कहते है कि मुगल, कला और साहित्य के संरक्षक थे, उस समय में मुगल न केवल मुगल साहित्यों में रूचि रखते थे बल्कि वे हिंदू साहित्यों को भी महत्व देते थे। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण रामायण का फ़ारसी में अनुवाद है। जी हां मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जीवनगाथा अवधी व संस्कृत के अलावा कई भारतीय भाषाओं सहित अरबी, फ़ारसी और उर्दू में भी लिखी गई है। इन संस्करणों में कुछ दृष्टांत भी मिलते है जो संस्कृत ग्रंथों में भी उपस्थित नही है।
महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि माना जाता है। उनके द्वारा लिखी गई श्रीमद् वाल्मीकि रामायण संस्कृत भाषा का अनुपम महाकाव्य है। और इस महाकाव्य का फारसी में अनुवादन का श्रेय मुगल सम्राट अकबर (1542-1605) जाता है। अकबर को भारतीय साहित्य और संस्कृति से प्रेम था, और भारतीय साहित्यों को फारसी जानने वाले लोगों, विशेष रूप से मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने रामायण और महाभारत का फारसी में अनुवाद कराया। उनके समय में फारसी मुगल भारत की दरबारी भाषा थी। हालांकि अकबर संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद की शुरुआत करने वाला पहला मुस्लिम शासक नहीं था, लेकिन उनके निर्देशन में हिंदू विश्व के महत्वपूर्ण साहित्यिक और धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में मुगलों की रुचि पनपी और अनुवाद के लिये एक मकतबखाना फ़तेहपुर-सीकरी में स्थापित किया गया था, जहां महाभारत, रामायण और योगवाशिष्ठ सहित कई प्रमुख हिंदू ग्रंथों का अनुवाद किया गया।
1584 ईस्वी में मुगल सम्राट अकबर के आदेश से मुल्ला अब्दुल कादिर बदायुनी ने पहली बार फारसी में रामायण का अनुवादन किया। बदायुनी एक रूढ़िवादी मुस्लिम थे परन्तु अकबर के आदेश के कारण वे रामायण का अनुवादन करने के लिये मान गये। इस कार्य को पूरा करने के लिये उन्हें चार साल लग गये, उन्होंने इसे 1589 ईस्वी में समाप्त किया था। उन्होंने रामायण के संस्कृत के श्लोकों के अर्थ जानने के लिये एक ब्राह्मण देबी मिश्र को नियुक्त किया था। इसमें सम्राट द्वारा बताए गए कई स्थानों पर बेहतरीन चित्रों के साथ कई दृश्यों का चित्रण किया गया था। इसकी पेंटिंग का कार्य 1587 ईस्वी में शुरू किया गया था तथा इसमें 165 चित्रण हैं, जिसमें 349 फोलियो (Folio) मौजूद हैं। ये सभी पेंटिंग कहानी में घटित महत्वपूर्ण घटनाओं का चित्रण करने में परिपूर्ण हैं क्योंकि इन चित्रों के विषय को अकबर ने स्वयं चुना था, इस काम में उनकी गहरी रुचि थी।
यह पहली बार था जब वाल्मीकि की रामायण का फ़ारसी में अनुवाद किया गया था और चित्रकारों द्वारा लघु चित्रों के साथ इसका चित्रण किया गया था। संस्कृत भाषा में रामायण का कभी चित्रण नहीं किया गया था। इस तरह के चित्र संस्कृत ग्रंथों में भी उपस्थित नहीं है। लेकिन भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध (जिसे सिपाही विद्रोह के नाम से जाना जाता था) के बाद दिल्ली की लूट में, ये पांडुलिपि कही खो गई। परंतु बादशाह अकबर ने अपने कई दरबारियों को फारसी रामायण की प्रतियां बनाने की अनुमति दी थी और कुछ प्रतियां अभी भी दुनिया के कई पुस्तकालयों में मौजूद हैं। इसकी सबसे अच्छी स्थिति वाली प्रति महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय संग्रहालय, जयपुर में मौजूद है तथा दूसरी समकालीन प्रति जो अकबर की अनुमति से अब्दुल-रहीम खान-ऐ-खाना के लिए तैयार की गई थी, को फ्रीर आर्ट गैलरी, वाशिंगटन में संरक्षित किया गया है। अकबर की रामायण के बाद की इन प्रतियों में आप कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे जब विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को अपने आश्रम में ले जाते हैं, राम के पिता राजा दशरथ की मृत्यु, राम ने जब राक्षस त्रिशिरा का वध किया तथा सीता जब हनुमान से दूर भागती है, क्योंकि उन्हें लगता है कि वह किसी और के भेष में रावण है आदि के चित्रण को भी देख सकते है जिनमें भारतीय और फारसी संस्कृति की झलक नजर आती है।
शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान फ़ारसी में रामायण के दो अन्य प्रख्यात अनुवाद मुल्ला शेख सादुल्लाह और ग़ुलामदास द्वारा किए गए हैं। फारसी भाषा में लिखी गई रामायण की एक अन्य प्रति रामपुर रज़ा लाइब्रेरी में आज भी मौजूद है। जिसका फारसी में अनुवाद 1715-16 ईस्वी में फारुख सियार के शासनकाल में सुमेर चंद द्वारा किया गया था। जिसमें 258 लघुचित्र है जो उस समय के आभूषणों, कला, वास्तुकला, वेशभूषा आदि पर प्रकाश डालते है और मध्ययुगीन काल में भारत की संस्कृति को उजागर करते है।
रामायण का एक और दुर्लभ फारसी अनुवाद, शाहजहाँ के बेटे, दारा शिकोह द्वारा किया गया था। ये पांडुलिपि वर्तमान में जम्मू के एक व्यवसायी शाम लाल अंगारा के पास मौजूद है। इस रामायण का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि यह “बिस्मिल्लाह रहमान ए रहीम” से शुरू होती है। तब से लेकर आज तक भारत-फारसी साहित्य में 23 से ज्यादा रामायण लिखी जा चुकी है। इनमें से कुछ का मूल संस्कृत से अनुवाद किया गया था, जबकि अन्य तुलसीदास की रामायण पर आधारित था।
परंतु ये फारसी में लिखी गई रामायण की प्रतियाँ अक्सर अकबरी के बजाय महाकाव्य के संस्कृत या मौखिक संस्करणों या मौखिक ज्ञान पर आधारित होते थे। जब मुगल साहित्यकारों ने संस्कृत ग्रंथों का फारसी में अनुवाद करना शुरू किया तो इस अनुवादित रामायणों में कई संशोधन भी देखने को मिले, जैसे कि मुगल दरबारी दर्शकों के लिए लिखे गये दो संस्करण: सद्द अल्लाह मुसिह पनीपति की दास्तान-ऐ राम उ सीता (राम और सीता की कथा), जिसे रामायण-ऐ मुसिह के रूप में भी जाना जाता है और गिरधरदास की रामायण। मुसिह ने अपनी रामायण को एक प्रेम कहानी के रूप में गढ़ा, जबकि गिरिधरदास ने अपनी रामायण को एक वीर कथा के रूप में प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने वाल्मीकि के संस्करण का काफी बारीकी से अनुसरण किया और इसमें सीता की कहानी भी शामिल है। परंतु गिरिधरदास ने राम के अच्छे स्वभाव, उनके वनवास और रावण के खिलाफ लड़ाई में सीता का कोई उल्लेख नहीं किया हैं।
संदर्भ:
1. http://www.kashmirtimes.com/newsdet.aspx?q=51849
2. https://bit.ly/2H0mC1i
3. https://bit.ly/2C78L5h
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