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कपड़ों और वस्तुओं को सजावटी रूप देने के लिये इन्हें विभिन्न कढ़ाईयों के द्वारा सुसज्जित किया जाता है। ज़री भी इन कढ़ाईयों में से एक है। इस शब्द का मूल फारसी भाषा में है। वास्तव में ज़री पारंपरिक परिधानों में इस्तेमाल होने वाला सोने या चांदी से बना एक धागा है जिसे विशेषतौर पर साड़ियों और घाघरों के बॉर्डरों (Borders) पर कढ़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि कपड़ों पर ज़री इस्तेमाल करने की यह परंपरा मुगल युग के दौरान शुरू हुई थी। वैदिक काल में भी इस कढ़ाई का उपयोग राजाओं, देवताओं आदि के द्वारा महलों, पालकियों, हाथियों, घोड़ों आदि को सजाने के लिये किया गया। मोटे तौर पर इस हस्तकला को तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। पहला शुद्ध ज़री, जिसे शुद्ध सोने और चांदी के तारों से बनाया जाता है। दूसरा, कृत्रिम ज़री, जिसे सिल्वर इलेक्ट्रोप्लेटेड (Electroplated) ताम्बे के धागों से बनाया जाता है। और तीसरा, धातु ज़री जिसे अन्य धातुओं से निर्मित किया जाता है। चूंकि समय के साथ सोने और चांदी की कीमतें बहुत ही अधिक बढ़ती गयीं इसलिए अधिकांश कपड़ों की ज़री को सूती, पॉलिएस्टर (Polyester) या रेशम के धागों से बनाया गया। रेशम की साड़ियों और घाघरों में ज़री का इस्तेमाल सामान्य है।
ज़री कढ़ाई का यह कार्य ज़रदोज़ी के नाम से जाना जाता है जो ईरान, अज़रबैजान, इराक, कुवैत, तुर्की, मध्य एशिया, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में कढ़ाई का एक प्रकार है। इस कढ़ाई को मुख्यतः रेशम, साटन या मखमल के कपड़े पर किया जाता है। इसे और भी सुंदर रूप देने के लिये कढ़ाई में मोती और कीमती पत्थरों का भी प्रयोग किया जाता है। लखनऊ, फर्रुखाबाद, चेन्नई, भोपाल सहित यह हस्तकला रामपुर में भी बहुत लोकप्रिय है। रामपुर अपनी ज़री कढ़ाई कला के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। ज़रदोज़ी हस्तकला का जीवन बहुत लंबा है और ऐतिहासिक रूप से इसे ‘सलमे सितारे का काम’ भी कहा जाता है। इस कढ़ाई को करने वाले समुदाय जिन्हें ज़रदोज़ कहा जाता है, ने इस पारंपरिक हस्तकला को उभारने और व्यापक बनाने के लिये इस पर ध्यान केंद्रित कर अपनी हस्तकला में सोने के तारों को शामिल किया। ज़रदोज़ी पैटर्न (Pattern) की बारीकियों की जांच करके यह समझा जा सकता है कि किस तरह से आज का ज़रदोज़ समुदाय नये-नये डिज़ाइनों (Designs) और रूपांकनों के माध्यम से धातु की इस पारंपरिक कढ़ाई को बनाए रखने के लिए पुरज़ोर प्रयास करता है। किंतु बढ़ती प्रौद्योगिकी और मशीनों (Machines) ने इस हस्तकला को लगभग समाप्त कर दिया है। पीढ़ी दर पीढ़ी इसका निर्माण कार्य कम होता जा रहा है। कच्चे माल की उच्च लागत के कारण 17वीं शताब्दी से इस हस्तकला ने एक कठिन दौर देखना शुरू किया। उच्च लागत के कारण कारीगर इसकी सामग्री को आसानी से खरीद नहीं सकते थे। इसलिये इसके निर्माण कार्य में कमी आने लगी। ज़रदोज़ी के लिये प्रसिद्ध रामपुर में यह पारंपरिक हस्तकला अचानक समाप्त होने की कगार पर है। ज़रदोज़ी से जुड़े श्रमिकों के अनुसार उन्हें शिक्षित नहीं किया जाता और वे गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (Goods and Services Tax - GST) से भी अवगत नहीं हैं जिससे उन्हें अपनी जीविका चलाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।रामपुर की ज़रदोज़ी से जुड़े लेख प्रारंग पहले भी प्रदर्शित कर चुका है। हमारे पुराने लेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गये लिंक पर क्लिक करें।
https://rampur.prarang.in/posts/243/Zarodozi-of-Rampur---Tools-and-Compositions
https://rampur.prarang.in/posts/234/Zarodozi-in-Rampur---embroidery-and-technique
इस कढ़ाई को करने के लिये बहुत अधिक श्रम और लागत की आवश्यकता होती है और विभिन्न तकनीकों और मशीनों के आ जाने से अब कोई भी इस कला में रूचि नहीं ले रहा है। लोग इस कार्य को करने में खुश नहीं हैं और तकनीकों और मशीनों का उपयोग करने वाले अन्य उद्योगों से जुड़ रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी इसकी लोकप्रियता में कमी आने की वजह से यह अब अपने अंत के करीब है जिसे इसे बनाये रखने लिये कुशल प्रशिक्षण और ज़री हस्तकला को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Zari
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Zardozi
3. https://heritage-india.com/silver-gold-story-zardozi/
4. https://bit.ly/2JACJm9
5. https://bit.ly/2Ggyeeq