चुनावी फंडिंग और चुनावी बांड में पारदर्शिता की अभाव

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चुनावी फंडिंग और चुनावी बांड में पारदर्शिता की अभाव

आज़ादी के 70 वर्ष बाद भी भले ही, देश के दूरदराज क्षेत्रों में बिजली न पहुँची हो, लेकिन चुनाव नज़दीक आते ही, दुर्गम से दुर्गम क्षेत्रों में भी नेताजी हाथ जोड़े, न केवल पहुँच जाते हैं, बल्कि चुनाव से पहले मतदाताओं को लुभाने के लिए, चुनाव प्रसार में बेहिसाब पैसा भी खर्च करते हैं। किन्तु क्या आप जानते हैं कि, आखिर यह पैसा आता कहाँ से है, और इस पैसे की वास्तविक कीमत कितनी और किसे चुकानी पड़ती है?
यदि आपने ध्यान दिया हो तो देखा होगा की, चुनावों में उम्मीदवार सिर्फ एक निर्वाचन क्षेत्र में ही करोड़ों खर्च कर देते हैं। लेकिन इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे को आमतौर पर मतदाता शोर- शराबे वाले अभियानों, नेताओं, मशहूर हस्तियों और मीडिया कवरेज की जगमगाहट के बीच नज़रअंदाज कर देते हैं। मुख्यतः मतदाता उम्मीदवारों, राजनीतिक दलों और नेताओं को वोट इसलिए देते हैं, ताकि वे आम नागरिकों को लाभ पहुँचा सकें। लेकिन वास्तव में यदि चुनाव प्रचार में धन अन्य स्रोतों (चुनावी फंडिंग और चुनावी बांड) से प्राप्त किया जाता है, तो सत्ताधारी सरकारें मतदाताओं से अधिक, धन देने वालों के लिए बाध्य होती हैं। ऐसी स्थिति में सरकार ऐसे निर्णय ले सकती है जो मतदाताओं के बजाय धनदाताओं को लाभान्वित करते हैं। कैंपेन फंडिंग सुधार (Campaign funding reform) दुनिया भर में चुनावी सुधारों में सबसे बड़े मुद्दों में से एक है। कई देशों जैसे यू.एस और यूरोपीय संघ के देशों में इस मुद्दे को हलकरने के लिए कानूनों का एक सेट है।
हालांकि भारत में भी इस विषय का सरकारी आयोगों और विद्वानों द्वारा विस्तार से अध्ययन किया गया है। इस संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय अनुभव से सीखने के लिए तीन महत्वपूर्ण तथ्य है, जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है, सभी चुनावी फंडिंग को पूरी तरह से पारदर्शी बनाना ताकि, मतदाता यह जान सकें कि कौन किसको फंडिंग अर्थात आर्थिक सहायता दे रहा है। दूसरा, निजी हितों को चुनावों या सरकारों को अनुचित रूप से प्रभावित करने से रोकना। तीसरा यह प्रयास करना है एक अच्छे राजनेता, उम्मीदवार और कम धन वाले दलों को भी चुनाव में प्रतिस्पर्धा का मौका मिल सके। इसके लिए, प्रत्येक नागरिक के पास अपने करों के एक छोटे से हिस्से को चुनावी चंदा के रूप में देने का विकल्प है। यह उसकी सहमति से ही किया जाता है।
सरकार द्वारा चुनावी फंडिंग को साफ-सुथरा बनाने के लिये 2017-18 के बजट में चुनावी बॉण्‍ड स्कीम (electoral bond scheme) की घोषणा की थी। भारतीय स्टेट बैंक के ज़रिये मिलने वाले इन बॉण्‍ड्स को कोई भी व्यक्ति खरीद सकता है, और इन्हें राजनीतिक दल को जारी कर सकता है। चुनावी बॉण्‍ड की खरीद ऐसे व्‍यक्ति द्वारा की जा सकती है, जो भारत का नागरिक हो या भारत में निगमित या स्‍थापित हो। चुनावी चंदे को लेकर भारत में इसकी स्थिति को समझें तो यहाँ चुनावी बांडों की पारदर्शिता का अभाव नज़र आता है। आज भी आम नागरिक यह नहीं जान सकते हैं कि, राजनीतिक दलों को वित्त पोषण कौन कर रहा है। केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के फैसले के बावजूद, सभी राजनीतिक दलों ने सूचना के अधिकार के साथ आने वाली पारदर्शिता के अंतर्गत इस सूचना को प्रस्तुत करने से इनकार कर दिया है। यहां तक की आज फंडिंग पर सीमाएँ भी अच्छी तरह से परिभाषित नहीं हैं।
भारत में राजनीतिक दलों के कॉरपोरेट फंडिंग का पुराना इतिहास रहा है। बिड़ला भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख दानदाताओं में से एक थे। आजादी के बाद, कांग्रेस सरकार की आर्थिक नीति को आकार देने वाले एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (Association of Democratic Reforms (ADR) द्वारा संकलित आंकड़ों पर एक नज़र डालने से यह आसानी से पता चल जाता है कि, पिछले एक दशक में कॉर्पोरेट चंदे में वृद्धि हुई है। विभिन्न कॉर्पोरेट स्रोतों के माध्यम से कुल दान 2004-05 में मात्र 26 करोड़ रुपये से, 2017-18 में बढ़कर 422 करोड़ रुपये हो गया है।
चुनाव आयोग और आयकर विभाग (EC and the Income Tax Department) के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार, 90% फंड सिर्फ एक पार्टी को जाता है। यह एक समान अवसर की अनुमति नहीं देता है। चुनावी फंडिंग का एक अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दा चुनावी बांड का भी है। इस सन्दर्भ में कुछ जनहित याचिकाएँ (पीआईएल) दायर की गई हैं और उन्हें सुप्रीम कोर्ट में दाखिल भी किया गया है। जहाँ कोर्ट से अपील की गई है कि चुनावी बॉन्ड को पूरी तरह से पारदर्शी बनाया जाए ताकि मतदाताओं को पता चले कि राजनीतिक दलों को उनका फंड कहाँ से मिल रहा है। इस तरह की जानकारी दुनिया भर के अन्य सभी प्रमुख लोकतंत्रों जैसे यू.एस और यूरोपीय संघ के देशों में उपलब्ध है। हालांकि सरकार ने कानून में संशोधन करने से इनकार कर दिया, और मामला अभी तक सुप्रीम कोर्ट में नहीं सुना गया है। इसे अब सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिकाओं के एक और सेट के माध्यम से चुनौती दी गई है। हालांकि यहाँ भी मामले को स्वीकार कर लिया गया है लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई है।
लोकतंत्र में, राजनीतिक दल अक्सर अपने मतदाताओं की इच्छा के अनुसार नहीं बल्कि उनके फंडर्स के अनुसार नीति बनाते हैं। इसके अलावा, सरकार ने विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (FCRA) , 1976, कंपनी अधिनियम, 2013 में कई कानूनी बदलाव लाए हैं, जो चुनावों में गुमनाम कॉर्पोरेट फंडिंग के प्रभाव को बढ़ा सकते हैं। साथ ही राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता की कमी भी चिंता का कारण मानी जाती है। दुर्भाग्य से, भारत की चुनावी फंडिंग प्रणाली में ये बदलाव अधिक खामियाँ लेकर आये हैं जो धनवान समूहों को राजनीतिक दलों को गुप्त रूप से प्रभावित करने की अनुमति प्रदान करते है। चुनावी बांड योजना के तहत, केवल भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के पास चुनावी बांड के माध्यम से किए जा रहे सभी दान का पूरा लेखा-जोखा होता है। यहाँ तक की संसद, चुनाव आयोग, विपक्षी दलों और जनता के पास भी यह जानकारी नहीं है। जानकार मानते हैं कि वास्तव में, चुनावी बांड कंपनियों, धनी व्यक्तिगत दाताओं और विदेशी संस्थाओं को राजनीतिक शक्ति देते हैं, इस प्रकार यह एक मतदाता के सार्वभौमिक मताधिकार को कमजोर करते हैं।
भारत लगभग 75 वर्षों का एक मजबूत लोकतंत्र बन चुका है। अब सरकार को और अधिक जवाबदेह बनाने के लिए मतदाताओं को स्वयं जागरूक होना चाहिए और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत का उल्लंघन करने वाले उम्मीदवारों और पार्टियों को मतदाता शक्ति से अवगत कराना चाहिए।

संदर्भ
https://bit.ly/3t1AU8F
https://bit.ly/3vXEtyv
https://bit.ly/3w5tUtk

चित्र सन्दर्भ

1. पैसों के ढेर दर्शाता चित्रण (Onmanorama)
2. चुनाव प्रचार को दर्शाता चित्रण (pixabay)
3. चुनाव रिकॉल को दर्शाता चित्रण (CalMatters)
4. भारत के सुप्रीम कोर्ट को दर्शाता चित्रण (flickr)
5. निर्वाचन आयोग की बैठक को दर्शाता चित्रण (Press Information Bureau)

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