सन् 1947 में भारत का विभाजन एक भूकंपीय घटना थी। असंख्य भाषाओं और धर्मों का एक क्षेत्र भारत, अंग्रजी शासन से आजादी हासिल करने के बाद देश में धार्मिक तनाव को कम करने के लिए दो हिस्सों में बांट दिया गया और इस तरह पाकिस्तान का निर्माण हुआ। एक बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हुआ। भारतीय मुसलमानों ने पश्चिम में नव निर्मित पाकिस्तान के लिए नेतृत्व किया और भारतीय हिन्दुओं ने भारत में ही रहना पसन्द किया। दोनों पक्षों ने पैतृक भूमि, जड़ें और सम्पत्ति खो दीं, लेकिन इस सब में एक बहुत बड़ी संख्या में नरसंहार हुआ। खून से लथपथ लाशों के ढेर लग गए।
रामपुर पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा था। कई परिवार बिखर गए, एकदम से कुछ लोग अनजान हो गए। और आज 71 साल बाद वो सारी बातें और यादें पीढ़ी दर पीढ़ी धुंधली होती जा रही हैं। विभाजन के इतिहास की इस विनाशकारी घटना ने सामाजिक विज्ञान, इतिहास, नागरिक शास्त्र, भूगोल और अर्थशास्त्र के सभी पहलुओं को प्रभावित किया और फिल्में इस सामाजिक दुर्दशा को व्यक्त करने का एक शक्तिशाली माध्यम बनीं। आजादी के बाद कई भारतीय फिल्म बनाई गईं जिनकी कहानियां 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन पर आधारित है। दोनों देश एक काले इतिहास के साथ एक-दूसरे से अलग हो गये, जिसका चित्रण कई फिल्मों में किया गया है।
भारतीय सिनेमा में ‘छलिया’ (1960), ‘धर्मपुत्र’ (1961), ‘गर्म हवा’ (1973), ‘तमस’- टीवी मिनी सीरीज़ (1988), ‘सरदार’ (1993), ‘1947 अर्थ’ (1998), ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ (1998), ‘हे राम’ (2000), ‘गदर- एक प्रेम कथा’ (2001), पिंजर (2003), ‘पार्टीशन’ (2007)। क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप को 1947 में विभाजित किया गया था, इसलिए पश्चिम और पूर्व पाकिस्तान के मिलन से गठित राष्ट्र ने बड़ी कठिनाई से फिल्म उद्योग का पुननिर्माण किया। भारत में बम्बई, पूना, कलकत्ता और मद्रास फिल्म निर्माण के मुख्य केन्द्र थे और इसके विपरीत पाकिस्तान में सिर्फ एक लाहौर था। हांलाकि, रुप कुमार शोरी और दलसुख पंचोली नाम के दो प्रमुख स्टूडियो लाहौर में थे, जिनके मालिक हिन्दू थे, लेकिन सम्प्रादायिक दंगों के चलते दोनों स्टूडियो को बंद करना पड़ा और साथ ही साथ शोरी और पंचोली को लाहौर छोड़ना पड़ा और भारत को अपना नया घर बनाने पर मजबूर होना पड़ा। प्राण, ओम प्रकाश और कुलदीप कौर जैसे हिन्दू कलाकार लाहौर में बड़े पैमाने पर काम कर रहे थे, लेकिन दंगों के माहौल के चलते उन्हें भी लाहौर छोड़ना पड़ा और भारत में शरण लेनी पड़ी।
फिल्म लोक के कई हिन्दू कलाकार लाहौर छोड़कर भारत आ गये थे, वहीं दूसरी तरफ बम्बई फिल्म जगत के मुस्लिम कलाकारों ने नए राष्ट्र पाकिस्तान के लिए भारत नहीं छोड़ा। तत्कालीन प्रसिद्ध गायक नूर जहां के लिए अपनी जड़ों की तरफ वापस लौटने का स्वयं का एक व्यक्तिगत निर्णय था। अपने जन्मस्थल ‘कसूर’ को जब उन्होंने पाकिस्तान में पाया, तो उन्होंने वहीं बसने का फैसला किया। निस्संदेह, फिल्म उद्योग की धर्म-निरपेक्ष प्रकृति पहले से ही भारत में अच्छी तरह स्थापित थी, जिसने कई मुस्लिम कलाकारों को यहां बसने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने करियर को फिर से शुरुवात करने की उम्मीद में पाकिस्तान चले गये कई लोग नीचे गिरते चले गये या अपने करियर बचाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे थे। हालांकि उनका उठाया गया यह कदम उनमें से अधिकांश लोगों के लिए काम नहीं कर रहा था। यह केवल चमकता सितारा नूर जहां और अभिनेता-निर्माता-निर्देशक पति-पत्नी की जोड़ी नाजीर और स्वर्णलता थे, जो पाकिस्तान जाने के बाद भी सफलता पा रहे थे। आने वाले वर्षों में पाकिस्तानी फिल्म उद्योग पर शासन करने वाली अधिकांश प्रतिभा संतोष कुमार, सबीहा खानम और मुसरत नाज़ीर जैसे स्वदेशी नवागंतुक या अपरिचित थे, क्योंकि अधिकांश सत्तरूढ़ सितारों, फिल्म निर्माताओं और गीतकारों ने भारत में रहने का फैसला किया था। पाकिस्तान के कुछ प्रमुख प्रवासियों में फिल्म निर्माता - वहीदुद्दीन ज़ियाउद्दीन अहमद, लेखक सआदत हसन मानतो और संगीत निर्देशक गुलाम हैदर और फिरोज़ निज़ामी शामिल थे।
7 अगस्त, 1948 को काफी संघर्ष के बाद पहली पाकिस्तानी फिल्म रिलीज़ हुई थी। दाउद चंद निर्मित ‘तेरी याद’ फिल्म में आशा पॉस्ली और दिलीप कुमार के छोटे भाई नासीर खान ने मुख्य भूमिका निभाई थी।
दुनियाभर में मशहूर शायर मिर्ज़ा असद उल्ला खां गालिब का रामपुर से बहुत गहरा नाता रहा है, भले ही उनकी पैदाइश आगरा की हो। वे रामपुर के दो शासक 1860 में नवाब यूसुफ अली खां और नवाब कल्बे अली खां के शिक्षक रहे थे। जिसके लिए उन्हें सौ रुपये प्रतिमाह वज़ीफ़ा मिलता था। फिल्म जगत की फिल्मों में रामपुरी चाकू का अच्छा-खासा बोलबला है
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