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कई शोध, यह प्रमाणित करते हैं कि, योग हमारे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है। यही कारण है कि, पिछले कुछ वर्षों में, इंटरनेट और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ, मेरठ वासियों की भी योग में रूचि बढ़ रही है। क्या आप जानते हैं कि, योग और 'नियम' के बीच गहरा संबंध है! नियम उन सकारात्मक आदतों या कर्तव्य को कहा जाता है, जो योग और धर्म में सुझाए गए हैं। इनका उद्देश्य, लोगों को स्वस्थ जीवन जीने, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने और मुक्त अवस्था तक पहुँचने में मदद करना होता है। इसलिए, आज के इस लेख में, हम इन नियमों के बारे में विस्तार से जानेंगे। खासतौर पर, हम योग के पाँच नियमों (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) पर चर्चा करेंगे। इसकी क्रम में, हम इनके अर्थ और महत्व को समझेंगे। इसके बाद, हम यह भी जानेंगे कि, इन पाँच नियमों को अपने दैनिक जीवन में कैसे लागू किया जा सकता है। अंत में, हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि, योग के 8 अंगों का अभ्यास हमारे जीवन में क्यों ज़रूरी है।
नियम का क्या अर्थ है?
'नियम' एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ 'योग दर्शन और शिक्षा द्वारा सुझाए गए कर्तव्य या पालन' होता है। ये कर्तव्य, योग के मार्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। पतंजलि के योग सूत्र में नियमों को योग के दूसरे अंग के रूप में प्रस्तुत किया गया है। नियम योग के नैतिक नियमों को व्यक्ति के मन, शरीर और आत्मा पर लागू करने का तरीका हैं। इनसे व्यक्ति के भीतर एक सकारात्मक वातावरण बनाने में मदद मिलती है। नियमों का अभ्यास एक योगी को आंतरिक शक्ति, स्पष्टता और अनुशासन प्रदान करता है। ये गुण उसकी आध्यात्मिक यात्रा में प्रगति करने के लिए बहुत ज़रूरी होते हैं।
योग के 5 नियमों को निम्नवत दिया गया है:
1. शौच (स्वच्छता): शौच का अर्थ है ‘स्वच्छता’, लेकिन, यह केवल शारीरिक सफ़ाई तक सीमित नहीं है। इसका उद्देश्य, हमारे मन, विचार और आदतों की स्वच्छता पर भी ध्यान देना है। शौच की आदत डालने से, हमें यह समझने में मदद मिलती है कि कौन-सी आदतें हमारे जीवन में उपयोगी नहीं हैं। जब तक हम अपनी नकारात्मकता और 'अशुद्धियों' को दूर नहीं करेंगे, तब तक योग का अभ्यास कठिन हो सकता है। इसलिए, शौच हमें आंतरिक और बाहरी स्वच्छता बनाए रखने की सीख देता है।
2. संतोष (संतुष्टि): संतोष का अर्थ, संतुष्टि होता है, लेकिन इसे प्राप्त करना आसान नहीं है। हम अक्सर सोचते हैं, "मैं तब खुश होऊंगा जब यह होगा" या "अगर यह मिल जाए तो।" लेकिन संतोष हमें सिखाता है कि वर्तमान में जो हमारे पास है, उसे स्वीकार करें और उसकी सराहना करें। जब हम संतोष का अभ्यास करते हैं, तो हमारे मन की बेचैनी कम होती है। इससे हम अपने जीवन में सहजता और संतुष्टि के साथ आगे बढ़ सकते हैं।
3. तपस (अनुशासन): तपस का अर्थ, अनुशासन और भीतर से उत्साह का विकास होता है। यह नियम, हमें आत्म-अनुशासन और जुनून को बढ़ावा देने के लिए प्रेरित करता है। तपस का अर्थ, हर व्यक्ति के लिए अलग हो सकता है, लेकिन, इसका मूल उद्देश्य एक ही है:- हमारे अंदर छिपे साहस और उद्देश्य की भावना को जगाना। यह हमें, अपने लक्ष्य की ओर दृढ़ता से बढ़ने की शक्ति देता है।
4. स्वाध्याय (स्व-अध्ययन): स्वाध्याय का मतलब है, स्वयं का अध्ययन। पतंजलि ने कहा है, "स्वयं का अध्ययन करो और दिव्यता को खोजो।" इसका अभ्यास हमें आत्म-चिंतन और खुद को समझने की कला सिखाता है। इससे, हमें यह पहचानने में मदद मिलती है कि, कौन-सी चीज़ें हमारे लिए हानिकारक हैं और कौन-सी हमारे लिए फ़ायदेमंद। स्वाध्याय हमें जीवन के बारे में सीखने और अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है।
5. ईश्वर प्रणिधान (उच्च शक्ति के प्रति समर्पण): ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है ईश्वर या किसी उच्च शक्ति के प्रति समर्पण। इसका उद्देश्य अपनी अपेक्षाओं को छोड़कर जीवन को पूरी तरह से जीना होता है। हमें अपनी ओर से पूरी कोशिश करनी चाहिए, प्रामाणिक रहना चाहिए, लेकिन परिणाम के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए। ईश्वर प्रणिधान का अभ्यास हमारे तनाव और चिंता को कम करता है। इससे हम अपने दैनिक जीवन में अधिक सशक्त और शांत महसूस करते हैं।
योग के पाँच नियमों का अपने दैनिक जीवन में कैसे अभ्यास करें?
योग को केवल एक शारीरिक व्यायाम के रूप में देखना सही नहीं है। यह जीवन जीने का एक संपूर्ण तरीका है। योग के पाँच नियमों को अपनाकर हम अपने जीवन को संतुलित, शांतिपूर्ण और आनंदमय बना सकते हैं। आइए, इन पाँच नियमों को समझें और इन्हें मैट (योग अभ्यास) पर और अपने जीवन में कैसे लागू करें।
1. शौच (स्वच्छता)
मैट पर:
मैट से बाहर:
2. संतोष (संतुष्टि)
मैट पर:
मैट से बाहर:
3. तपस (संयम और अनुशासन)
मैट पर:
मैट से बाहर:
4. स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन)
मैट पर:
मैट से बाहर:
5. ईश्वर प्रणिधान (समर्पण)
मैट पर:
मैट से बाहर:
योग का अभ्यास, केवल शरीर को मज़बूत करने के लिए नहीं, बल्कि मन और आत्मा को भी शुद्ध करने के लिए है। इन पाँच नियमों को अपनाकर आप अपने जीवन को बेहतर दिशा में ले जा सकते हैं। योग को अपने दैनिक जीवन में शामिल करें और इसके सकारात्मक प्रभावों को महसूस करें।
योग के आठ अंगों का अभ्यास क्यों करना चाहिए?
ऋषि पतंजलि ने योग सूत्र के दूसरे अध्याय में योग के आठ अंगों की महत्ता को समझाया है। सूत्र 2.28 में वे कहते हैं:
"योगाङ्गनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः।"
अर्थात, "योग के आठ अंगों के निरंतर अभ्यास से अशुद्धियाँ समाप्त हो जाती हैं और ज्ञान व विवेक का प्रकाश फैलता है।"
योग के आठ अंगों का अभ्यास, हमें अपने सच्चे स्वरूप को पहचानने में मदद करता है। जब हम इन अंगों को गहराई से अपनाते हैं, तो आंतरिक संघर्ष और द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं। हमारे भीतर का प्रकाश, जो हमारा असली स्वरूप है, प्रकट होने लगता है। जैसा कि गुरुदेव श्री श्री रविशंकर जी ने समझाया है, "योग के आठ अंग, एक कुर्सी के चार पैरों की तरह हैं। ये आपस में इस तरह जुड़े हुए हैं कि यदि आप एक को खींचेंगे, तो बाकी सभी अपने आप खिंचकर आ जाएँगे।"
यह तुलना समझने में मदद करती है कि, जब हम शरीर को विकसित करते हैं, तो यह समग्रता में विकसित होता है। जैसे शरीर के सभी अंग एक साथ बढ़ते हैं, वैसे ही योग के ये आठ अंग भी, एक साथ अभ्यास किए जाते हैं। यह चरणबद्ध प्रक्रिया नहीं है, बल्कि एक सामूहिक अनुभव है।
योग के आठ अंग, हमें शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से संतुलित करते हैं। जब हम इनका अभ्यास करते हैं, तो यह एक ऐसा अनमोल उपहार बन जाता है, जो हमें जीवन में शांति, संतुलन और आनंद प्रदान करता है। इसलिए, योग के आठ अंगों का अभ्यास न केवल हमारे जीवन को सरल और शुद्ध बनाता है, बल्कि हमें हमारे असली स्वरूप से जोड़ता है। यह अभ्यास, जीवन के हर पहलू में संतुलन लाता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/27lxho2l
https://tinyurl.com/24p9yneg
https://tinyurl.com/2xlehd89
https://tinyurl.com/2yfjqybj
मुख्य चित्र : तांत्रिक योग के छह चक्रों का चित्रण (Wikimedia)
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