पारम्परिक खेल खो-खो का इतिहास

हथियार व खिलौने
03-04-2019 07:00 AM
 पारम्परिक खेल खो-खो का इतिहास

अधिकांश भारतीय लोगों द्वारा खेला गया खो-खो का खेल भारत में सबसे लोकप्रिय पारंपरिक खेलों में से एक है। खो-खो की उत्पत्ति का पता लगाना मुश्किल है, लेकिन कई इतिहासकारों का मानना है कि यह 'पकड़म-पकड़ाई' का एक संशोधित रूप है। परंतु क्या आप जानते हैं कि खो खो शब्द संस्कृत के शब्द “स्यु (syu)” से लिया गया है, जिसका अर्थ ‘उठो और जाओ’ है। भारत में खो-खो का इतिहास काफी गहरा है, इसकी शुरुआत सबसे पहले महाराष्ट्र राज्य में हुई थी और खो-खो मराठी भाषी लोगों के समक्ष काफी लोकप्रिय रहा है। महाराष्ट्र में इसकी उत्पत्ति के साथ-साथ खो-खो को प्राचीन काल में रथ में खेला जाता था और इसे रथेरा के रूप में जाना जाता था।

सभी भारतीय खेलों की भांति ही खो-खो भी सरल, सस्ता और आनंदमय खेल है। हालांकि, इस खेल को खेलने के लिए शारीरिक दुरूस्ता, बल, गति और सहनशक्ति की जरूरत होती है। नियंत्रित गति से चकमा देना, छ्लना और निकल कर भागना इस खेल को काफी रोमांचकारी बनाता है। खो-खो का खेल टीम के सदस्यों के बीच आज्ञाकारिता, अनुशासन, खेल कौशल और निष्ठा जैसे गुणों को विकसित करता है। वहीं कई वर्षों तक तो यह खेल अनौपचारिक तरीके से खेला गया था। खो-खो को लोकप्रिय बनाने के लिए पुणे के डेक्कन जिमखाना क्लब ने खेल को औपचारिक रूप देने की कोशिश की थी। 1935 में नव स्थापित अखिल महाराष्ट्र शारीरिक शिक्षण मंडल द्वारा नियम का पहला संस्करण, आर्यपथ्य खो-खो और हू-तू-तू प्रकाशित किया गया था। वहीं खेल में कुछ संशोधन भी किए गए थे।

पहले खो-खो में कोई नियम नहीं थे, सबसे पहला नियम पुणे के डेक्कन जिमखाना के संस्थापक लोकमान्य तिलक द्वारा बनाया गया था। जिसमें मैदान में खेल को खेलने की सीमा को निश्चित किया गया था। वर्ष 1919 में खो-खो को 44 गज लंबी मध्य रेखा और 17 गज चौड़ाई में दीर्घवृत्तीय क्षेत्र में परिवर्तित किया गया। वहीं 1923-24 में इंटर स्कूल स्पोर्ट्स ऑर्गेनाइजेशन की नींव रखी गई थी और खो-खो को पेश किया गया था।

पिछ्ले कई वर्षों में खेल के नियमों में कई बदलाव आए हैं। 1914 में प्रारंभिक प्रणाली में प्रत्येक प्रतिदुंदी को बाहर निकलने के लिए 10 अंक मिलते थे तथा समय निर्धारित होता था। वहीं 1919 में 5 अंक कर दिए गए और खेल को आठ मिनट तक कर दिया गया। यदि पूरी टीम समय से पहले ही रन बना लेती है, तो पीछे भागने वाले को हर उस मिनट के लिए 5 अंक का बोनस आवंटित किया जाता है। अन्य बदलाव खेल के मैदान में किए गए थे जैसे इसे दीर्घ वृत्ताकार से आयताकार में बदल दिया गया था। वहीं दो खंबों के बीच की दूरी को 27 गज तक छोटा कर दिया गया था और प्रत्येक खंबो से बाहर 27 गज x 5 गज की दूरी पर 'डी' जोन को बनाया गया था।

1957 में “ऑल इंडिया खो खो फेडरेशन” का गठन किया गया था और वहीं 1959-60 में विजय वाडा में पहली ऑल इंडिया खो-खो चैंपियनशिप का आयोजन किया गया, जो केवल पुरुषों के लिए आयोजित किया गया था और इसमें केवल 5 टीमों ने भाग लिया था। चैंपियनशिप को तत्कालीन मुंबई प्रांत ने राजाभाऊ जेस्ट के नेतृत्व में जीता था। साथ ही 1960-61 में पहली बार महिला चैंपियनशिप हुई थी। वर्ष 1963-64 में राष्ट्रीय स्तर पर उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले पुरुषों और महिलाओं के लिए पुरस्कार प्रदान किए गए और इन पुरस्कारों को "एकलव्य" और "झाँसी लक्ष्मी बाई पुरस्कार" का नाम दिया गया था। सबसे पहला पुरस्कार इंदौर में दिया गया था।

वर्ष 1970-71 में पहली जूनियर चैंपियनशिप को हैदराबाद में आयोजित किया गया था, जिसमें महाराष्ट्र विजेता और कर्नाटक उप विजेता रहे थे। यह प्रतियोगिता लड़कों के लिए आयोजित की गई थी और उसी वर्ष उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए "वीर अभिमन्यु" पुरस्कार भी प्रदान किया गया था। 1974-75 में इंदौर में लड़कों के साथ लड़कियों की पहली जूनियर चैंपियनशिप आयोजित की गई थी। वर्ष 1982 में, खेल को भारतीय ओलंपिक संघ के हिस्से के रूप में शामिल किया गया था।

वैसे तो खो-खो में कई नियम हैं, लेकिन हम यहां कुछ बुनियादी नियमों को सूचीबद्ध करेंगे, जो खेल के लिए आवश्यक होते हैं।
पीछे भागने वाली टीम के लिए नियम :-
• एक टीम में 9 खिलाड़ी होते हैं, जिसमें से 8 एक दूसरे के विपरीत चहरा करके बैठते और 1 व्यक्ति विपरीत टीम के धावक को छुने के लिए पीछा करता है और साथ ही पीछे की तरफ से अन्य खिलाड़ी को खो दे सकता है।
• दोनों खंबों के बीच 2 केंद्र रेखाएँ होती हैं, जिसे पार नहीं करना चाहिए, अन्यथा दंड मिलता है।
• अन्य खिलाड़ी को खो देते समय, खो का स्पर्श और ध्वनि एक ही समय में होनी चाहिए।
• खो प्राप्त किए बिना स्पर्श करने पर आप धावक को बाहर नहीं कर सकते है।
• पीछे भागने वाला दो खंबों को बीच से (बाएं या दाएं) पार नहीं कर सकता है।
• आप केवल मुक्त क्षेत्र में अपनी दिशा बदल सकते हैं।
• एक धावक को छूने के बाद, यदि आप खो देने से पहले अपनी दिशा (मुक्त क्षेत्र को छोड़कर) बदल देंगे, तो धावक बाहर नहीं होगा।
• हर दंड के लिए आपको पीछे की खो (धावक की विपरीत दिशा में) देनी होगी।
धावक के लिए नियम :-
• धावक 3 के समूह में आते थे।
• धावक मैदान में कहीं भी जा सकते हैं। वे किसी भी रेखा को पार कर सकते हैं।
• अगर संयोग से कोई धावक मैदान से बाहर आ जाता है तो वह धावक बाहर हो जाएगा।
• वहीं यदि धावक के शरीर का एक छोटा सा हिस्सा भी मैदान के अंदर है, तो धावक बाहर नहीं होगा।

संदर्भ :-
1. http://akilaavinuty.blogspot.com/2017/12/history-origin-and-development-of-kho.html
2. https://www.quora.com/What-are-the-basic-rules-of-kho-kho-to-be-known-by-a-beginner
3. https://www.youtube.com/watch?v=FixH2gS1nFY

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