रामपुर के दो नबावों के उस्ताद थे प्रसिद्ध शायर मिर्जा ग़ालिब

रामपुर

 07-01-2019 01:28 PM
ध्वनि 2- भाषायें

अकबराबाद (अब आगरा) में जन्में मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” (1797-1869) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। इनको उर्दू भाषा और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय दिया जाता है। दुनिया भर में ख्याति प्राप्त शायर मिर्जा ग़ालिब का रामपुर शहर से गहरा नाता रहा है। वह रामपुर के दो नबावों के उस्ताद रहे, उन्हें रामपुर रियासत से प्रतिमाह सौ रुपये वेतन भी मिलता था, साथ ही इन्होंने रामपुर में काफी समय भी गुजारा था।

मिर्जा ग़ालिब का रामपुर से एक गहरा रिश्ता था। आज भी उनका साहित्य रजा लाइब्रेरी में मौजूद है। मिर्जा ग़ालिब ने अपनी लेखनी के माध्यम से कोसी नदी के मीठे पानी और रामपुर के शानदार भोजन और भव्यता की बार बार प्रशंसा की थी। उन्होंने रामपुर और रामपुर के नवाबों की प्रशंसा में फ़ारसी और उर्दू क़सीदा और क़िताह दोनों लिखा था। ग़ालिब की कविता में रामपुर...

रामपुर अहले नजर की है नजर में वो शहर, के जहां हश्त बहश्त आके हुए हैं बाहम। रामपुर एक बड़ा बाग है अज रोये मिसाल, दिलकश व ताजा व शादाब व वसी व ख़ुर्रम। जिस तरह बाग़ में सावन की घटाएं बरसें, है उसी तौर पे यां दजला फिशां दस्ते करम।

उन्होंने फरवरी में 1855-65 में, रामपुर के शासक नवाब यूसुफ अली खां के शिक्षक का दायित्व संभाला, नवाब यूसुफ एक प्रतिभाशाली कवि थे। इसके बदले उन्हें प्रतिमाह सौ रुपये बतौर वेतन दिया जाता था। दिसंबर 1863 से दिसंबर 1864 तक, नवाब यूसुफ ने सुधार के लिए हर महीने अपनी लेखनी ग़ालिब को भेजी थी। नवाब यूसुफ ने 1859 में ग़ालिब को छह पत्र लिखे, जिसमें उन्होंने रामपुर आने के लिए कहा। लेकिन ग़ालिब को अंग्रेजों द्वारा पेंशन की बहाली के मामले में फैसले का इंतजार था। मुकदमा हारने के बाद, ग़ालिब जनवरी 1860 में अपने दो युवा पौत्रों (बाकिर अली खान और हुसैन अली) के साथ रामपुर पहुंचे और उन्हें सम्मान से नवाजा गया। जब वे रामपुर में थे तब नवाब यूसुफ ने उनका वेतन भी दोगुना कर दिया था।

इसके बाद नवाब कल्बे अली खान के भी शिक्षक रहे। उन्हें राजद्वारा में एक मकान भी रहने को दिया गया था। वह कुछ साल बाद दिल्ली चले गए, लेकिन रामपुर के नवाबों से पत्राचार के माध्यम से लगातार संपर्क में बने रहे। उनके लगभग 134 पत्र अभी भी मौजूद हैं। नवाब कल्बे अली खां शायर नहीं थे, लेकिन मिर्जा ग़ालिब उनके भी संरक्षण में रहे। नवाब ने 1865 में अपने राज्याभिषेक के लिए ग़ालिब को रामपुर में आमंत्रित किया था, उस समय ग़ालिब का स्वास्थ्य अच्छा नही था लेकिन फिर भी उन्होंने जाने का फैसला किया। इस अवसर के लिए, ग़ालिब ने एक गद्य रचना और फारसी में 35-पद्य वाली क़सीदा (कविता) लिखी, जो अत्यधिक प्रशंसा से भरी हुई थी। इसके लिये उन्हें किले के करीब उनके निवास स्थल के रूप में एक और हवेली (जरनैल कोठी) उपहार में दी गई थी।

रामपुर रजा लाइब्रेरी में लाइब्रेरियन रहे मौलाना इम्तियाज अली अर्शी और इतिहासकार जहीर अली सिद्दीकी ने भी अपने कई लेखों में मिर्जा ग़ालिब और रामपुर के रिश्ते को उजागर किया है। सिद्दीकी जी बताते है की 1857 के विद्रोह के दौरान, ब्रिटिश सेना ने दिल्ली और लखनऊ में सभी उल्लेखनीय पुस्तकालयों और अभिलेखागार को ध्वस्त कर दिया था। ग़ालिब ने खुद ब्रिटिश सेना की ज्यादतियों और खुद की बिगड़ती आर्थिक स्थिति के बारे में लिखा था। मौलाना अर्शी ने अपने मक़तेब ए ग़ालिब में बताया है कि एक बार नवाब ग़ालिब को स्टेशन पर छोड़कर कहते है कि:

"खुदा के हवाले" (मैं तुम्हें भगवान की देखभाल के लिए छोड़ देता हूं) । ग़ालिब ने उत्तर दिया, "खुदा ने मुझे आप के लिए सुपुर्द किया है और फिर से मुझे खुदा को सुपुर्द करते है।" (भगवान ने मुझे आपकी देखभाल में सौंप दिया है और अब आप मुझे वापस उनकी देखभाल में सौंप रहे हैं!

उनकी खराब आर्थिक स्थिति ने उनके अंतिम दिनों को बहुत ही कठिन बना दिया था। उनकी माली हालत इतनी खराब हो गई थी कि उन पर काफी कर्ज तक चढ़ गया था, जिसके चलते वे बीमारी से घिर गए। अपने अंतिम क्षणों में उन्होंने नवाब कल्बे अली को बार-बार पत्र लिखकर अपने पौते हुसैन अली की शादी हेतु लिये गये अपने ऋण को निपटान का अनुरोध किया। वह 1869 में दयनीय हताशा के साथ लिखते हैं:

“हाल मेरा तबाह होते होते अब ये नौबत पहुंची है... आठ सौ रुपये हो तो मेरी आबरू बचती है ... बस मेरा यही काम है याद दिला दूं। आगे हजरत मालिक हैं…”

पत्र मिलने के बाद नवाब द्वारा छः सौ रुपये की राशि उनकी मृत्यु (1869 में 72 साल की उम्र में उनका निधन हो गया) के बाद ही ग़ालिब तक पहुंच जाती है, और इसके बाद उनकी विधवा को पेंशन भी दी गई जो उनकी मृत्यु के बाद हुसैन अली खान के लिए जारी रही। उनकी शायरी में दर्द की झलक मिलती है, उनकी शायरी से यह पता चलता है कि जिंदगी एक अनवरत संघर्ष थी जो उनकी मौत के साथ खत्म होती है।

संदर्भ:

1. https://thewire.in/culture/mirza-ghalib-poetry-nawab-british
2. https://bit.ly/2AyEOu1



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