
लखनऊ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि लगभग 1350 ईस्वी से, हमारा शहर लखनऊ शाही संस्थाओं, विशेष रूप से, दिल्ली सल्तनत, शर्की सल्तनत, मुगल साम्राज्य, अवधी नवाबों, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company), और अंततः, ब्रिटिश राज, द्वारा लगातार प्रभुत्व में रहा, प्रत्येक ने इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत पर एक अमिट छाप छोड़ी है। जब मुगल साम्राज्य ने भारत को 12 प्रांतों में विभाजित किया, तो लखनऊ अवध के सूबेदार के अधीन आ गया। 1722 में नवाब सादात खान (Saadat Ali Khan) ने सत्ता की बागडोर संभाली और अवध राजवंश की स्थापना की। 1775 में, जब आसफ़-उद-दौला (Asaf-ud-Daula), अवध के चौथे नवाब बने, तो उन्होंने अपनी राजधानी फैज़ाबाद से लखनऊ स्थानांतरित करने का फैसला किया। इसी बीच लखनऊ की वास्तुकला ने भी विभिन्न प्रभावों के साथ अपना रूप धारण किया। शहर के इमामबाड़ों, महलों, उद्यानों और आवासीय संरचनाओं जैसे वास्तुशिल्प चमत्कारों में अवधी वास्तुकला के शाही तत्व देखे जा सकते हैं। तो आइए, आज लखनऊ के अवध की राजधानी बनने के सफ़र और नवाब आसिफ़-उद-दौला के अधीन अवध के प्रशासन के विषय में जानते हैं। इसके साथ ही, हम नवाबों के शासनकाल के दौरान, लखनऊ के कुछ सबसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्मारकों जैसे बड़ा इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा और फ़रहत बख्श की वास्तुकला की विशेषताओं और अवध वास्तुकला में प्रयुक्त भवन निर्माण सामग्री के बारे में बात करेंगे। अंत में, हम लखनऊ की वास्तुकला पर इंडो-इस्लामिक और यूरोपीय प्रभावों के बारे में विस्तार से जानेंगे।
लखनऊ के अवध की राजधानी बनने की यात्रा:
1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अवध साम्राज्य पर औपचारिक रूप से कब्ज़ा करने के बाद, एक समझौता हुआ, जिसे बाद में 1857 के विद्रोह के दौरान नष्ट कर दिया गया, जिससे सभी महत्वपूर्ण रिकॉर्ड भी नष्ट हो गए। आइन-ए-अकबरी से पता चलता है कि 1580 ईसवी में, मुगल सम्राट अकबर द्वारा अवध के प्रशासनिक प्रांत की स्थापना के बाद से लखनऊ एक महत्वपूर्ण शहर के रूप में सामने आया। 1722 में शौकत जंग (1680-1739) की नवाब वज़ीर के रूप में नियुक्ति से नवाबों के राजवंश की शुरुआत हुई। हालांकि, शुरुआत में अवध की राजधानी फैज़ाबाद में स्थित थी, 1775 में नवाब आसफ़- उद-दौला ने राजधानी को लखनऊ स्थानांतरित करने का फ़ैसला लिया।
नवाब आसिफ़-उद-दौला के अधीन अवध का प्रशासन:
आसिफ़-उद-दौला ने अवध में शासन को केंद्रीकृत करने और राजस्व प्रणालियों को आधुनिक बनाने के उद्देश्य से कुछ सुधार लागू किए, जो इस प्रकार हैं:
शासन का केंद्रीकरण: नवाब आसिफ़-उद-दौला ने अपनी सत्ता को संघटित करने के उद्देश्य से शासन की अधिक केंद्रीकृत प्रणाली स्थापित करने की मांग की। इसमें स्थानीय ज़मींदारों की स्वायत्तता को कम करना और अधिक प्रशासनिक कार्यों को राज्य के सीधे नियंत्रण में लाना शामिल था।
राजस्व प्रणालियों का आधुनिकीकरण: अवध में पारंपरिक राजस्व संग्रह प्रणाली जमींदारी प्रणाली पर आधारित थी, जिसमें जमींदार सुरक्षा और प्रशासन के बदले में किसानों से राजस्व एकत्र करते थे। लेकिन, यह प्रणाली शोषणकारी और अक्षम थी। आसफ़-उद-दौला ने अधिक व्यवस्थित और मानकीकृत राजस्व संग्रह तरीकों को शुरू करने का प्रयास किया। इसमें वास्तविक उत्पादकता के आधार पर भूमि राजस्व का आकलन करना और स्थानीय ज़मींदारों द्वारा मनमाने करों को बदलने के लिए निश्चित दरें लागू करना शामिल था।
नौकरशाही की स्थापना: इन सुधारों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, नवाब आसफ़-उद-दौला ने एक संरचित नौकरशाही की स्थापना की। इस नौकरशाही में राजस्व संग्रह, कानून-व्यवस्था एवं सार्वजनिक कार्यों जैसे विभिन्न प्रशासनिक कार्यों की देखरेख के लिए नवाब द्वारा अधिकारी नियुक्त किए गए। नौकरशाही प्रणाली की स्थापना से प्रशासन को केंद्रीकृत करने और राज्य भर में शासन में एकरूपता सुनिश्चित करने में मदद मिली।
न्यायिक सुधारों का परिचय: नवाब ने न्यायिक प्रणाली में सुधार पर भी ध्यान केंद्रित किया। न्यायिक सुधारों का उद्देश्य न्याय तक बेहतर पहुंच प्रदान करना, भ्रष्टाचार को कम करना और कानूनी कार्यवाही में निष्पक्षता सुनिश्चित करना था। इसमें नियुक्त न्यायाधीशों के साथ औपचारिक अदालतें स्थापित करना, मानकीकृत कानूनी प्रक्रियाएं और न्याय प्रशासन में स्थिरता तथा निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए कानूनों का संहिताकरण शामिल था।
बुनियादी ढांचे का विकास: प्रशासनिक सुधारों के साथ-साथ, बुनियादी ढांचे के विकास के प्रयास भी किये गये। इसमें व्यापार, संचार और सुविधा के लिए सड़कों, पुलों और सार्वजनिक भवनों में निवेश किया गया। बेहतर बुनियादी ढांचे से न केवल अवध में आवागमन को बढ़ावा मिला, बल्कि आर्थिक विकास और राज्य के आधुनिकीकरण में भी योगदान मिला।
इन प्रशासनिक सुधारों का अवध समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा। केंद्रीकृत शासन और आधुनिक राजस्व प्रणालियों ने राज्य के वित्त को स्थिर करने और सार्वजनिक सेवाओं में सुधार करने में मदद की। नौकरशाही की शुरूआत ने शिक्षित अभिजात वर्ग के लिए राज्य की सेवा करने के नए अवसर पैदा किए, जिससे सरकारी अधिकारियों के एक वर्ग का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त, न्यायिक सुधारों ने आर्थिक गतिविधियों और सामाजिक स्थिरता को बढ़ावा देते हुए अधिक पूर्वानुमानित कानूनी माहौल बनाने में योगदान दिया।
नवाबों के शासनकाल के दौरान लखनऊ की वास्तुकला की विशेषताएं:
धार्मिक वास्तुकला का रूप - इमामबाड़े:
कब्रें, इमामबाड़े और मस्ज़िद जैसी विशाल इमारतें वास्तुकला के पारंपरिक तत्वों को दर्शाती हैं। धार्मिक वास्तुकला की इस शैली में, इमारतों के गुंबदों में जटिल विवरण, लंबी मीनारें, प्रवेश द्वार में सजावटी तत्व के रूप में मछली, आधार के लिए उच्च चबूतरे, मठ, मेहराब और छतरी शामिल हैं।
रूमी दरवाज़ा: यह लखनऊ में अवधी वास्तुकला के उदाहरणों में से एक है, जिसका निर्माण, 1784 में नवाब आसफ़-उद-दौला द्वारा किया गया था। रूमी दरवाज़े का वास्तुशिल्प विवरण इस तरह से है जैसे कि यह मुगलों के जीवन जीने के तरीके का प्रतिनिधित्व करता हो। उल्टा वी-धनुषाकार प्रवेश द्वार, चिकनकारी कपड़ों की स्थानीय शैली को दर्शाता है। यह दरवाज़ा, छोटे और बड़े इमामबाड़ा के बीच एक संबंध की तरह काम करता है। 60 फ़ीट ऊंचे इस दरवाज़े में मूल रूप से लाल पत्थर की संरचना है, जिसके ऊपर सजावटी मेहराबों के लिए ईंटों की परतों का उपयोग किया गया है।
फ़रहत बख्श: 1781 में एक आवासीय महल के रूप में निर्मित इस कलात्मक वास्तुशिल्प डिज़ाइन को छत्तर मंजिल के रूप में भी जाना जाता है। यह इमारत, गोमती नदी के तट पर स्थित है, जो एक अष्टकोणीय आधार पर नदी के सबसे निचले स्तर से ऊपर उठी हुई है। इस इमारत के डिज़ाइन में इंडो-मुगल और यूरोपीय तत्वों का मिश्रण देखने को मिलता है।
अवध वास्तुकला में प्रयुक्त भवन निर्माण-सामग्री:
अवध वास्तुकला शैली की विशेषता लोहे का कम उपयोग और बीम न होना है। लखौरी ईंटों, ऊंचे गुंबददार हॉल और छत की मुंडेरों के साथ, इस वास्तुकला शैली में एक यूरोपीय रंग देखने को मिलता है। लखौरी ईंटों से बनी संरचनाओं पर आमतौर पर चूने का प्लास्टर भी लगाया जाता था। सजावट के लिए, अधिकांश सामग्री दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आयात की जाती थी। संगमरमर एवं प्राकृतिक पत्थरों का प्रयोग भी आम था।
लखनऊ की वास्तुकला पर इंडो-इस्लामिक प्रभाव:
लखनऊ के नवाब, मुगल कुलीन वर्ग के ईरानी समूह से संबंधित थे और इसलिए उनका फ़ारसी विचारधाराओं से गहरा संबंध था। इस विचारधारा ने उनकी शैलीगत विशेषताओं को प्रभावित किया, जैसे, मछली जैसे पशु रूपांकनों का उपयोग। कई स्मारकों के प्रवेश द्वारों के मेहराब पर मछली के ये प्रतीक देखे जा सकते हैं। सभी मृत नवाबों के लिए एक मकबरा भी बनवाया जाता था। उस समय के घरों में मर्दाना और ज़नाना भाग अलग होते थे। घरों में भूलभुलैया जैसे रास्ते भी होते थे, जो मुख्य रूप से निवासियों द्वारा उपयोग किए जाते थे। इस वास्तुकला का रणनीतिक महत्व था, क्योंकि बाहरी लोग संकीर्ण रास्तों की जटिलता को समझने में असमर्थ होते थे और इसलिए अजनबी यहां तक नहीं पहुंच सकते थे।
यूरोपीय प्रभाव:
भारत की गर्म जलवायु ने, विशेष रूप से गर्मियों के दौरान, ब्रिटिशों को स्वदेशी घरों की तुलना में यूरोपीय घरों को प्राथमिकता देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वदेशी घरों के विपरीत, क्षेत्र में यूरोपीय घरों में बीच में आंगन नहीं होता था और घर के भीतर निजी और सार्वजनिक स्थान अलग-अलग थे। इसका एक उदाहरण लखनऊ की सबसे पुरानी यूरोपीय इमारतों में से एक दुलकुशा में प्रभावी ढंग से देखा जा सकता है। इसके अलावा, पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग स्थान नहीं थे और दरवाज़े तथा खिड़कियां बहुत बड़े होते थे। अंदर से अलंकृत स्वदेशी घरों के स्थान पर अब बाहर से अलंकरण का भव्य प्रदर्शन किया जाने लगा।
संदर्भ
लखनऊ का हार्डिंग पुल चित्र स्रोत : प्रारंग चित्र संग्रह
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