
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नौटंकी, उत्तरी भारत का एक प्रसिद्ध एवं पारंपरिक लोक रंगमंच है। यह सिर्फ़, मनोरंजन का माध्यम नहीं है, बल्कि सामाजिक संदेश देने और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित करने का एक सशक्त
साधन भी है।अपनी जीवंत कहानियों, संगीत और नृत्य के माध्यम से, नौटंकी सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता और नैतिक शिक्षा जैसे विषयों
पर प्रकाश डालती है। यह कला, कई पीढ़ियों के बीच सेतु का काम करती है। पारंपरिक कहानियों और सांस्कृतिक प्रथाओं को जीवित रखते हुए, नौटंकी समकालीन मुद्दों को भी संबोधित करती है। ग्रामीण और शहरी समुदायों से जुड़ने की इसकी क्षमता अद्भुत रही है। यही कारण है कि, नौटंकी का सांस्कृतिक और सामाजिक योगदान बहुत बड़ा है। यह कला के माध्यम से एकता और जागरूकता को बढ़ावा देती है। इसलिए आज के इस लेख में, हम नौटंकी और ग्रामीण समुदायों में इसकी भूमिका पर चर्चा करेंगे। साथ ही, हम यह भी समझेंगे कि लोक रंगमंच, किस प्रकार सामाजिक मुद्दों को संबोधित करता है। अंत में, हम नौटंकी रंगमंच के विकास और इसके प्रभाव की भी जाँच करेंगे। जिसके तहत हम समय के साथ इसके स्वरूप में जो परिवर्तन आए, तथा कला, संस्कृति और समाज पर इसके स्थायी प्रभाव पर प्रकाश डालेंगे।
नौटंकी उत्तर भारत की एक प्राचीन और लोकप्रिय लोक नाट्य शैली है। इसमें नाटक, संगीत और नृत्य का समावेश होता है, जो इसे बेहद जीवंत और मनोरंजक बनाता है। रंगीन वेशभूषा और अतिरंजित हाव-भाव इसकी विशेषता हैं। नौटंकी की कहानियाँ आमतौर पर सामाजिक मुद्दों, पौराणिक कथाओं और नैतिक शिक्षाओं पर आधारित होती हैं। ग्रामीण समुदायों पर इस कला का गहरा प्रभाव है! यह आज भी कहानी कहने और सामाजिक संदेश देने का महत्वपूर्ण माध्यम
मानी जाती है।
आज भी नौटंकी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी हुई है और भारत की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न हिस्सा है। इसमें जीवंत संगीत, ऊर्जावान नृत्य और नाटकीय कहानी कहने के माध्यम से दर्शकों का दिल जीतने की ताकत है। यह न केवल, मनोरंजन करती है, बल्कि न्याय, समानता और नैतिक मूल्यों के संदेश भी देती है। यह शैली ग्रामीण और शहरी समुदायों को समान रूप से जोड़ती है और उनकी परंपराओं से जोड़ने का काम करती है।
उत्तर भारत के विभिन्न स्थानों पर आयोजित वार्षिक मेलों में नौटंकी का प्रदर्शन किया जाता था। मकनपुर, बहराइच, मेरठ, सोनपुर और राजगीर जैसे स्थानों पर नौटंकी आकर्षण का प्रमुख केंद्र हुआ करती थी। इन मेलों में हज़ारो तीर्थयात्री और दर्शक शामिल होते थे। नौटंकी का प्रदर्शन देवी सरस्वती और भगवान गणेश के आह्वान के साथ शुरू होता था। इसके पात्रों को साफ़ और स्पष्ट तरीके से प्रस्तुत किया जाता था, और घटनाएँ तेज़ गति तथा लयबद्ध तरीके से आगे बढ़ती थीं।
नौटंकी के शुरुआती दौर में कलाकार, अपनी आवाज़ को बिना माइक के भी दर्शकों तक पहुँचाने में सक्षम थे। यह शैली, किंवदंतियों, संस्कृत नाटकों, फ़ारसी कहानियों और पौराणिक कथाओं से प्रेरणा लेती थी। इसके कुछ लोकप्रिय नाटकों में राजा हरिश्चंद्र, लैला मजनूं,
शिरीं फ़रहाद, श्रवण कुमार और पृथ्वीराज चौहान शामिल थे।
नौटंकी, न केवल मनोरंजन का साधन थी, बल्कि नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक संदेशों को देने का माध्यम भी थी। इसके पात्र, जैसे सुल्ताना डाकू और डाकू मान सिंह, गरीबों की सेवा करने वाले नायक के रूप में प्रस्तुत किए जाते थे। वीरमती और बेकासुर बेटी जैसे नाटकों में, महिलाओं ने अन्याय के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी। राजा हरिश्चंद्र और पूरन भगत जैसे नाटक, सत्य और त्याग की शिक्षा देते थे।
कैथरीन हैनसेन (Kathryn Hansen) जैसी सांस्कृतिक इतिहासकारों के अनुसार, नौटंकी ने सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई। इसने मनोरंजन के साथ-साथ, समाज को जागरूक और शिक्षित करने का काम भी किया।
भारतीय समाज में निरक्षरता, बाल श्रम और घरेलू हिंसा जैसी कई सामाजिक समस्याएँ, ग्रामीण क्षेत्रों में गहराई से जमी हुई हैं। इन चुनौतियों से निपटने के लिए, लोक रंगमंच एक सशक्त उपकरण के रूप में उभरता है। इसका कारण यह है कि, यह ग्रामीण दर्शकों के साथ गहराई से जुड़ता है और उनकी भाषा, भावनाओं और अनुभवों को
प्रतिबिंबित करता है।
लोक रंगमंच (folk theater) के प्रदर्शन, विशेष रूप से ग्रामीण समुदायों को ध्यान में रखकर तैयार किए जाते हैं। इन प्रदर्शनों में उन कहानियों और तकनीकों का उपयोग होता है जो ग्रामीण दर्शकों से सीधे जुड़ती हैं। ये कहानियाँ सामाजिक मुद्दों पर विचार करने और उनके समाधान खोजने के लिए प्रेरित करती हैं। लोक रंगमंच के माध्यम से, जटिल समस्याओं को सरल और प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया जाता है, ताकि दर्शक उन्हें
आसानी से समझ सकें।
लोक रंगमंच का मुख्य उद्देश्य, मनोरंजन करना ही नहीं, बल्कि लोगों को शिक्षित करना और सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूक
करना भी है। यह अक्सर सामाजिक बदलाव लाने और दर्शकों को सकारात्मक कार्य करने के लिए प्रेरित करने का माध्यम बनता है। इसकी प्रस्तुति में दर्शकों को शामिल करने का अनूठा तरीका, इसे और भी प्रभावी बनाता है।यह कला, उनकी संस्कृति से गहराई से जुड़ी होती है, इसलिए इसे पूरी तरह से स्वीकार किया जाता है।
इतिहास में, लोक रंगमंच ने सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक संदेशों को व्यक्त करने में अहम भूमिका निभाई है। नौटंकी जैसे लोक नाट्य रूपों ने धार्मिक और सामाजिक उपदेशों से प्रेरणा लेते हुए पौराणिक कथाओं को सामाजिक जागरूकता
के प्रदर्शनों में बदल दिया।
आधुनिक संदर्भ में भी लोक रंगमंच ने वयस्क शिक्षा और परिवार नियोजन जैसे मुद्दों को भीसंबोधित किया है।यह सामाजिक बदलाव का एक प्रभावी माध्यम है, जो परंपरा और समकालीनता के बीच, सेतु का काम करता है।लोक रंगमंच, न केवल मनोरंजन करता है, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का सशक्त माध्यम भी है।
नौटंकी मंडली में विभिन्न जाति, धर्म और पृष्ठभूमि के कलाकार शामिल होते थे। शुरुआत में केवल पुरुषों को ही नौटंकी मंडली में शामिल होने की अनुमति थी। लेकिन 1920 के दशक में महिलाओं ने भी मंच पर आना शुरू किया। ये महिलाएँ, मुख्य रूप से कालबेलिया, बेदिया और नट जैसे समुदायों से आती थीं। 1950 और 1960 के दशक में महिला नौटंकी कलाकारों की लोकप्रियता बढ़ी। इनमें से कुछ ने अपनी कंपनियाँ स्थापित कीं। उस दौर के प्रसिद्ध कलाकार गुलाब बाई ने ग्रेट गुलाब थिएटर कंपनी और कृष्णा बाई ने कृष्णा नौटंकी कंपनी की स्थापना की।
लेकिन समय के साथ सिनेमा के आगमन से नौटंकी पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसके कारण दर्शकों की रुचि कम हो गई। हालांकि, यह कला, उत्तर प्रदेश के हाथरस, मथुरा, उन्नाव और बीघापुर के ग्रामीण इलाकों में आज भी जीवित है। भारत के महानगरों और प्रवासी भारतीय समुदायों में भी नौटंकी के प्रति रुचि धीरे-धीरे बढ़ रही है। मुख्यधारा के थिएटर में भी इसे अपनाया जा रहा है।
नौटंकी ने लोकप्रिय संगीत को भी प्रभावित किया है। 1969 में हिज़ मास्टर्स वॉइस (His Master's Voice (HMV)) ने गुलाब जान द्वारा गाए गए नौटंकी संगीत के रिकॉर्ड जारी किए। नाटकों के गीतों का इस्तेमाल, हिंदी फ़िल्मों के मशहूर गानों में किया गया है। 2001 में आंध्र प्रदेश संगीत नाटक अकादमी द्वारा आयोजित थिएटर फेस्टिवल और 2004 में दिल्ली हिंदी अकादमी के नौटंकी फेस्ट में इस शैली को प्रमुखता मिली। कृष्णा कुमारी माथुर और उनकी कंपनी ने इन आयोजनों में अमर सिंह राठौर का प्रदर्शन किया। ग्रेट गुलाब थिएटर कंपनी आज भी विशेष अनुरोध पर नाटक प्रस्तुत करती है। 2010 में, नई दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर (Habitat Centre) में, उन्होंने सुल्ताना डाकू का प्रदर्शन किया।
पंडित राम दयाल शर्मा और देवेंद्र शर्मा जैसे कलाकारों ने, नौटंकी तकनीकों को अपने काम में शामिल किया है।हबीब तनवीर, सर्वेश दयाल सक्सेना, अतुल यदुवंशी और उर्मिल कुमार थपलियाल जैसे निर्देशकों ने भी इस शैली का उपयोग
किया। श्रीकृष्ण पहलवान और गुलाब बाई को क्रमशः 1968 और 1990 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।आज, नौटंकी का उपयोग, सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियाँ, सामाजिक जागरूकता फैलाने के लिए कर रही हैं। इसे सांस्कृतिक उत्सवों और पर्यटन स्थलों, जैसे कि सूरजकुंड अंतर्राष्ट्रीय शिल्प मेले में प्रस्तुत किया जाता है। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के थिएटर प्रोडक्शन्स में भी, इसका समावेश हो रहा है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/29u4dz7r
https://tinyurl.com/234b2cvd
https://tinyurl.com/2yy6sna7
मुख्य चित्र : दिव्य संत नारद के रूप में देवेन्द्र शर्मा (Wikipedia)
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