भारतीय चित्रकला की भारतीय परिवेष में एक बहुत लंबी परंपरा और इतिहास है। सबसे पुराने भारतीय चित्र पूर्व-ऐतिहासिक काल के भित्ति चित्र थे, परंतु धीरे-धीरे दौर बदला और कई प्रगतिशील कलाकारों के योगदान से आधुनिक कला आंदोलन का जन्म हुआ। सन् 1940 के दशक में पूर्व कलकत्ता में भी बंगाल को बरबाद करने वाले अकाल का असर पड़ा। यह एक अभूतपूर्व तबाही थी जिसने कई कलाकारों को अपनी चित्र भाषा को नए नज़रिये से देखने पर मजबूर कर दिया। वहीं कुछ कलाकारों का समूह ‘बंगाल स्कूल’ (Bengal School) से हटकर कुछ नया करना चाहते थे। जिसके परिणामस्वरूप युवा कलाकारों के समूह ने पूर्व के बंगाली कलाकारों का एक ‘कलकत्ता ग्रुप’ बनाया, जिसमें प्रदोष दासगुप्ता, नीरद मजूमदार गोवर्धन आश आदि शमिल थे।
बंगाल स्कूल के बाद प्रोग्रेसिव आर्ट आन्दोलन (Progressive Art Movement) भारत का सबसे बड़ा कला आंदोलन है। 1947 आते-आते मुंबई के कलाकारों में बेचैनी की लहर उठने लगी। परिणामस्वरूप ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप’ (पीएजी) की स्थापना हुई। इसमें फ्रांसिस न्यूटन सुज़ा, मकबूल फिदा हुसैन, सैयद हैदर रज़ा, कृष्णजी हावलाजी अरा, हरि अंबा दास गड़े और मूर्तिकार सदानंद बाकरे शामिल थे। ऐतिहासिक दृष्टि से प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप ने अपना जन्म बंगाल स्कूल की भावुकता से विरोध करते हुए लिया था। इस समूह ने बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट द्वारा स्थापित पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद को तोड़ने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कला को प्रोत्साहित करने की कोशिश की। 1950 में, इसमें मशहूर कलाकार प्रफुल्ल दहानुकर, वासुदेव एस. गायतोंडे, मोहन सामंत और कृष्ण खन्ना आदि शामिल हुये। हालांकि इस ग्रुप में किसी विशेष शैली का अभाव था, लेकिन कहा जा सकता है कि यह आधुनिक कला की ओर एक कदम था।
इस समूह पर यूरोपीय आधुनिकतावाद का सबसे विशिष्ट प्रभाव था। लेकिन इसके सदस्यों ने नाटकीय ढंग से विभिन्न शैलियों में भी काम किया। पीएजी आज तक भारत में सबसे प्रभावशाली कला आंदोलनों में से एक है। 2015 में, फ्रांसिस न्यूटन सुज़ा की पेंटिंग ‘बर्थ’ लगभग 27 करोड़ रुपये में बेची गयी और इसके साथ ही सुज़ा भारत के सबसे महंगे आर्टिस्ट बन गए, जो समूह की विश्वव्यापी लोकप्रियता को दर्शाता है। 1951 तक इस समूह के तीन सदस्य विदेश चले गए; सुज़ा और बाकरे लंदन में बस गए और रज़ा पेरिस चले गए; इसके बाद ये समूह भंग हो गया। आइये इस समूह के उन संस्थापक सदस्यों पर एक नज़र डालते हैं जिन्होंने अपने समूहीकरण के बावजूद अलग-अलग शैलियों में भारतीय कला को एक नया मुकाम दिया:
फ्रांसिस न्यूटन सुज़ा (1924-2002)
फ्रांसिस न्यूटन सुज़ा स्वतंत्रता के बाद वाली पीढ़ी के वे पहले ऐसे भारतीय चित्रकार थे जिन्हें पश्चिम में बहुत पहचान मिली। उन्हें उनके आविष्कारी मानव आकृतियों के लिए भी जाना जाता है। फ्रांसिस न्यूटन सुज़ा का जन्म गोवा के सालिगाव में वर्ष 1924 में एक कैथोलिक परिवार में हुआ था। जब वे मात्र तीन महीने के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गयी। 1949 में लंदन चले जाने के बाद, सुज़ा ने शुरू में संघर्ष किया, परंतु जब सन 1955 में उनका एक आत्मकथात्मक लेख ‘निर्वाना ऑफ़ अ मैगट’ (Nirvana of a Maggot) ‘एनकाउंटर’ ( Encounter) पत्रिका में प्रकाशित हुआ तो इसके बाद उनके करियर में सफलता का दौर प्रारंभ हो गया।
सदानंद बाकरे (1920-2007)
संस्थापक समूह में एकमात्र मूर्तिकार, सदानंद बाकरे का जन्म बड़ौदा में हुआ था। उन्होंने मूर्तिकार रघुनाथ फड़के के साथ मुंबई में काम किया, जो संगमरमर और कांस्य में मूर्तियां बनाने के लिए प्रसिद्ध एक स्टूडियो (Studio) चलाते थे। वह 1951 में ब्रिटेन गए, जिसके तुरंत बाद उन्होंने मूर्तिकला बंद कर दी और चित्रकला पर ध्यान केंद्रित किया। इसके बाद वे 1975 में भारत लौट आए।
सैयद हैदर रज़ा (1922-2016)
सैयद हैदर रज़ा का जन्म 22 फ़रवरी 1922 को मध्य प्रदेश के मंडला जिले के बावरिया में हुआ था। वे इस समूह में एक मात्र कलाकार थे जिनका काम सबसे अधिक सुलभ माना जाता था। रज़ा की कला उन्हें नागपुर और फिर बॉम्बे ले गई। इसके बाद वे कला का अध्ययन करने के लिए एक छात्रवृत्ति पर पेरिस गए, और अपना शेष जीवन वहीं बिताया।
मकबूल फिदा हुसैन (1915-2011)
मक़बूल फ़िदा हुसैन, जिन्हें एम. एफ़ हुसैन के नाम से अधिक जाना जाता है, एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय चित्रकार थे। ‘भारत का पिकासो’ कहे जाने वाले हुसैन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 20वीं सदी के सबसे प्रख्यात और अभिज्ञात भारतीय चित्रकार थे। हुसैन पर हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्रों के द्वारा ‘लोगों की भावना को ठेस पहुँचाने’का आरोप लगाया गया। इस कारण उन्होनें अपने जीवन का अंतिम समय लन्दन में रहकर गुज़ारा।
कृष्ण हावलाजी अरा (1914-1985)
सिकंदराबाद में जन्मे अरा का बचपन मुश्किलों भरा रहा। जब वे सिर्फ तीन साल के थे तो उनकी माँ की मृत्यु हो गई और उसके पिता ने जल्द ही दोबारा शादी कर ली। जब वह सात साल के थे, तो अपने घर से भाग गये और मुंबई पहुंच गये। उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान डांडी मार्च में भी भाग लिया, जिसके लिए उन्हें पांच महीने की जेल भी हुई थी। वे अपने लैंडस्केप (Landscape), अरा के लिए जाने जाते हैं।
हरि अंबा दास गड़े (1917-2001)
गड़े की तीव्र समझ और रंगों के प्रभाव की महारत को लोगों ने ‘चित्रकार के चित्रकार’ के रूप में संदर्भित किया। नागपुर विश्वविद्यालय में विज्ञान का अध्ययन करने के बाद, गड़े ने कला का अध्ययन करने से पहले पांच साल तक विद्यालय में पढ़ाया था। उन्होंने तेल के चित्रफलक और विभिन्न वाटर कलर (Water Color) लैंडस्केप चित्रित किए थे।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Bombay_Progressive_Artists%27_Group
2. https://www.livemint.com/Leisure/epD0hNwotMlS5Ma0ljmz0L/The-modernists.html
3. http://www.eikowa.com/blog/progressive-artists-group-pag-the-sextet-of-artists-that-incited-an-artistic-revolution-in-post-independence-india
4. http://dagworld.com/exhibitions/continuum-progressive-artists-group/
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