जायें। इससे कंधे आप ही ऊपर उठेंगे, जैसा कि चित्र में दिखाया गया है। इससे कंधों के स्नायु बहुत पुष्ट और सुडौल होते हैं।
गर्दन दायें – उपर्युक्त रीति से कंधे उठे होने की अवस्था में ही सिर को दायें और उसी प्रकार बायें घुमाना होता है।
गर्दन ऊपर और गर्दन नीचे – ऊपर की स्थिति में ही सिर को यथासंभव नीचे झुकाकर ठोड़ी को कंठकूप में लगाया जाता है और इस संकेत के साथ सिर ऊपर उठाकर यथासंभव पीछे की ओर ले जाएँ एसा करते में दृष्टि आकाश की ओर सीधे हो जानी चाहिए।
4. कमरतान बाहर-भीतर – दोनों पावों के मध्य एक हाथ का अंतर रखकर सीधा खड़े हों। अनंतर कमर से झुककर दोनों हाथों की उँगलियों से पैरों से जहाँ तक दूर आगे हो सके, जमीन पर टिकाएं। घुटनों को मुड़ने ना दें। पीछे दोनों हाथ पैरों के बीच जितना अन्दर ले जा सकें ले जाएँ और भूमि को स्पर्श करे। इससे कंधे, ऊरू, जंघा और बगलें विकाररहित होती हैं।
5. बैठक धीमे – दोनों पावों के बीच एक बित्ता अंतर रखकर, एडियों को उठाकर, सामने बिना झुके, बहुत धीरे धीरे नीचे जाएँ और जांघों पर ना बैठकर जंघा और ऊरू के मध्य एक या दो अंगुल का फासला रखे। अनंतर उठते हुए – घुटनों को मिलाकर तुरंत उठे और एडियों को भूमि पर टिकाएं। इस बैठक से ऊरू-प्रदेश का बहुत ही जल्दी और बहुत सुडौल गठन होता है।
6. आगे पाँव – छाती आगे की ओर करके सीधे खडा रहें और दायाँ पैर सावकाश ऊपर सम्कोंद बनाते हुए उठाएं। इसके तुरंत बाद दायाँ पैर नीचे करके बायाँ पैर ऊपर उठाएं।
7. पीछे पाँव – इसमें प्रत्येक पैर, एक के बाद दूसरा, पीच की और समकोण में उठाएं।
सन्दर्भ:-
1. जालन, घनश्यामदास 1882 कल्याण योगांक गोरखपुर,यु.पी.,भारत गीता प्रेस