कुंडलिनी योग, योग का एक रूप है जो हिंदू धर्म के शक्तिवाद और तंत्र विद्याओं से प्रभावित है। यह मंत्र, तंत्र, यंत्र, योग या ध्यान के नियमित अभ्यास के माध्यम से कुंडलिनी ऊर्जा को जागृत करने का ज्ञान देता है। सूक्ष्म ऊर्जाओं की भागीदारी के कारण कुंडलिनी योग को अक्सर योग के सबसे खतरनाक व शक्तिशाली रूप में पहचाना जाता है।
कुंडलिनी, रीढ़ की नींव पर स्थित एक आध्यात्मिक ऊर्जा या जीवन शक्ति को कहा जाता है, जिसे एक कुंडलित सर्प के रूप में माना जाता है। कुंडलिनी योग का अभ्यास रीढ़ की हड्डी में रहने वाले छह चक्रों के माध्यम से सातवें चक्र, या मुकुट चक्र में सो रही कुंडलिनी शक्ति को जगाने के लिए किया जाता है। चक्र ऊर्जा का स्रोत हैं, जिसके साथ ऊर्जा या प्राण, पूरे शरीर में ऊर्जा वितरित करती हैं। यह ऊर्जा इदा (बाएं), पिंगाला (दाएं) और केंद्रीय, या सुषुम्ना नाड़ी में बहती है- शरीर में प्राणिक ऊर्जा की मुख्य प्रणाली यही है।
इन दिनों कुंडलिनी योग कई परंपराओं का एक संश्लेषण है। कुंडलिनी योग में किये जाने वाली क्रिया और ध्यान को पूरे शरीर, तंत्रिका तंत्र, और दिमाग को कुंडलिनी ऊर्जा के लिए तैयार करने के लिए करते हैं। कई भौतिक मुद्राओं को नाभि, रीढ़ और ऊर्जा बिंदु पर दबाव डालके केंद्र बिंदु को सक्रिय करने के लिए किया जाता है। सांस के काम (प्राणायाम) और ऊर्जा के योगिक तालों (बांधों) के माध्यम से, कुंडलिनी ऊर्जा के प्रवाह की मुक्ति, दिशा और नियंत्रण को प्राप्त किया जाता है।
कुण्डलिनी शक्ति के व्यक्त होने के साथ वेघ उत्पन्न होता है। उससे जो पहला स्फोट होता है उसे नाद कहते है। नाद से प्राकश होता है और प्रकाश का व्यक्त रूप महाबिंदु है। जीवसृष्टि में उत्पन्न होने वाला जो नाद है वही ओंकार है और उसी को शब्द-ब्रह्म कहते है। ओंकार से 52 मात्राएँ उत्त्पन्न हुईं। इनमें से 50 अक्षरमय हैं, 51वीं प्रकाशरूप है और 52वीं प्रकाश का प्रवाह है। इन 50 मातृकाओं ककी अव्यक्त स्थिति का स्थान सहस्त्रार चक्र है। यही श्री शिव-शक्ति का स्थान है।
इन मातृकाओं के स्थान शरीर में कहाँ-कहाँ हैं?
अ, आ, कवर्ग, ह - कंठस्थान
इ, ई, चवर्ग - तालुस्थान
ऋ, रवर्ग - मूर्घस्थान
ल, लृ, ल, स, तवर्ग – दन्तस्थान
उ,ऊ,पवर्ग - ओष्ठस्थान
वामकेश्वरतंत्र में यह वर्णन है कि मस्तक में सहस्त्रार चक्र है, वैसा ही मूलाधार में भी है और कुण्डलिनी जिन स्वयंभू लिंगो को लपेटकर बैठी है, वे स्वयंभू लिंग इसी मूलाधार के सहस्त्रनाम में है। ऊपर जिन रुद्रग्रंथी और ब्रहम्ग्रंथी का उल्लेख किया गया है, उनके विषय में इन तंत्र में ये कहा गया है कि रुद्रग्रंथी मूलाधार के समीप है और ब्रहम्ग्रंथी विशुध्वारव्य के समीप है।
अब संक्षेप में इन 7 चक्रों का वर्णन करते हैं-
पहला मूलाधारचक्र है; इसके चार दल हैं, देवता ब्रह्मदेव हैं। ये चार दल प्राणशक्तिरूप योगनाड़ी की सहायता से उत्पन्न हुई चार आकृतियाँ हैं। इनमें प्राणशक्ति के साथ कुण्डलिनी प्रस्रत होती है। प्राणशक्ति का जब लय होता है तब इन दलों का भी लय होता है। इन दलों पर जो भातृकाएँ या अक्षर हैं वे कुण्डलिनी के रुप हैं। कुण्डलिनी स्वयं, इस चक्र के नीचे त्रिकोणाकृति अभिचक्र में अवस्थित स्वयम्भूलिद्ध से साढ़े तीन वल्योर्म लिपटी हुई सुप्तावस्था में बढ़ी है। इस स्वयम्भू-लिंग को घेरे हुए अग्निचक्र त्रिकोण को ञपुर कहते हैं। सहत्राचक्र मे कामकलारूप जो त्रिकोण हैं उसी की यहाँ यह प्रतिकृति है। इस मूलाघार चक्र का ध्यान करने से वाक्य-काव्य-प्रवन्ध-दक्षता-सिद्धि थ्रात्त होती है। 41 इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र है; इसके छः दल हैं, देवता भगवान् श्रीविष्णु हैं। इसके अनन्तर नामिपद्म अथवा मणिपूरचक्र हैं। इसके देवता श्रीरुद्र हैं। इन चक्र देवता का ध्यान जिस साधक को पूर्णतया सिद्ध हो वह पालन और सनहार-जैसे कार्य कर सकता है। इसके बाद हृत्पद्म अथवा अनाहत-चक्र हैं; इसी के समीप आठ दलों के निम्न मनश्रक्त हैं।
इसके बाद कण्ठपद्ा अर्थात् विशुद्धिचक्र हैं। इसे विशुद्धिचक्र इसलिये कहते हैं कि जीव यहाँ भ्रमध्य- स्थित परमेश्वर को देखकर वासनाजाल से मुक्त होता हे। यहाँ अधनारी नटेश्वर देवता हैं। यही मोक्षद्वार है। इस स्थान में ध्यान करने से ज्ञानी त्रिकालज्ञ होता है। इस विश्यद्धिचक्र के ऊपर और आज्ञाचकर के नीचे एक चक्र है जिसे ललनाचक्र या कलाचक्र कहते हैं। उसके १२ दल हैं। उसकी ये वृतीय है - श्रद्धा, सन््तोष, अपराध, दम, मान, स्नेह, शुद्धता, आराती (बेंगग्य), सम्प्रम (मनोदेंग), उर्मी (क्षुवातूघा)। 43 इसके अनन्तर आज्ञाचक्र हैं। इस चक्र का नाम आज्ञाचक्र इसलिये रखा गया है कि सहस्त्र में स्थित श्रीगुरु से इसी स्थान में आज्ञा मिलती है। उसके दो दल हैं। मूलाघारते आजञाचकतक 50 भातृकाएँ और 50 दल हैं। सहत्ारचक्र मे १००० दल हैं, यह जो कहा गया है वह इस हिसाब से कि १०० तो मातृकाएँ हैं और फिर दस इन्द्रियों के दस-दस गुण अथवा दस-दस न्यास हैं। इस हिसाब से सहस्त्रदल होते हैं। कुछ अन्य ग्रन्थकार यह कहते हैं कि सहस्ारचक्र में कुछ २० बिवर हैं, इनमें पचास-पचास मातृकाएँ गिनी जायें तों भी १००० दल होते हैं। आज्ञाचक्र में योनित्रिकोण है, उसमें कहते हैं कि इतर लिंग अथवा पाताल-लिंग हैं। अग्नि; सूर्य और चन्द्र इस त्रिकोण में एकत्र होते हैं| मह्त्त्व और प्रकृति इसी स्थान में हैं। अव्यक्त प्रणवरूप आत्मा का यही स्थान है।
आज्ञाचक्र के समीप मनश्चक्र है; उसके छः दल हैं। इनमें से पांच दल शब्द, स्प्न, रूप, रस, गन्ध इन पांच विषवों के स्थान हैं और छठे दल से स्वप्न प्रगत अनुभव और सम्भ्रमगत जान प्राप्त होता है। मनश्वक्र के ऊपर सोंमचक्र है, उसके 16 दल हैं। यही निरालूम्बपुरी, तुरीयातीत अवस्था में रहने का स्थान है। इसी स्थान में योगीशन तेजोमय ब्रह्म को अनुभव करते हैं।
इस आज्ञाचक्र के समीप कारण शरीर रूप सत्त कोश हैं। इन कोशों के नाम-1 इन्दू, 2 बोधिनी, 3 नाद, 4 अर्धचन्द्रिका; 5 महानाद, 6 कला 7 उन्मनी है। इस उन्मनी-कोश में पहुंचने पर जीव की पुनरावृत्ति नहीं होती अर्थात् पराघीनसम्मवत्व नष्ट हो जाता हे। स्वाधीनसम्भव मे अर्थात् स्वेच्छा से या परमेश्वरी इच्छा से देह धारण करने मे आत्मस्वरूप की पूर्ण स्मृति बनी रहती है। दन कोश्को के ऊपर, सहत्रआर के नीचे बारह दलों का एक अधोन्मुख कमल है। इसके नीचे के सभी चक्र इसी प्रकार अघोन्मुख ही हैं। कुण्डलिनी-शक्ति का उत्थान जब होता है तभी वे उर्ध्वोमुख होते हैं।
सन्दर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Kundalini_yoga© - , graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.